कोठी बिल्कुल जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी है। सामने खड़े होने पर लगता है कि अपने ही ऊपर गिर पड़ेगी। यहाँ मियाँ बशीरुद्दीन से भेंट होती है। बुजुर्ग हैं। शूटिंग के दिनों के गवाह हैं। कोई महीने भर चली थी। शूटिंग प्रायः सुबह और दोपहर के वक्त होती थी। शाम का वक्त छबि बिश्वास के रस-रंजन का होता। वे कोठी के एक छोर पर होते थे। सत्यजीत रे कोठी के दूसरे छोर पर थे क्योंकि वे जरा तन्हाई पसन्द थे और आगे के शेड्यूल पर निर्बाध विचार करने में लगे होते। सिर्फ ठाकुर दालान वाला हिस्सा अब यहाँ ठीक-ठाक है क्योंकि दुर्गा-पूजा के दिनों में प्रतिमा की स्थापना की जाती है।
चलिए, एक खेल खेलते हैं! मैं किसी किरदार को लेकर कोई कहानी रचता हूँ। वो जहाँ रहता है, मैं वहाँ कभी नहीं गया। कोई पता-ठिकाना नहीं है। बस उस जगह के बारे में सुन रखा है। अब आपको करना ये है कि मैं जिस स्थान का विवरण दर्ज करूँ, वो आपको ढूँढकर निकालना है। क्या लगता है? क्या यह मुमकिन है?
यह जो ‘जलसाघर’ है, दरअसल संगीत का दरबार है। रात के वक्त कोठी की सिर्फ छाया दिखाई पड़ रही है। एकदम स्याह। भीतर अलबत्ता रोशनी है और शीशों से छनकर आ रही है। कुछ शमाएं जल रही हैं और जल्द ही मालूम हो जाता है कि वे तन्हा नहीं है। यह एक खूबसूरत झूमर है, जो उस्ताद विलायत खान के सितार के साथ फ़िल्म की शुरुआत में भी झूमता दिखाई पड़ता है। कैमरा जैसे ही नीचे की ओर घूमता है, बेगम अख्तर अपने तानपूरे के साथ दिखाई पड़ती हैं। पीछे बड़े-से आईने में सामने बैठे श्रोता भी दिख जाते हैं। महफ़िल सजी हुई है। मस्त गाना है, “भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन।” गाना कानों से होकर दिल में ठहर जाता है और दृश्य आँखों में झूलता रहता है।
इसी कोठी को रु-ब-रु देखने के लिए मैं हलाकान हुआ जा रहा था और यह बड़ी मशक्कत से मिला। ‘सत्यजीत रे फ़िल्म सोसायटी’ के भद्र मानुस ने ‘पाथेर पांचाली’ वाले बोरल गाँव का पता तो दिया था, पर ‘जलसाघर’ की कोठी पर किसी भी किस्म के सहयोग से इनकार कर दिया था। वे शायद सोचते रहे होंगे कि इतनी दूर जाने की जेहमत मैं नहीं उठा पाऊँगा। कई बार सामने वाले की सनक का अंदाजा लगा पाना मुश्किल होता है। आप जितना सोचते हैं, वह उससे से कहीं ज्यादा निकलता है। बहुत ज्यादा!
