6 अगस्त 2020 ‘हिरोशिमा दिवस’  : तबाही के 75 साल

नारायण देसाई

युद्ध, और वह भी परमाणु युद्ध की मार्फत अपने तमाम अडौसी-पडौसियों को सीधा कर देने के लिए बावले होते आज के कथित ‘देशभक्‍तों’ को 75 साल पहले जापान के हिरोशिमा (6अगस्‍त) और नागासाकी (8अगस्‍त) शहरों पर अमरीका द्वारा गिराए गए अणु-बमों को हमेशा याद रखना चाहिए। अब, जब अणु का ‘विकास’ होकर ऐसे परमाणु बम बनने लगे हैं जो जापान को नेस्‍त-नाबूद करने वाले बमों से सैकडों-हजारों गुना अधिक मारक शक्ति रखते हैं, हर हाल में परमाणु अस्‍त्रों के प्रयोग से बचना ही चाहिए। इसी विषय की पडताल करता 1988 में लिखा स्‍व.नारायण देसाई का ‘सप्रेस’ में प्रकाशित यह आलेख।

परमाणु अस्त्र आम अर्थों में अस्त्र हैं ही नहीं। वे तो पूरी मानव जाति के संहार के साधन हैं। मामूली बम से अगर एक साथ सैकड़ों लोग मर सकते हैं, तो परमाणु बम से लाखों या करोड़ों तक मर सकते हैं। हिरोशिमा में जब पहला अणुबम गिरा तब उससे एक लाख चालीस हजार लोग तत्काल मरे थे। हिरोशिमा की जनसंख्या तब चार लाख थी। उस शहर की एक तिहाई से अधिक जनता तो तत्काल मरी थी, लेकिन जो बचे थे, उनके हाल मरने वालों से भी बदतर थे। रेडियोधर्मिता के कारण होने वाले नाना प्रकार के रोगों से वे पीड़ित हुए और आज बम गिरने के वर्षों बाद भी वहां लोग उसी कारण मर रहे हैं। जो उस समय जन्मे भी नहीं थे, वे भी रेडियोधर्मिता जनित रोगों से पीड़ित हुए। साल 1998 तक हिरोशिमा में परमाणु बम के प्रत्यक्ष या परोक्ष कारण से दो लाख, दो हजार एक सौ ग्यारह लोग मर चुके थे। शहर के 76,000 मकानों में से 70,000 बम के फूटने से ही नष्ट हुए थे। उससे लगी आग का असर मीलों दूर तक हुआ था। उस आग से जगह-जगह अग्नि-आंधियां हुईं। उसमें से बचने के लिए भागती हुई महिलाओं के हाथों से नन्हें बालक आग की लपटों में खिंचा गए थे।

आज जो परमाणु शस्त्र बने हैं, उनके आगे हिरोशिमा और नागासाकी पर डाले गए ये बम खिलौने-से मालूम होते हैं। आजकल के बम उनसे सैंकड़ों गुना और कुछ तो हजारों गुना विध्वंसक हैं। परमाणु युद्ध आत्मघाती होते हैं। उन युद्धों में दोनों पक्षों की क्षति होती है। जीत किसी की नहीं, हार दोनों पक्षों की होती है। कराची पर अगर हाइड्रोजन बम डाला जाए तो उससे सौराष्ट्र, गुजरात और मुंबई तक विनाश हो सकता है। दिल्ली पर बम डाला जाए तो लाहौर, रावलपिंडी और इस्लामाबाद तक बरबाद हो सकते हैं। परमाणु शस्त्र आत्मरक्षण के नहीं, केवल विनाश के शस्त्र हैं।

August 6, 1945, Hiroshima became the first city in the world to be struck by an atomic bomb.

