मौजूदा स्थितियां बता रही हैं कि अगर बेकारी एक समृद्ध अर्थव्यवस्था में आएगी तो लोगों के पास समय रहेगा और वे अपने समुदाय की सेवा और भलाई पर ध्यान देंगे। बच्चों और बूढ़ों की देखभाल करेंगे और अच्छा साहित्य और संगीत रचेंगे। लेकिन अगर यह स्थिति विपन्नता के वातावरण में आएगी तो सामाजिक उथल पुथल होगी, अमीर दुनिया की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करेंगे और गरीब अपनी जरूरत के लिए लड़ेंगे। ऐसे में सरकारी क्षेत्र और बाजार के बाहर तीसरे क्षेत्र यानी सोशल सेक्टर और सोशल कैपिटल को बढ़ावा देने की जरूरत पड़ेगी। इसमें यूबीआई यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम के साथ यूनिवर्सल बेसिक सर्विस(यूबीएस) की ज्यादा जरूरत पड़ेगी।
बढ़ती बेरोजगारी और भविष्य की आशंकाओं के बीच प्रयाग शुक्ल की `नौकरी’ कविता बहुत याद आती हैः—
नौकरियों और तबादलों के बहुत से किस्से हैं,/ सुने होंगे आपने भी
कौन किसलिए हटा, हटाया गया/ कई मजेदार हैं, कई ऐसे भी कि बस इतने भर से चली गई
उसकी नौकरी/ जानकर अचरज हो
किस्से कई ये भी हैं / कि कैसे लगी किसी की नौकरी
किसकी खुशामद से, किसकी /पहुंच से
कई हैं संयोग के भी कि / किसी को तो बैठे ठाले ही
मिल गई नौकरी / पर इन किस्सों में
कम ही होता है जिक्र उनका/ भटकते हैं तलाश में जो जाने कहां कहां
तलाश में नौकरी की/ दरअसल वे होते हैं
इतने दिलचस्प/ और उनके जिक्र से तो चुप्पी छा जाती है
जो छोड़ देते हैं नौकरी/ सचमुच यह जानते बूझते
बहस करते / कि उन्हें जल्दी से
मिलने वाली नहीं है / फिर से नौकरी
प्रयाग जी की यह कविता सदाबहार है। यह व्यक्तिगत है और समष्टिगत भी। भारत के ज्यादातर युवा और नौकरी पेशा लोग इस मामले को व्यक्तिगत स्तर पर ही लेते हैं। समष्टिगत स्तर पर ले रहे होते तो उनके लिए राजनीति और चुनाव के मुद्दे में रोजगार का सवाल होता और वे उस आधार पर पार्टियों और नेताओं का चयन करते और उन्हें खारिज करते। यही वजह है कि नौकरी के लिए लोग कितने किस्म के पूजा पाठ का आयोजन करते हैं और ज्योतिष का विचार करते हैं। वे अपनी नौकरी मिलने के लिए जाति और धर्म का मुद्दा भी बीच में ले ही आते हैं। या फिर किसी अधिकारी की खुशी और नाराजगी को प्राथमिकता देते हैं।
इस बीच थोड़ा परिवर्तन हुआ दिखता है। पिछले दिनों जब युवाओं ने बेरोजगार दिवस मनाया और विशेषकर उसके लिए प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिवस चुना तो लगा कि नौकरी का मुद्दा राजनीति का रंग ले रहा है। संभव है कि आने वाले समय में यह बात उठे भी कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सालाना दो करोड़ नौकरियां देने की बात की थी लेकिन अभी तो कुछ भी मिलने की बजाय छिनने का ही सिलसिला जारी है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार व पार्टी के पदाधिकारी यह कह कर लोगों को फुसला सकते हैं कि यह सारा संकट कोरोना महामारी के कारण है और इसके खत्म होते ही स्थितियों में तेजी से सुधार होगा। इसीलिए तमाम अर्थशास्त्री V (वी) ग्राफ की बात कर रहे हैं। यानी नीचे आई अर्थव्यवस्था अगले साल तेजी से सुधरेगी और सभी को लाभ होगा।
हालांकि हमारी सरकार बेरोजगारी के बारे में कोई सरकारी आंकड़ा जारी करने को तैयार नहीं है और न ही वह सेंटर फार मानीटरिंग इंडियन इकानमी के आंकड़ों (सीएमआईई) को मानने को तैयार है। इसके बावजूद लाखों लोगों के बड़े आंकड़े पर सर्वे करने वाले सीएमआईई का मानना है कि 16 सितंबर 2020 को भारत में बेरोजगारी दर का औसत 7.3 प्रतिशत था। यह दर शहरी क्षेत्र में 8.9 प्रतिशत तो ग्रामीण क्षेत्र में 6.5 प्रतिशत है। जुलाई में रोजगार की दर में 37.6 प्रतिशत की गिरावट आई है तो अगस्त में इसमें 0.1 प्रतिशत की कमी के साथ यह गिरावट 37.5 दर्ज की गई है। अप्रैल और मई में बेरोजगारी की दर 23.