क्या हमारा संविधान रचने वालों ने कभी मौजूदा हालातों की कोई कल्पना की थी? क्या वे देख पा रहे थे कि देश सात-साढ़े सात दशकों में कहां-से-कहां पहुंच जाएगा? डॉ. आंबेडकर को शायद इसका भान था और इसीलिए वे बार-बार हमें सचेत करते थे। आज के हालातों में आंबेडकर और संविधान की अहमियत पर प्रो. कन्हैया त्रिपाठी का यह लेख।
भारत का सभ्यतागत विमर्श बदल रहा है। ऐसे में भारत के लोगों को संविधान और डॉ. आंबेडकर को याद करना लाजमी है। उनके द्वारा वंचितों, शोषितों और पिछड़ों के लिए किये गए कार्य जगह-जगह उद्धृत किए जाते हैं। डॉ. आंबेडकर को यह विश्वास था कि इन वर्गों के अधिकारों का संरक्षण भारतीय संविधान के दायरे में रहकर किया जा सकेगा, किन्तु उन्होंने ‘हिन्दू कोड बिल’ के साथ जो तमाशा भारत में देखा तभी उनका मन खिन्न हो गया था। उन्होंने साफ-साफ कह दिया था कि संसद में ‘हिन्दू कोड बिल’ पर बात न होकर दूसरे मुद्दों पर बहस हो रही है। भारत के लिए जो जरूरी है उसे नजरंदाज़ किया जा रहा है। एक दिन आया कि उन्होंने अपना त्यागपत्र भी दे दिया और उन्हें अपने ही बनाये संविधान से चिढ होने लगी। उन्हें लगा कि आने वाले समय में हिंदुस्तान के लोग संविधान का भी सम्मान करेंगे या नहीं?
डॉ.आंबेडकर की वह आशंका आज़ादी के 75 वर्ष बाद सत्य साबित हो रही है। उन्होंने संविधान की प्रासंगिकता पर एक बार सवाल किया। हो सकता है वह अनमने ढंग से और गुस्से में ही हो, लेकिन जिस प्रकार वंचित, दलित, शोषित और पीड़ित लोगों की संख्या 75 वर्ष बाद भी कम नहीं हुई, उससे एक बार कोई भी सोचने को मजबूर हो जाता है। बाबासाहेब तो संविधान के कर्ताधर्ता लोगों में शामिल थे। निःसंदेह हाल की कुछ घटनाओं ने आज सबको कुछ ज्यादा सोचने को मजबूर कर दिया है।
मध्यप्रदेश के सीधी जिले में एक सवर्ण व्यक्ति के दुष्कृत्य ने भारत की संवैधानिक गरिमा को चुनौती दी है। एक आदिवासी के सिर पर अपवर्ज्य पदार्थों का विसर्जन करना कितनी घृणित बात है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भारत के संविधान में प्रदत्त गरिमा और अधिकार को या तो जानता नहीं है या वह जानबूझकर ऐसा कर रहा है, लेकिन उस घटना के बाद जो घटनाएँ घटीं वह बहुत ही शर्मनाक कही जाएँगी। राजधर्म निभाने के लिए जो प्रतिष्ठित किए गए हैं वे, जो राज-व्यवस्था के संचालक हैं वे, सबके सब राजनीति करके अपने-अपने तरीके से भारतीय संस्कारों, सभ्यता एवं संस्कृति का मजाक उड़ा रहे हैं, इससे दुखद बात और क्या हो सकती है?
