कोविड-19 के कारण लगे ‘लॉक डाउन’ ने हमारे ‘वस्तुओं’ के भौतिक संसार की अपर्याप्तता के साथ-साथ आंतरिक, आध्यात्मिक संसार के सतहीपन की पोल भी खोल दी है। ऐसे में कई आध्यात्मिक कहे जाने वाले लोग अवसाद, डर और दुख को ‘भुनाने’ में लगे हैं, लेकिन क्या यह ‘आध्यात्म’ हमारे समाज के किसी काम का है?
राजेन्द्र चौधरी
हाल ही में एक अखबार में पूरे पृष्ठ पर ‘देश की पांच शीर्ष आध्यात्मिक’ विभूतियों के कोरोना पर आलेख छपे थे। इन सबने अपने-अपने शब्दों में निराश न होने, सकारात्मक सोच रखने सरीखी बातें की हैं, पर केवल बातें भर की हैं। यह सही है कि कोरोना-काल में मानसिक समस्याएं भी खड़ी हुई हैं। निराशा एवं भय से निकालने के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श की ज़रूरत भी है, पर यह देखकर दुःख हुआ कि देश के ‘शीर्ष आध्यात्मिक गुरुओं’ ने केवल मनुष्य की आंतरिक समस्याओं की चर्चा की है। कोरोना के दौर में प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ीदार और गरीब के साथ जो हुआ है, छोटे व्यापारी, दुकानदार और कारीगर के साथ जो हुआ है, यहाँ तक कि बड़े पैमाने पर सफ़ेद-पोश रोज़गार के भी ख़त्म होने का इन पांच आलेखों में कोई ज़िक्र तक नहीं है।
इसकी तुलना गाँधी जी के आध्यात्म से करें तो आज के आध्यात्म की सीमायें स्पष्ट हो जाती हैं। गाँधी जी भी आध्यात्मिक व्यक्ति थे। दोनों समय की प्रार्थना उनके जीवन का अभिन्न अंग थीं। ईश्वरीय तथा आंतरिक प्रेरणा में उनका अगाध विश्वास था, परन्तु इसके बावजूद उनका पूरा जीवन केवल ‘परिवचन’ का न होकर अपने परिवेश से सक्रिय संवाद का था। अपने अंतर्मन के साथ-साथ अपने समय-काल की बाह्य स्थिति भी उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। इसके साथ ही, अंग्रेज़ी राज के खिलाफ लड़ाई के दौर में भी, उन्होंने अपने समाज की आन्तरिक बुराइयों को नज़रंदाज़ नहीं किया। यह बहुत स्वाभाविक होता कि यह तय किया जाता कि पहले अंग्रेजों को देश से निकाल लें फिर अपने अन्दर की समस्याओं पर विचार करेंगे (आजादी के आंदोलनकारियों के एक हिस्से ने ऐसा किया भी!), परन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी आन्तरिक समस्याओं को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया गया। इसके विपरीत वर्तमान अध्यात्मिक गुरुओं ने तो कोरोना के चलते देश के जीवन में जो तूफ़ान आया है, लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन में जो उथल-पुथल हुई है उसको बिलकुल नज़रअंदाज़ करके, उसके चलते होने वाली वास्तविक समस्याओं को नज़रअंदाज़ करके, केवल ‘मानसिक’ स्वास्थ्य पर विचार किया है। अलबता, एक अध्यात्मिक गुरु ने अवश्य विदेशी के मुकाबले देसी ब्रांड खड़ा करने की ज़रूरत पर चर्चा की है।
