क्या अदालत वह सब देख ही नहीं पा रही है जो सारा देश देख रहा है : संवैधानिक संस्थाओं को निकम्मा बनाना, कानूनों पर बुलडोजर चलाना, संसद को जी-हुजूरों की भीड़ में बदलना, मीडिया को खरीद कर कायर बना देना, स्वतंत्र अभिव्यक्ति की हर संभावना को कुचलना ? हमारे जांबाज कमांडर सारकारी नीतियों का बचाव करने टीवी पर दिहाड़ी मजदूरों की तरह लाए जा रहे हैं. अब कौन अग्निवीर युवा मानेगा कि फौजी ‘बहादुर’ होते हैं ? सेना व सेना के अधिकारियों का ऐसा खतरनाक राजनीतिक इस्तेमाल क्या संविधान पर ही ग्रहण नहीं लगा सकता है ?
सर्वोच्च न्यायालय बहुत गुस्से में है. नुपूर शर्मा का नाम सुनते ही जस्टिस सूर्यकांत-पारडीवाला बेंच जिस तरह भड़का, उसका सामना तो हिंदुत्व वाली कोई नूपुर शर्मा ही कर सकती थीं. लेकिन इस गुस्से का एक परिणाम यह भी आया कि गूंगे बोलने लगे ! 15 अवकाशप्राप्त जजों, 77 सेवानिवृत नौकरशाहों तथा 25 पेंशनभोगी फौजियों ने चीफ जस्टिस के नाम एक खुला पत्र लिखा कि नूपुर शर्मा मामले में जज ने फैसले के बाहर जो टिप्पणी की, वह हमारे संविधान की आत्मा तथा भावना की बलि चढ़ाने जैसा है. मैं हैरान हूं. न्यायपालिका से लेकर सारी संवैधानिक परंपराओं व संस्थानों को वीर्यहीन करने के प्रतिवाद में जिनका मुंह नहीं खुला, वे अब मिमियाने लगे हैं. कायरता की बहादुरी ऐसी ही होती है. इसलिए ऐसी कायर बहादुरों की बात नहीं करता हूं. लेकिन मैं अदालत को बुजुर्गों की वह सीख याद दिलाना चाहता हूं कि गुस्सा गलती करने का दूसरा नाम है. व्यक्ति पर गुस्सा छूंछा होता है, परिस्थिति पर गुस्सा परिणामकारी होता है. अदालत को यह फर्क करना भी चाहिए और करता हुआ दिखाई भी देना चाहिए.
यह सब मन में घुमड़ रहा ही था कि हमारे चीफ जस्टिस रमना साहब का अमरीका में दिया व्याख्यान पढ़ा कि भारत में हमारी परेशानी यह है कि हमारे सभी पक्ष चाहते हैं कि अदालत उनका पक्ष ले लेकिन मैं साफ कह देना चाहता हूं कि हमारा एक ही पक्ष है और वह है संविधान. हम उसी के पक्ष में खड़े रहते हैं. मुझे लगता है कि हमें अदालत के पक्ष के बारे में कुछ बात कर ही लेनी चाहिए.
नूपुर शर्मा का पूरा मामला भारतीय राजनीति के उस क्षद्म को उजागर करता है जिसकी खिचड़ी काफी समय से पकाई जा रही थी लेकिन जो तैयार अब हुई है. क्या है वह क्षद्म ? मुहावरे में कहूं तो दूसरों के कंधे पर रख कर बंदूक चलाना. संघ-परिवार का शीर्ष नेतृत्व, सरकार हो कि संगठन या कोई दूसरा साइनबोर्ड टांगे हो, येनकेणप्रकारेण काम एक ही करना चाहता है: उन सबकी ज़ुबान बंद करो जो आपसे असहमत हैं. शीर्ष यह काम बहुत बारीकी से करता है, भोंडे तरीके से दूसरों से करवाता है ताकि अपनी कमीज उजली रहे, समाज का मुंह काला हो.
जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक मंच से कपड़ों से आदमी पहचानने की बात कहते हैं, श्मशान-कब्रिस्तान की तुकबंदी खड़ी करते हैं, ममता बनर्जी को घटिया शैली में आवाज देते हैं, तथ्यहीन बातों को दहाड़ कर सच बनाते हैं, जब उनकी पार्टी के अध्यक्ष कहते हैं कि हम देश जोड़ रहे हैं, विपक्ष देश का विनाश कर रहा है तब दरअसल वे सब अपनी पैदल सेना को इशारा कर रहे होते हैं कि किसी भी हद तक जा कर दूसरी आवाजों को कुचल दो ! कोई अनुराग ठाकुर या कपिल मिश्रा या प्रवेश वर्मा या आदित्यनाथ या हेमंत विश्वा शर्मा या इसी स्तर का कोई भी राजनीतिक प्यादा इशारा पकड़ लेता है और शीर्ष का काम पूरा हो जाता है. दूसरी तरफ हैं भूपिंदर तोमर, पिंकी चौधरी, बजरंग दास, नरसिंहानंद, वसीम रिजवी जैसे लोग हैं जो समाज में पहले भी थे, हैं भी और रहेंगे भी. ये उस वर्ग के लोग हैं जिनका सांस्कृतिक विकास रुद्ध हो गया है जिसका परिणाम इनके दिमागी संतुलन पर पड़ता है. इन्हें स्वस्थ, संतुलित सामाजिक अस्पताल में रखने की जरूरत है. जब सारा समाज असंतुलित बना दिया जाता है, तब ऐसे तत्वों की जुबान खुलती है और आग उगलती है. जैसे पागलों को आप सड़क पर खुला नहीं छोड़ते हैं वैसे ही ऐसे तत्वों को भी सामाजिक विमर्श के मंच पर जगह नहीं मिलनी चाहिए.