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। अगस्त 2020 में रोजगार पिछले साल के अगस्त के मुकाबले एक करोड़ सात लाख कम था। सीएमआईई का दावा है कि अप्रैल से अगस्त के बीच 2.1 करोड़ वेतनभोगी लोगों की नौकरियां गईं। सरकार सीएमआईई के आंकड़ों को खारिज कर रही है और कह रही है कि वह एनजीओ के आंकड़ों पर यकीन नहीं करती। इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और एशियन डेवलपमेंट बैंक(एडीबी) का दावा है कि लाकडाउन के पहले तीन माह में 41 लाख युवाओँ की नौकरियां गई हैं। सीएमआईई का दावा है कि भारत में मई से अगस्त के बीच एक तिहाई व्हाइट कालर नौकरियां गई हैं। एक अनुमान के अनुसार यह संख्या 59 लाख के करीब है जिसमें साफ्टवेयर इंजीनियर, टीचर और अकाउंटेंट शामिल हैं।
महामारी और लाकडाउन के कारण बेरोजगारी अमेरिका से लेकर यूरोप और चीन जैसे तीव्र तरक्की करने वाले देश में भी बढ़ी है। अमेरिका में जुलाई में बेरोजगारी की दर 10.2 प्रतिशत थी लेकिन अगस्त में वहां सुधार होने के साथ वह 8.4 पर आ गई है। हालांकि बाजार को 9.8 प्रतिशत की आशंका थी। चीन में फरवरी में बेरोजगारी 6.2 प्रतिशत थी जो अगस्त में घटकर 5.6 प्रतिशत पर आई है। वहां 8 करोड़ लोग नौकरी से बाहर हुए हैं। बेरोजगारी यूरोप में भी बढ़ी है लेकिन अब स्थितियां सुधर रही हैं।
लेकिन किसी एक नेतृत्व और किसी एक कालखंड को दोष देने और किसी एक पार्टी या नेता से उम्मीद बांध लेने की बजाय जरूरत मौजूदा समय में बदलती प्रौद्योगिकी और नौकरियों की घटती संभावना पर विचार करने की है। अगर आने वाले समय में सूचना प्रौद्योगिकी तेजी से लोगों को बेरोजगार करने पर आमादा है और बायोटेक्नालाजी उसमें सहयोग कर रही है तो नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप, शी जिनपिंग, पुतिन और मर्केल जैसे नेता बहुत चाहकर भी कौन सा चमत्कार कर लेंगे।
अमेरिकी लेखक और अर्थशास्त्री जरेमी रिफकिन ने 1996 में ही `द इंड आफ वर्कः द डिक्लाइन आप द ग्लोबल लेबर फोर्स एंड द डान आफ द पोस्ट-मार्केट एरा’ नामक पुस्तक में यह घोषणा कर दी थी कि आने वाला समय जबरदस्त बेरोजगारी का है। ध्यान देने की बात है कि तब उदारीकरण के कारण एक ओर बाजार फैल रहा था और दूसरी ओर लोकतंत्र का विस्तार हो रहा था। नौकरियां बढ़ रही थीं। उनका कहना था कि दुनिया को एक ओर सूचना प्रौद्योगिकी नियंत्रित कर रही है और दूसरी ओर निरंतर विस्थापित होते वे श्रमिक हैं जिनके पास वैश्विक अर्थव्यवस्था की उच्च प्रौद्योगकी में किसी सार्थक रोजगार की जगह नहीं है। उन्होंने कहा था कि इससे विश्व समुदाय स्पष्ट रूप से दो ध्रुवों में विभाजित हो रहा है। जहां आपस में संघर्ष करने वाली तमाम शक्तियां तैयार हो रही हैं। वजह साफ है कि नई सूचना प्रौद्योगिकी ने मनुष्य के श्रम का जो वस्तुगत मूल्य है उसे अप्रासंगिक कर दिया है। उन्होंने यह भी कहा था कि बेरोजगारी बढ़ने की आशंका से व्यापक रूप से असंतोष फैलेगा और इसी के साथ नव फासीवादी शक्तियों का उदय होगा। उन्होंने यूरोप में दक्षिणपंथी दलों के प्रति युवाओं के बढ़ते झुकाव के लिए इन्हीं स्थितियों को जिम्मेदार बताया था। वह स्थिति अब पूरी दुनिया में फैल चुकी है।
रिफकिन यह भी कहते हैं कि आने वाली इक्कीसवीं सदी में काम करने वालों की संख्या तेजी से घटेगी और निठल्लों यानी नल्लों की संख्या बढ़ेगी। इसे यूं भी कह सकते है कि लोगों के पास खाली समय की अधिकता होगी। वजह साफ है कि बहुत सारा काम सूचना प्रौद्योगिकी कर लेगी। अब तीसरी औद्योगिक क्रांति के कारण नई मशीनों को चलाने के लिए मनुष्य की कम से कम जरूरत होगी जबकि पहली दो क्रांतियों में ऐसा नहीं था। खेत से निकलकर लोगों को फैक्ट्री में रोजगार मिल जाता था। अब फैक्ट्री से निकलकर नई जगह पर रोजगार नहीं मिलने वाला है क्योंकि प्रौद्योगिकी बहुत एडवांस हो रही है और आदमी उस गति से न तो सीख पाएगा और न ही उसे रोजगार पर रखना फायदे का सौदा होगा।