यह सही है कि भौतिक ज़रूरतों के साथ-साथ मानव की मानसिक, गैर-भौतिक ज़रूरतें भी होती हैं। मनुष्य केवल रोटी नहीं चाहता, अपितु सम्मान के साथ रोटी चाहता है और प्रेम भी चाहता है। पर इन मानसिक ज़रूरतों की आपूर्ति को भी नितांत व्यक्तिगत रुख या निश्चय तक सीमित करना अपर्याप्त है। एक अध्यात्मिक गुरु ने तो अपने आलेख में यह मानकर जीने का आह्वान किया है कि ‘वो’ बीमारी ख़त्म हो चुकी है (उस बीमारी का नाम भी नहीं लेना है, इसलिए ‘वो’ बीमारी)। एक ऐसा समाज जहाँ प्रशासनिक व्यवस्था दुरुस्त हो और लोगों का उसमें विश्वास हो, वहां तालाबंदी के कारण अवसाद इत्यादि उस पैमाने पर नहीं फैलेंगे जैसे कि उस स्थान पर होंगे जहाँ स्थानीय प्रशासन पर विश्वास ही न हो। गैर-अध्यात्मिक वस्तुएं जैसे कि प्रशासनिक एवं स्वास्थ्य सेवाओं की समयबद्ध उपलब्धता एवं गुणवत्ता न केवल निराशा एवं अवसाद को सीमित कर देगी, बल्कि ‘उस’ बीमारी को भी सीमित कर देगी जैसा कि कई राज्यों (केरल आदि) एवं जिलों का अनुभव दिखाता है। इसलिए अध्यात्मिक या मानसिक या मनोवैज्ञानिक को नितांत निजी उपक्रम समझ कर इसके सामाजिक आयामों को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए। अगर केवल रोटी पर ध्यान केन्द्रित करना एकांगी है, (जैसे कि आगरा में दूर से रोटी फेंक कर देते वीडियो से इंगित होता है) तो ‘रोटी’ की समस्या को नज़रंदाज़ करके केवल ‘सोच’ सुधारने पर ध्यान करना भी उतना ही एकांगी है। हालाँकि जहाँ ‘रोटी’ भी मयस्सर न हो वहां सम्मानपूर्वक रोटी की बात करना दूर की कौड़ी लग सकती है, पर वास्तव में ज़रूरत दोनों की है।
आध्यात्मिक गुरुओं के ये आलेख देश के अन्दर के बंटवारे को ही रेखांकित करते हैं। एक ओर वो तबका है जिसकी बुनियादी भौतिक ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो रहीं, जो सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलने का खतरा मोल लेने को अभिशप्त है और दूसरी ओर वो तबका है जिनके लिए कोरोना का मतलब मुख्य तौर पर निराशा और अवसाद है। देश के अग्रणी अध्यात्मिक गुरु किनको मुखातिब हैं, यह इन आलेखों से स्पष्ट है, पर जब तक लाखों-करोड़ों लोग भूख-बेकारी से त्रस्त हों, तो संपन्न तबके भी ‘सुरक्षित एवं आश्वस्त’ महसूस नहीं कर सकते। अगर किसी में ज़रा सी भी सोचने-समझने की क्षमता बची है और सब कुछ होने के बावजूद, कुछ हद तक इंसान में यह क्षमता बची रहती है, तो वो अपनी सामाजिक व्यवस्था की ‘गैर-भरोसेमंदी’ को देखे बिना रह नहीं सकता और बिना भरोसे के सकारात्मकता और आशा नहीं आती। बिना भरोसेमंद सामाजिक व्यवस्था के निराशा और अवसाद अनिवार्य हैं। कुछ लोगों के लिए ये भरोसा समाज से न मिल कर ईश्वर से मिल सकता है, बहुतों के लिए तो वही एक मात्र सहारा है, पर आधुनिक युग में बढ़ती अवसाद और निराशा की घटनाएं यही दिखाती हैं कि केवल ईश्वर पर भरोसा पर्याप्त नहीं है। अपने सामाजिक परिवेश पर भरोसा ज़रूरी है और यह भरोसा आज उपलब्ध नहीं है। इसकी पुष्टि कोरोना के दौर के एकांगी अध्यात्म ने कर दी है। (सप्रेस)