आशीष भद्रा कोलकाता के पार्क स्ट्रीट इलाके में एक रेस्तरां चलाते हैं। सिनेमा और संगीत के शौकीन हैं। सत्यजीत रे और उनकी फिल्मों के बारे में ढेर सारी मालूमात रखते हैं। वे एक ऐसे शख्स हैं, जिन्हें ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के सारे संवाद शुरू से आखिर तक याद हैं, गोया उन्हें इस विषय में कोई इम्तिहान देना हो। निमतीता गाँव का पता-ठिकाना इन्हीं से मिलता है, जहाँ ‘जलसाघर’ वाली कोठी है। गाँव फरक्का के पास है, बांग्लादेश की सीमा से लगा हुआ। नक्शे में देखें तो यह वही जगह है जहाँ उत्तर-पूर्व की ओर जाने से पहले मुल्क का नक्शा एकदम सिकुड़ जाता है। पश्चिम बंगाल का जिला मुर्शिदाबाद। इस कोठी तक सत्यजीत रे भी मुश्किल से पहुँच पाए थे, लेकिन वह किस्सा थोड़ा ठहरकर।
यह साल 1958 है। ‘पाथेर पांचाली’ और ‘अपराजिता’ के बाद रे ने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए कि थोड़ी-बहुत कमाई भी हो जाए। ‘जलसाघर’ के साथ-साथ उन्होंने ‘पारस पत्थर’ भी बनाई, जो हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्म थी। ‘जलसाघर’ के बहाने रे बंगाल के अतीत में गोते लगाते हैं। पुरानी यादें हैं। गीत-संगीत का वह माहौल है जो पुनर्जागरण के दौर में तैयार हुआ था। कथा की पृष्ठभूमि 1935-40 के आस-पास की है। यह वह दौर है जब अंग्रेजों के चला-चली की बेला तैयार हो रही है और किसान आंदोलनों के उभार के साथ जमींदारी प्रथा का सूरज ढल रहा है। ‘लोकशाही’ अभी आने को है पर पूत के पाँव पालने में ही नज़र आने लगे हैं। एक व्यवस्था जब खत्म होने को हो तो जरूरी नहीं कि नई व्यवस्था में सब कुछ भला ही हो। कई बार विकृतियाँ इनमें बहुत कुरूप ढँग से सामने आती हैं और फिर यह मोहभंग का कारण बनती हैं। एक ओर जमींदार और जमींदारी जहाँ खत्म हो रहे हैं, इसी के समानांतर एक वर्ग ऐसा भी उभर रहा है जो नवधनाढ्य है। यह कला-संस्कृति से विमुख, सुरुचिहीन और एक हद तक इतना फूहड़ है कि उसे नवधनाढ्य के बदले धनपशु ही कहा जाना बेहतर है। यह एक तरफ से ढहती और दूसरी ओर से बनती व्यवस्थाओं का कंट्रास्ट है। इन दो पाटों के बीच कला-संस्कृति कि वह समृद्ध विरासत पिस रही है, जिसकी चिंता फिल्मकार को है। कलाओं के प्रति नायक का यह अनुराग ही फिल्मकार के जेहनो-दिल में एक कमजोर कोना तलाश लेता है और वह फ़िल्म में उस तरह से ऐयाश और रंगीनमिज़ाज नज़र नहीं आता, जैसा मूल कथा में है। मालूम पड़ता है कि कला के प्रति फिल्मकार की अपनी आसक्ति ही उसे नायक के प्रति जरा उदार बना देती है, अन्यथा सामंती-जमींदारी व्यवस्था की हिमायत तो वह कतई नहीं करता है।
बिशंभर राय इतनी बड़ी कोठी में अपने परिवार का इकलौता बचा हुआ शख्स है। कहने को उसके साथ उसका नौकर, एक घोड़ा और एक हाथी भी है। स्टेट अब नहीं बची है, पर स्टेट मैनेजर बचा हुआ है। कोठी में बीते दिनों की यादों के अलावा और कुछ नहीं बचा है। शान-शौकत चली गई है। कमाई का कोई जरिया बचा नहीं है, खर्च अलबत्ता हजार हैं। बिशंभर राय अपना जीवन अतीत की यादों के सहारे काट रहा है और शायद काट भी लेता अगर बगल में गाँगुली परिवार न होता। इस परिवार ने हाल ही में खूब पैसे पीटे हैं। बेशऊर हैं। पैसे आ गए हैं तो उसका भौंडा प्रदर्शन करना जरूरी है। एक मकसद बिशंभर राय को नीचा दिखाना भी है। या शायद बिशंभर राय ही ऐसा सोचता है। दिन थोड़े खराब हों तो अच्छी सोच भी साथ छोड़ जाती है।
