दुनू राय

हाल में सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर दिल्‍ली में झुग्‍गी बस्तियों के 48 हजार परिवारों को अपनी जमीन से हटाने की रेलवे की पहल पर सरकार ने रोक लगा दी है। दिल्‍ली और देशभर में खलबली मचाने और गरीबों के आशियानों और रोजगार पर चोट करने वाला यह मुद्दा कोई पहली बार नहीं उठा है। क्‍या है, अदालत के इस निर्देश की पृष्‍ठभूमि?

दिल्ली में रेलवे के इर्द-गिर्द बसे 48,000 परिवारों को बेदखल करने के सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने तमाम लोगों को भयभीत कर दिया है। इन परिवारों का ‘दोष’ यह है कि उनकी वजह से रेलवे की “सुरक्षा” को खतरा है। इस कानूनी पेंच को समझना ज़रूरी है।

फैसले की जड़ में एमसी मेहता की 1985 की वह याचिका है जिसमें गंगा प्रदूषण के बहाने कानपुर के चमड़ा उद्योग पर निशाना साधा गया था। उस समय अदालत में 35 वकीलों ने नगरपालिका, प्रशासन और 43 कारख़ानों की नुमाइंदगी की थी। हाल की सुनवाई में 417 वकीलों ने नियंत्रक, रेलवे, कचरा प्रबंधक, वायु-शुद्धि कम्पनी, मानक निर्माता और 12 ताप-विद्युत् गृहों का पक्ष लिया।

गंगा प्रदूषण से बस्ती उजाड़ने तक का सफर कानून की चाल पर प्रकाश डालता है। 31 अगस्‍त के मामले में ‘इनवायरनमेंट पॉल्‍यूशन (प्रिवेंशन एण्‍ड कन्‍ट्रोल) अथॅारिटी’ (ईपीसीए) ने सुझाया था कि रेलवे का कचरा उसे बीनने वालों को ही दे देना चाहिए, लेकिन फैसले में अदालत ने बीनने वाले को ही उजाड़ दिया ! जब रेलवे खुद कहती है कि उसकी सुरक्षा खर्च पर निर्भर है, तब अदालत की निगाह इस पर क्यों नहीं जाती?

अदालत का यह कोई पहला निर्देश नहीं है। मेहता द्वारा दाखिल कई याचिकाओं के सहारे अदालत ने पहले दिल्‍ली की 168 ज़हरीली फ़ैक्टरियों को बंद किया था, फिर 75,000 और फ़ैक्टरियों को भी अनियमित करार दिया था। डीज़ल बंद करवाया था और उसके तुरंत बाद 10,000 डीज़ल बसों की जगह 4,000 सीएनजी बसों पर ठप्पा लगा दिया था। पडौस के अरावली पर्वत की खदानों को सील किया तो भाटी माईन्‍स की दो बस्तियों को उजाड़ दिया था। एक तरफ कोही को बचाने का हुक्म दिया, तो दूसरी तरफ वहां के 21 गावों में बेदखली का डर बसा दिया।

वर्ष 1996 में अलमित्रा पटेल के कचरा ना उठाने के मामले में अदालत ने पहले नगरपालिकाओं को फटकारा, फिर कहा कि ‘सबसे ज़्यादा प्रदूषण बस्तियों से है इसलिए उनको उठा देना चाहिए।’ उस पर टिप्पणी की गई कि ‘सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करने वाले को मुफ्त पुर्नवास देना पाकेटमार को ईनाम देना है।’ ऐसे फैसले ग़रीबों को प्रताड़ित करने में खूब काम आते हैं।

फ़ैक्टरी मालिकों के समूह ने दिल्ली उच्च-न्यायालय में 1994 में कहा था कि ओखला में बहुत भीड़ है, सुविधाओं की कमी है। वर्ष 2002 में बर्तन निर्माताओं के समूह ने भी यही शिकायत वज़ीरपुर के बारे में की थी। अदालत ने दोनों को साथ मिला कर फैसला सुना दिया, ‘सरकार की ज़िम्मेदारी है आवास देना,’ लेकिन ‘हम झुग्गियों का पुनर्वास करने की नीति को ही ख़ारिज कर देते हैं।’  

उसी समय दिल्ली उच्च-न्यायालय की एक और पीठ झुग्गी उजाड़ने के खिलाफ 36 याचिकाएं सुन रही थी, लेकिन ग़रीबों की बात सुनने की जगह अदालत ने फरमान सुनाया, ‘फरवरी 1997 के बाद बनी सभी झुग्गियों को उजाड़ दिया जाये।’ बाद में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करके दिल्ली अदालत के फैसले को रुकवा लिया था।

दिल्ली अदालत को इसकी खबर मिली तो उसने अपनी मर्ज़ी से झुग्गियों के खिलाफ यमुना को गन्दा करने का मुकदमा दायर कर दिया। उनके सामने एक अध्ययन रखा गया कि पुश्ता से जो नालियां यमुना में मिल रही हैं उनमें पूरे प्रदूषण का केवल 0.08% हिस्सा है, लेकिन हुक्म आया, ‘पुश्ता और खादर में जितनी भी इमारतें, झुग्गियां, धर्मस्थल हैं उनको तुरंत हटा दिया जाये।‘ वर्ष 2002 में पुश्ता से 60,000 गरीब परिवारों को उजाड़ दिया गया, जबकि खादर पर अमीरों के 23 अतिक्रमणों को किसी ने, कभी छुआ तक नहीं।   

इसी तरह नागला माछी गांव पर, उनकी भैंसों की वजह से रिंग रोड पर गन्दगी फैलाने और गाड़ियों का जाम लगाने का दोष मढ़कर अदालत ने निकालने का आर्डर दे दिया। सुरक्षा, प्राकृतिक-बचाव, प्रदूषण, भीड़, कचरा, ढोर, गन्दगी, ज़मीन – विषय कुछ भी हो, घुमा-फिराकर आखिर डंडा गरीबों पर ही पड़ता रहा है।  

इस सबकी आड़ में यह बात छुपी है कि कानून के मुताबिक स्लम वो जगह है, जो रहने के लिए योग्य नहीं है; जो जर्जर और घनी है; जिसमें हवा, सड़क, रौशनी, सफाई की कमी है; जो ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ ‘दिल्‍ली विकास प्राधिकरण’ 60 वर्षों में गरीबों के लिए एक-तिहाई मकान बना पायी है। सरकार को मालूम है, इसीलिए पुनर्वास नीति है-घर तोड़ेंगे, तो दूसरा घर देंगे।

अब ज़मीन महँगी होती जा रही है और ‘अयोग्य’ ज़मीन गरीबों से छीनकर अमीरों को देना कुछ अटपटा सा है। इसलिए समाज में यह विश्वास फैलाया जा रहा है कि झुग्गी बाकी शहर की ‘सुरक्षा, स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए हानिकारक हैं।’ जब तक अदालत और सरकार के इस दांव-पेंच को ईमानदार जनता, जन-प्रतिनिधि और मीडिया चुनौती नहीं देंगे, तब तक रोज़ी और रोटी से बेदखली का यह सिलसिला चलता रहेगा। (सप्रेस)

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