इस बात को जुआल नोवा हरारी अपनी पुस्तक ` 21 लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में और स्पष्ट तरीके से रखते हैं। अगर रिफकिन की पुस्तक 1996 में आई थी तो हरारी की यह किताब 2018 की है। यानी इक्कीसवीं सदी के बारे में जो आशंकाएं जताई जा रही थीं वे मूर्त रूप धारण करती जा रही हैं। हरारी साफ कहते हैं कि आने वाले समय में कोई भी ऐसा काम नहीं होगा जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स के स्वचलन(आटोमेशन) से परे हो। कार चलाना, सीमा पर लड़ाई करना, डाक्टरी करना, वकालत करना, शिक्षा देना, संगीत तैयार करना, पुलिस का काम , बैंकिंग वगैरह सब कुछ नई प्रौद्योगिकी के नियंत्रण में आने वाला है। आप यह कह सकते है कि भारत जैसे विकासशील देश में यह काम इतनी तेजी से नहीं होगा। यह सब तो अमेरिका और यूरोप में ज्यादा होगा। लेकिन कोरोना काल में हमने शहरी शिक्षा से लेकर ग्रामीण शिक्षा को जूम पर आते हुए देखा है। इंटरनेट पर डाक्टरों की सलाह लेने का सिलसिला चालू हो ही गया है। मोबाइल बैंकिंग हो ही रही है और अब जो कुछ भी होगा वह भी बहुत तेजी से ही होगा।
आने वाले समय में हर नौकरी असुरक्षित होगी। बदलती प्रौद्योगिकी के कारण एक ओर बेहद कुशल श्रमिकों की दरकार होगी तो दूसरी ओर कुशल श्रमिकों का अकाल होगा। पुरानी प्रौद्योगिकी जानने वाले तेजी से छांटे जाएंगे और नई प्रौद्योगिकी सबके लिए तेजी से सीखना आसान नहीं होगा। आने वाले समय में मनुष्य न तो उत्पादन करेगा और न ही वह हर सामान का उपभोक्ता रह जाएगा। ऐसे में उसके भौतिक अस्तित्व और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती होगी। जितनी चुनौती प्रकृति को बचाने की होगी उससे कम चुनौती मनुष्य को बचाने की नहीं होगी क्योंकि बायोटेक्नालाजी क्या कमाल करेगी यह साफ तौर पर कहा नहीं जा सकता।
यह चिंताएं विज्ञान की फैंटेसी नहीं हैं। आज हमारी आंखों के सामने घटित हो रही हैं। मौजूदा स्थितियां बता रही हैं की अगर बेकारी एक समृद्ध अर्थव्यवस्था में आएगी तो लोगों के पास समय रहेगा और वे अपने समुदाय की सेवा और भलाई पर ध्यान देंगे। बच्चों और बूढ़ों की देखभाल करेंगे और अच्छा साहित्य और संगीत रचेंगे। लेकिन अगर यह स्थिति विपन्नता के वातावरण में आएगी तो सामाजिक उथल पुथल होगी, अमीर दुनिया की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करेंगे और गरीब अपनी जरूरत के लिए लड़ेंगे। ऐसे में सरकारी क्षेत्र और बाजार के बाहर तीसरे क्षेत्र यानी सोशल सेक्टर और सोशल कैपिटल को बढ़ावा देने की जरूरत पड़ेगी। इसमें यूबीआई यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम के साथ यूनिवर्सल बेसिक सर्विस(यूबीएस) की ज्यादा जरूरत पड़ेगी। इन स्थितियों में सरकार एक काम जरूर कर सकती है कि वह तेजी से हो रहे आटोमेशन यानी स्वचलन की गति को धीमा कर सकती है। हालांकि वह पूरी तरह से रोक नहीं सकती। इसके अलावा वह सामाजिक कल्याण पर फोकस बढ़ा सकती है।
आज जरूरत बेरोजगारी के सवाल पर इन मुद्दों को साथ रखकर सोचने की जरूरत है। पर यह तभी संभव है जब हम सिर्फ कुछ व्यक्तियों और सरकारों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय व्यापक नजरिए से सोचें। सरकार को भी चाहिए कि वह आंकड़ों से भागने और भावी दुनिया के स्वरूप को छुपा कर अतीत के मिथकों और इतिहास की बहस में फंसाने की बजाय भविष्य के इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श छेड़े। शायद तब लोग समझेंगे और समाधान भी निकलेगा। क्योंकि इस बात की गारंटी नहीं है कि मानव इतिहास उसी ओर मुड़े जिस ओर कुछ भविष्यवक्ता कह रहे हैं। भविष्य की अनिश्चितता को दुरुस्त करें शायद नौकरी की अनिश्चितता दूर हो या कम से कम मानसिक उलझन तो मिटे।
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