कहानी कुल मिलाकर यही है। सम्वाद बहुत कम हैं। जो कुछ भी कहना है आँखों से कहना है, या चेहरे के भावों से या देह की भाषा से। छबि विश्वास ने बड़ी खूबी से यह सब कहा है। ऐसा अभिनय कम ही देखने को मिलता है। फ़िल्म के रिलीज होने के बाद वे ज्यादा दिन नहीं चल पाए और फ़िल्म की ही तरह निजी जीवन में एक दुर्घटना का शिकार हो गए। रे को सदमा-सा लगा। उन्होंने कहा कि वे आइंदा कोई ऐसी फिल्म नहीं बनायेंगे, जिसमें कोई प्रौढ़ नायक हो। उन्हें लग रहा था कि छबि बिश्वास जैसा दूसरा अभिनेता मिलना मुश्किल है, जो कुछ बोले बगैर भी सब कुछ कह देता है। बाकी जो बातें कहने की थीं, वे रे अपने कैमरे से कह देते हैं: बिशंभर राय अपने हाथी को टहलते हुए निहार रहा है। आँखों में चमक है। बीते दिनों के गौरव का प्रतीक अब यही एक हाथी रह गया है। अचानक दूसरी ओर से गाँगुली की लॉरी आती है। धूल का गुबार उठता है। धूल के गुबार में हाथी ओझल हो जाता है। हाथी-घोड़ों वाले दिन अब लद गए हैं बिशंभर बाबू! यह मोटर-गाड़ी का जमाना है।
कहानी ताराशंकर बंदोपाध्याय ने लिखी थी। कहानी ही थी, नॉवेल नहीं था। रे को कथा पसन्द आ गयी। वे अपने आर्ट डायरेक्टर बंशी चन्द्र गुप्त और सिनेमेटोग्राफर सुब्रत मित्रा के साथ उस कोठी की तलाश में निकल पड़े, जहाँ बिशंभर राय के ‘द म्यूजिक रूम’ को साकार किया जा सके। कोलकाता में ऐसी बहुत-सी कोठियाँ थी, पर आस-पास वैसा निर्जन इलाका नहीं था, जैसा कहानी में वर्णित था। रे यहाँ-वहाँ की खाक छानते रहे पर मन मुताबिक जगह नहीं मिल रही थी। घूमते-घूमते मुर्शीदाबाद पहुँचे। कोलकाता के सम्पन्न लोगों ने यहाँ अपनी कोठियाँ बना रखी हैं। स्थानीय लोग इन्हें राजबाड़ी कहते हैं। रे एक राजबाड़ी से दूसरे की खाक छानते रहे। मामला कहीं जमा नहीं। फिर लालगोला नाम की एक जगह में एक होटल में चाय पीने लगे। चाय पर चर्चा करते हुए रे खिन्न थे कि मतलब की जगह मिल नहीं पा रही है। चाय वाला इस चर्चा को गौर से सुन रहा था। उसने कहा कि पास के गाँव में चौधरी बाबू की राजबाड़ी है। नदी के किनारे एकांत में है। एक बार वहाँ घूम आएँ, शायद आपका काम बन जाए। रे की तिकड़ी नीमतीता गाँव की ओर रवाना हो गयी। कोठी दूर से ही नज़र आने लगी। रे कुछ क्षण उसे अपलक देखते रहे। बंशी चन्द्र गुप्त से कहा कि लगता है अपनी खोज पूरी हो गई। बंशी बाबू ने कहा कि मैं भी यही कहने वाला था। कोठी जाकर अंदर-बाहर देखा। केयर-टेकर से बातचीत की तो पता चला वह किसी चौधरी बाबू की है और वे कोलकाता में ही रहते हैं। चाय वाले की सूचना कमाल की थी। कभी-कभी चायवाले भी काम के निकल जाते हैं।
रे कोलकाता लौटकर आए तो तारा बाबू से मिले। कहा कि कोठी की तलाश पूरी हो गयी। तारा बाबू ने पूछा कि कहाँ मिल गया। रे ने कहा, “मुर्शीदाबाद…।” बस इतना सुनते ही तारा बाबू ने उन्हें बीच में ही टोक दिया। कहा, ” कहीं वो चौधरी बाबू वाली कोठी तो नहीं है?” अब रे चौंक पड़े। कहा कि आपको कैसे मालूम? ताराशंकर बंदोपाध्याय ने कहा कि ” कहानी मैनें उन्हीं उपेन्द्र नारायण चौधरी के बारे में सोचकर लिखी है। हालांकि मैं वहाँ कभी गया नहीं हूँ।”