ऐसा लगता है कि भारतीयता का सबसे हास्यास्पदकाल चल रहा है। कोई अपवर्ज्य का विसर्जन कर रहा है तो कोई उसकी भरपाई में बुलडोजर से घर तोड़ रहा है और चरण पखार रहा है। आज के समय में बाबासाहेब होते तो यह सब देखकर अपना सिर पीट लेते और बहुत दुखी होते। उनकी कड़ी मेहनत से तैयार किया संविधान और उसमें प्रतिष्ठित मूल्यों का इतना अपमान देख वह निश्चय ही अपने भारत पर हँसते, गर्व तो नहीं करते।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये घटनाएं किसी एक क्षेत्र या राज्य में ही देखी या महसूस नहीं की जा रहीं, देश के अन्य कोनों से भी इसी प्रकार की घटनाएँ आ रही हैं। ऐसा लगता है कि यह समस्या अब देशव्यापी समस्या बन गई है। कोई किसी का भी अपमान कर सकता है। कोई किसी से अपमानित हो सकता है। यह एक चलन जो अपने चरम पर पहुँच चुका है वह भारत के लिए अपमानजनक भविष्य का सूचक है। इससे माहौल ख़राब हो रहा है और भारत बदनाम हो रहा है।
हिंदुस्तान में भले ही संविधान का राज हो जाये पर मूर्खता और बेशर्मी की जड़ें भी उतनी ही गहरी हैं। एक बार भारत के लोकसभा अध्यक्ष रहे एमए अयंगर ने कहा था कि आंबेडकर हमारे संविधान के नियामक थे। सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उन्होंने अनेक हितकारी उपायों का सूत्रपात किया। यह बात सही है, लेकिन बाबासाहेब हमेशा जिन्दा तो नहीं रहेंगे कि वे इस प्रकार की किसी भी सभ्यता के प्रतिरोध करते रहें। वे अपने समय के साथ जितना किए उसके पीछे उनका मत था कि भारत के लोग आने वाले समय में बराबरी और समान गरिमा के साथ रहेंगे, किन्तु भारत नहीं सुधरा।
भारत में बदलाव आए, लेकिन मानसिक स्तर पर सबको मेलजोल और प्रतिष्ठा देने की बात उस मात्रा में नहीं फैली जितनी फैलना चाहिए थी। आज के हालात बताते हैं कि शोषण के तरीके बदल गए हैं। संविधान है, पर संविधान में जिस गरिमा, स्वतंत्रता और उदारता की बात थी, वह लोगों के दिलों का हिस्सा नहीं बन सकी। फलतः आज यह देखने को मिल रहा है कि भारत के दलित, दमित, शोषित सशक्त लोगों के अपमान के शिकार हो रहे हैं। सबसे अहम् बात है कि इसमें सबसे ज्यादा स्वयं को कुशाग्र बताने वाले समाज के लोग ऐसा कर रहे हैं। वे आदिवासियों, सामजिक रूप से पिछड़े और अनुसूचित जातियों के साथ बहुत ही निर्ममता और क्रूरता से पेश आ रहे हैं।
लगता है, भारत अपने स्वभाव से भटक रहा है। भारत सभ्यतागत विमर्श में सांस्कृतिक रूप से दरिद्रता की ओर बढ़ रहा है। भारत में बसे लोग भारत के अपने ही लोगों के साथ ठीक तरह से पेश नहीं आ रहे। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का स्वप्न था कि भारत दुनिया के लिए मिसाल रूप में स्थापित हो। शायद इसीलिए उन्होंने जातियों के दंश को प्रश्नांकित किया था। शायद इसीलिए उन्होंने भारत में चली आ रही रूढ़ियों के खिलाफ मोर्चा खोला था। शायद इसीलिए वे बराबरी के सवाल पर हमेशा लड़ते रहे, लेकिन विडंबना यह है कि आज भी भारत की सोच में ज्यादा फ़र्क नहीं आया है।
आज पुनः एक बार हमें बाबासाहेब के प्रतिरोध और उनके विचारों की ज़रूरत महसूस हो रही है जो उन वर्गों की जिंदगी में प्रतिष्ठा ला सकें। उन व्यवस्थाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रतिरोध दर्ज कर सकें जो भारत की अपनी गरिमा को बचने नहीं देना चाहतीं। स्त्रियाँ, आदिवासी, अनुसूचित जाति के लोग हों या कोई भी भारत की सीमा में रह रहा व्यक्ति, वह जन्म से इंसान है तो उसका हक समान है और उसे शान से जीने का हक है। फिर कोई कैसे उन्हें अपने कुकृत्यों का शिकार बना दे रहा है, यह सवाल है। एक ही देश में धनाढ्यों के लिए अलग कानून होगा और गरीबों के लिए अलग, यह बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने किसी भी संविधान में प्रावधान नहीं किया था, फिर यह सब क्यों हो रहा है। कायदे से सरकार का दायित्व है कि वे ऐसे प्रकरण को अनदेखी न करे और सशक्त कानून के साथ सबकी गरिमा को सुनिश्चित करे। आज़ सभ्यतागत विमर्श में पुनः डॉ. आंबेडकर के विचार प्रासंगिक होने लगे हैं। यदि बाबासाहेब के मूलभावनाओं का सच में सम्मान करना है तो उनके विचारों की ओर लौटना आवश्यक है। (सप्रेस)
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