नुपूर शर्मा ने जो कहा वह मुहम्मद साहब को बुरे इरादे से, बुरा कहने जैसी बात नहीं थी, मुसलमानों को उनकी औकात बताने की सरकारी नीति का हिस्सा थी. सारे चैनल, सारे अखबार इसी सरकारी नीति को आगे बढ़ाने में लगे हैं. मालिकों ने यही काम उन्हें दे रखा है. ‘जिसका खाते हैं उसका गाते हैं’ जैसी दासवृत्ति है. हम गलती से इन्हें पत्रकार माने बैठे हैं. इनकी अपनी कोई प्रतिबद्धता नहीं है. कुर्सी व थैली के इशारे पर हर असहमति को, हर तरह से अपमानित करना इनका पेशा है. अदालत नुपूर शर्मा को डांट सकती है, तो इन्हें क्यों नहीं ? सूर्यकांत-पारडीवाला बेंच ने ठीक ही मीडिया का कॉलर पकड़ा था और पूछा था कि मुकदमा तो चैनलों व एंकरों पर चलना चाहिए. लेकिन श्रीमान, आपने यह सवाल पूछा किससे ? देश तो आपसे पूछता है कि सत्ता या उसके प्यादे घृणा फैलाने का जो काम कर रहे हैं, क्या यह अदालत को दिखाई नहीं दे रहा है ?
दिखाई दिया था दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस एस. मुरलीधरन को. नागरिकता आंदोलन के वक्त जब इसी तरह घृणा को राजनीतिक हथियार बनाने का इशारा दिया गया था तब उन्होंने अदालत की संवैधानिक भूमिका को उजागर ही नहीं किया था, पुलिस को कठघरे में भी खड़ा किया था. लेकिन इसके अगले ही दिन उनकी अदालत बदल दी गई. क्या जज बदल जाने से अदालत की संवैधानिक निष्ठा भी बदल जाती है ? रमना साहब, यदि हमारा संविधान ही न्यायपालिका की एकमात्र गीता है तो उसके इतने अलग-अलग पाठ कैसे पढ़े व पढ़ाए जाते हैं ? एक लिखित निर्देशिका आपके पास भी है, हमारे पास भी है. आप उसके हिसाब से चलते हैं, हम उसके हिसाब से देखते हैं. हम देख रहे हैं कि आप उसके हिसाब से नहीं चल रहे हैं. हम गलत भी हो सकते हैं तो हमें विश्वास में लेना अदालत का संवैधानिक दायित्व है.
क्या अदालत वह सब देख ही नहीं पा रही है जो सारा देश देख रहा है : संवैधानिक संस्थाओं को निकम्मा बनाना, कानूनों पर बुलडोजर चलाना, संसद को जी-हुजूरों की भीड़ में बदलना, मीडिया को खरीद कर कायर बना देना, स्वतंत्र अभिव्यक्ति की हर संभावना को कुचलना ? हमारे जांबाज कमांडर सारकारी नीतियों का बचाव करने टीवी पर दिहाड़ी मजदूरों की तरह लाए जा रहे हैं. अब कौन अग्निवीर युवा मानेगा कि फौजी ‘बहादुर’ होते हैं ? सेना व सेना के अधिकारियों का ऐसा खतरनाक राजनीतिक इस्तेमाल क्या संविधान पर ही ग्रहण नहीं लगा सकता है ? फौजी जनरल कहेंगे कि अग्निवीर योजना फौज ने बनाई है? कहेंगे तो यह पूछना लाजिमी होगा कि नीतियां बनाने का काम संविधान की किस धारा के अंतर्गत फौज के हवाले किया गया ?