निमतीता जाने के लिए मेरे पास दो विकल्प थे। एक तो यह कि सड़क के रास्ते से टैक्सी लेकर चला जाऊँ। इसमें मुख्यतः तीन किस्म की हानियाँ होती हैं। पहली तो यह कि यह एकांत-यात्रा होती है, चुपचाप खुद में ही सिमटकर बैठना होता है। पता नहीं टैक्सी चलाने वाला किस मूड का हो। दूसरे, वे कभी-कभी ऐसे गाने लगा देते हैं कि गाड़ी से कूद जाने का मन करता है। तीसरी और सबसे पुख्ता वजह यह होती है कि यह यात्रा जरा महंगी पड़ती है। अपन कोई बिशंभर राय की तरह गुजरे जमाने के जमींदार तो हैं नहीं! दूसरा और आसान विकल्प रेलयात्रा का था। फरक्का के लिए ट्रेन पकड़ ली। ट्रेन में पूरा बंगाल दिख जाता है। खाने-पीने के लिए झालमुड़ी, बादाम(मूंगफली), सिंघाड़ा, चॉप या लेमन टी वगैरह आसानी से मिल जाते हैं। चाहें तो कीमत चुकाकर ढाँकाई सिल्क या जामदानी साड़ियाँ भी ले सकते हैं और मुफ्त में बाउल गीत का मजा भी। करमुक्त मनोरंजन के लिए ट्रेन की सीट हासिल करने वाली लड़ाई बड़ी दिलचस्प होती है। आधा रास्ता इसी के फेर में कट जाता है। घुमन्तूराम को इस तरह की जीवंत यात्राएं ही पसन्द आती हैं!
फरक्का स्टेशन से कुछ दूर बस की यात्रा करने के बाद मैं हाइवे में ही उतर जाता हूँ। रास्ता वैसा ही है, जैसा बंगाल में अमूमन दिखाई पड़ता है। सड़क के किनारे पोखर और नारियल के पेड़। कहीं-कहीं दूर-दूर पर छिन के पत्तों वाली छतों के कुटियानुमा घर। पोखरों से उठती हुई अजीब-सी गन्ध। गाँव के घर वैसे ही हैं जैसे रवीन्द्रनाथ, शरत चन्द्र या तारा बाबू के किस्सों में दिखाई पड़ते हैं। जगह-जगह घरों में हथकरघे का काम दिखाई पड़ता है। पुरुष प्रायः तहमद-बनियान में हैं। गंगो-जमनी तहजीब अपने पूरे शबाब के साथ दिखाई पड़ती है। आगे कोई दो किलोमीटर का रास्ता मुझे ‘विनोबा ट्रांसपोर्ट’ से तय करना है।
कोठी अब मुझे दूर से ही नज़र आने लगी है। मैं इन दृश्यों का मिलान फ़िल्म के दृश्यों के साथ करने लगा हूँ। सामने पद्मा नदी बह रही है। नदी के दूसरी ओर बांग्लादेश है। सीमा होने के कारण सीमा सुरक्षा बल के जवान गश्त लगाते भी दिखाई पड़ रहे हैं। नदी के अलावा यहाँ-वहाँ नदी के अवशेष भी हैं। उथले और रेतीले। इलाके में सनद मशहूर है कि “पद्मा की भूख असीमित है!” रास्ते बदलते हुए वह कई बार खेत-खलिहान-घरों को खा जाती है। पता नहीं बिशंभर राय की कोठी को उसने कैसे बख्श दिया है। यों एक बाढ़ में उसने बिशंभर राय की बीवी और बेटे को निगल लिया था। आगे बिशंभर राय को भी अपने प्राण यहीं त्यागने हैं, पर इस बार पद्मा का कोई कसूर नहीं होगा। यह खुद बिशंभर राय है जो अपने प्राण थोड़ा-थोड़ा कर त्याग रहा है। बस अंतिम क़िस्त चुकाई जानी है।
कोठी बिल्कुल जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी है। सामने खड़े होने पर लगता है कि अपने ही ऊपर गिर पड़ेगी। यहाँ मियाँ बशीरुद्दीन से भेंट होती है। बुजुर्ग हैं। शूटिंग के दिनों के गवाह हैं। कोई महीने भर चली थी। शूटिंग प्रायः सुबह और दोपहर के वक्त होती थी। शाम का वक्त छबि बिश्वास के रस-रंजन का होता। वे कोठी के एक छोर पर होते थे। सत्यजीत रे कोठी के दूसरे छोर पर थे क्योंकि वे जरा तन्हाई पसन्द थे और आगे के शेड्यूल पर निर्बाध विचार करने में लगे होते। सिर्फ ठाकुर दालान वाला हिस्सा अब यहाँ ठीक-ठाक है क्योंकि दुर्गा-पूजा के दिनों में प्रतिमा की स्थापना की जाती है। पूजा के लिए चौधरी परिवार कोलकाता से यहाँ चला आता है। सूचनाएँ देते हुए मियाँ बशीरुद्दीन थोड़े खीझते भी हैं। ‘शूटिंग स्पॉट’ देखने के लिए रोज कुछ लोग यहाँ टपक जाते हैं। बशीरुदीन चाहते हैं कि सरकार यहाँ बिन बुलाए मेहमानों के लिए कोई उचित व्यवस्था कर दे।
‘द म्यूजिक रूम’ की चर्चा संगीत के जिक्र के बगैर मुकम्मल नहीं हो सकती। बाकी चीजों को छोड़ दें तो यह फ़िल्म सिर्फ संगीत की अमूल्य धरोहरों के लिए भी याद रखी जानी चाहिए। यहाँ बेगम अख्तर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, उस्ताद सलामत अली खां, उस्ताद वहीद खां और रोशन कुमारी सशरीर मौजूद हैं। सबके ‘लाइव परफॉर्मेन्स’ हैं। उस्ताद विलायत खाँ का संगीत तो है ही। दक्षिणा मोहन टैगोर ने तार शहनाई भी बजाई है। उस्ताद विलायत खां थोड़े इलीट किस्म के संगीतकार रहे हैं तो रे के साथ जरा ‘कम्युनिकेशन गैप’ भी रहा। इस फासले को पाटने में उनके भाई उस्ताद इमरत खां साहब का बड़ा योगदान रहा। सलामत अली खां का ‘ख्याल गायन’ इन्हीं इमरत खां ने ‘अरेंज’ किया। यह दुनिया का सबसे द्रुत ख्याल है क्योंकि इसके लिए महज 4-5 मिनटों का ही समय है। रोशन कुमारी की उम्र तब बमुश्किल 14-15 बरस की होगी और वे यहाँ कथक नृत्य करती हैं। सबसे ज्यादा हैरतअंगेज सूचना तो यह है कि इस सांगीतिक फ़िल्म के नायक छबि बिश्वास बहरेपन की हद तक ऊँचा सुनते थे। रे को यह बात बहुत बाद में मालूम पड़ी। उन्हें लिखित निर्देश दिए जाने लगे। लेकिन समस्या यह थी कि ‘लाइव परफॉर्मेन्स’ में वे दाद कब दें। उनके लिए एक इशारे करने वाला तैनात किया गया। यह छबि बिश्वास की अपने पेशे के लिए प्रतिबद्धता थी कि वे स्क्रिप्ट के गम्भीर अध्ययन और अपने गजब के अभिनय से इस बात का एहसास भी नहीं होने देते हैं। यों रे की गम्भीर छवि से लोग जरा आक्रांत रहते थे लेकिन छबि बिश्वास की छवि ऐसी थी कि रे भी जरा उनसे खौफ़ खाते थे।
बिसंभर राय का नौकर अनन्त (काली सरकार) भी कमाल का शख्स है। आमतौर पर वह घरेलू औपचारिक वेश में नज़र आता है। लेकिन जब राय साहब जरा सुरूर में होते तो वह पूरी तरह से यूनिफार्म में नमूदार होता। सिर पर पगड़ी होती। कुछ पलों के लिए ही सही बिशंभर राय को यह तो लगे कि वह गुजरे जमाने का वही रसूखदार जमीदार है। बिसंभर राय के जिस्म में अतीत के गौरव की पगड़ी है। शायर कहता है, “बांधे हुए हैं सिर पर सिर्फ रवायात की पगड़ी/ वक्त के जिस्म पर लिबास और कुछ भी नहीं।”
अतीत का मोह जल्दी पीछा नहीं छोड़ता। कभी अपना भी मुल्क सोने की चिड़िया कहलाता था। आगत क्या होगा, यह वक्त बताएगा। इबादत के सुरूर में बिसंभर राय की तरह हकीकत से मुँह मोड़ लेना ठीक नहीं है। कोई राजसी वस्त्र पहनकर आए तो नहीं मान लेना चाहिए कि सब ठीक चल रहा है।