रमना साहब ने कहा कि संविधान को छोड़ कर अदालत का कोई पक्ष नहीं है. ऐसे बयान पर अमरीका में भी तथा भारत में भी तालियां बजेंगी लेकिन तालियों की गड़गड़ाहट में यह बात दबा तो नहीं दी जानी चाहिए कि संविधान की भी अपनी स्पष्ट पक्षधरता है. वह न्याय-अन्याय के बीच, सच-झूठ के बीच, संवैधानिकता-असंवैधानिकता के बीच तटस्थ नहीं है. संविधान के शब्द और उसकी आत्मा साफ-साफ कहती है कि वह भारत के उन्हीं लोगों का पक्ष लेती है जिन्होंने उसे बनाया है – “ हम भारत के लोग, अपने लिए यह संविधान बना कर, इसे अपने ऊपर लागू करते हैं…” रमना साहब क्या हमें बताएंगे कि हमारी अदालत – सर्वोच्च अदालत- कब भारत के लोगों के साथ खड़ी रही है ? मैं उन्हें और अपनी संपूर्ण न्याय-व्यवस्था को आपातकाल के शर्मनाक दौर की याद नहीं दिला रहा हूं लेकिन यह जरूर पूछ रहा हूं कि हमारा एक चीफ जस्टिस अपनी बनाई बेंच के साथ बैठ कर बाबरी मस्जिद के बारे में एक ऐसा फैसला सुनाता है जिसका न तो कोई ऐतिहासिक संदर्भ है, न जिसकी कोई लोकतांत्रिक परंपरा है. फिर हम देखते हैं कि जिस चीफ जस्टिस ने वह फैसला सुनाया, अगले दिन वही सरकार की अनुकंपा से राज्यसभा का सदस्य बन गया. यह होता है तो हम समझ पाते हैं कि किसका कौन-सा पक्ष है. क्या उनका यह आचरण संविधान की आत्मा के अनुकूल था ? था तो कहें, नहीं था तो कहें, तब पक्षधरता हमारी समझ में आएगी.
जाकिया जाफरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट के उनकी याचिका अंतिम तौर पर खारिज कर दी. हम उसे समझ सकते हैं. अदालतें जैसे साक्ष्यों की, जैसी मांग करती हैं शायद वैसे साक्ष्य व दस्तावेज जाफरी पेश नहीं कर पाई होंगी. लेकिन क्या न्यायपालिका यह नहीं समझती है कि कई बार – या अक्सर ? – सच उसके सामने पेश गवाहों-प्रमाणों-दस्तावेजों से अलग खड़ा पाया जाता है ?
जाकिया जाफरी के मामले में क्या अदालत को यह याद नहीं आया कि वह एक ऐसे मामले के बारे में फैसला सुना रही है जिसने गुजरात में संविधान, प्रशासन की सामान्य प्रक्रिया तथा सभ्य समाज की तमाम पहचानों की धज्जियां उड़ा दी थीं ? क्या वह भूल गई कि यह वह मामला है जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय को निर्देश देना पड़ा था कि गुजरात के मामलों की सुनवाई गुजरात के बाहर की जाए? यह वह मामला है जिसने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ें हिला दी थीं और तत्कालीन प्रधानमंत्री को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ा था कि ‘यहां का राजा’ राजधर्म के पालन में विफल हुआ है ? जब ऐसे मामलों में आप फैसला सुनाते हैं तब आपकी ही नहीं, आपके साथ-साथ हमारे न्याय-संस्थान के धर्म की कसौटी भी होती है. जाने कब कोई अटलबिहारी वाजपेयी आएगा यह कहने कि मी लार्ड, आप न्याय-धर्म का पालन करने में विफल हुए हैं !
जाकिया जाफरी की याचिका खारिज करने का पूरा अधिकार हमने – संविधान ने – आपको दिया है लेकिन उसके बाहर जा कर, उस बेंच ने जैसी टिप्पणियां कीं, उनका औचित्य क्या है ? आप उन्हें झूठी, षड्यंत्रकारी, मामले को जिंदा बनाए रखने का चाल खेलने वाली बताएं और उनकी मदद करने वाले हर इंसान को कठघरे में खड़ा करें ? फिर सरकारी इशारे पर कुछ भी कर गुजरने से गुरेज न रखने वाली पुलिस तिस्ता सेतलवाड तथा आर. बी. श्रीकुमार को गिरफ्तार कर ले? रमना साहब, क्या आपकी न्यायपालिका पूरे सरकारी-तंत्र के सामने खड़े एक अकेले नागरिक की स्थिति भी नहीं समझती है ? आप याचिका खारिज कर सकते हैं, नागरिक की हैसियत खारिज करने का अधिकार आपको संविधान की किस धारा से मिला है ? यही वह गुस्सा है जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया. यही वह गुस्सा है जिसका प्रतिवाद वजाहत हबीबुल्लाह, सुनील मिश्रा, जी.के.पिल्लई,सुजाता सिंह जैसे प्रशासकीय व पुलिस के वरिष्ठ व विशिष्ठ अधिकारियों ने भी किया है. इनसे हमारे मतभेद हो सकते हैं लेकिन न्याय की इनकी समझ व राष्ट्रप्रेम पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता है. क्या इनकी गिरफ्तारी भी इसलिए की जाए कि जाकिया जाफरी की न्याय की तलाश का ये समर्थन करते हैं ? नहीं, न्यायपालिका के स्वास्थ्य व न्याय के भविष्य के लिए यह गुस्सा बहुत महंगा पड़ सकता है. संविधान गुस्से की नहीं, गरिमा की मांग करता है.
आज हमारा न्यायतंत्र गहरे दवाब में है क्योंकि दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाएं घुटने टेक रही हैं. इसलिए हम अदालतों से सीधा खड़े रहने की अपेक्षा भी करते हैं व आग्रह भी. हम भारत के आम नागरिक संविधान के निर्माता भी हैं तथा सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के सर्जक व संरक्षक भी.
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