परमाणु शस्त्रों के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि उससे भयभीत होकर प्रतिपक्षी हम पर वार नहीं करता। वह आतंक द्वारा आक्रमण रोकने वाला ‘डिटरंट’ (अडंगा) है। मगर ‘डिटरंट’ की रणनीति भी समझदारी वाली रणनीति नहीं है। ‘डिटरंट’ से दोनों पक्ष लगातार भय में रहते हैं और सामने वाले से पहले खुद आक्रमण करने को तत्पर रहते हैं। ‘डिटरंट’ में लगातार प्रतिपक्षी से आगे रहना पड़ता है, इसलिए दोनों पक्ष एक- दूसरे से अधिक गति वाले या ज्यादा बरबादी करने वाले शस्त्र बनाते रहते हैं। उत्तरोत्तर अधिक विनाशकारी शस्त्रों से सज्जित रहने की यह होड़ निरंतर जारी रहती है। इससे अगर प्रत्यक्ष युद्ध न हो, तो भी शस्त्र भंडार के खर्च से देश दब जाता है। सोवियत संघ जैसा शक्तिशाली देश भी अणु-शस्त्रों की होड़ के खर्च के आर्थिक बोझ के कारण टूट गया था। इस होड़ में दुश्मन अगर पहले हमला करे तो उससे बचकर दूसरा वार करने के लिए पनडुब्बियों वगैरह की व्यवस्था रखनी पड़ती है, ताकि जवाब में दूसरा वार, ‘सेकंड स्ट्राइक’ की जा सके। इस सारी तैयारी में भी भयंकर खर्च करना पड़ता है। अमरीका अपनी ऐसी ही तैयारियों में लाखों करोड़ डॉलर खर्च कर चुका है।

अगर भारत-पाकिस्तान की होड़ में पाकिस्तान टूट गया, तो उसका क्या परिणाम होगा, इसका भी विचार कर लेना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि पाकिस्तान की सरकार के टूटने से वहां आपकी सरकार हो जाएगी। ज्यादा संभव तो यह है कि वहां विविधत चुनी हुई सरकार की जगह युद्धखोर हाकिम या निरे लुटेरे ले लें। क्या ऐसे लोगों का शासन पड़ोस में हो तो उसका दुष्परिणाम सीमा के इस पार नहीं होगा? शस्त्र दौड़ में दुर्घटना की संभावना बहुत बढ़ जाती है। अगर हमारे पास ऐसे अणु-शस्त्र न हों जो केवल हमारी इच्छा होने पर फेंके जाएं तो ऐसी व्यवस्था के बिना बगैर ताला-व्यवस्था के शस्त्रों में दुर्घटना की संभावना और भी बढ़ जाती है। अमरीका और सोवियत संघ के पास ऐसे स्वनियंत्रित बम थे, लेकिन शाउन ग्रेगरी के अनुसार वहां सैकडों ऐसी दुर्घटनाएं हुई थीं, जिनका परमाणु हथियारों से संबंध था। यह तो मानवता का भाग्य ही था कि जिसकी वजह से उन दुर्घटनाओं के परिणामस्‍वरूप परमाणु युद्ध नहीं छिड़ा और मानवता महासंहार से बच गयी।

परमाणु सत्ता बनने के लिए केवल परमाणु बम पास में होना काफी नहीं है। इसके लिए परमाणु शस्त्रों से पैदा  होने वाले खतरे को ध्यान में रख कर खास तरह की व्यापक एवं जटिल व्यवस्था करनी पड़ती है। दुश्मन की गतिविधियों को समय से जान लेने के लिए निगरानी की व्यवस्था, उपग्रह उड़ानें, रेडार व्यवस्था, त्वरित आगाडी की व्यवस्था, अर्ली वार्निंग सिस्टम, इत्यादि कई निहायत खर्चीली व्यवस्थाएं भी रखनी पड़ती हैं। ‘डिटरंट’ की आज की व्यवस्था कल पुरानी पड़ जाती है। इसलिए उसे निरंतर बढाते रहना पड़ता है। उसका खर्च भी उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है।

भारत और पाकिस्तान की सीमाएं रूस और अमरीका की सीमाओं की तरह दूर-दूर नहीं हैं। इसलिए सामने वाले के प्रक्षेपास्त्र मिसाइल छूटने के बाद इधर वाले को निर्णय करने के लिए जो समय मिल सकता है, वह भी भारत या पाकिस्तान को नहीं मिल सकता। दोनों देशों के नेतृत्व में भी कुछ ऐसे तत्व हैं जो प्रजा के विनाश का विचार करने की अपेक्षा पहला वार करने की फिक्र में किसी भी समय युद्ध छेड़ सकते हैं।

एक गलत प्रचार यह किया जाता है कि परमाणु अस्त्र पास होने से पारंपरिक शस्त्रों का खर्च कम होगा। किसी भी परमाणु सत्ता का यह अनुभव नहीं है। वहां परमाणु शस्त्रों के साथ अन्‍य सामरिक सामग्री का खर्च घटा नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध में 1945 के अणुबम गिराने के बाद दुनिया भर में जो सैकड़ों युद्ध हुए हैं उनमें पारंपरिक शस्त्र ही इस्तेमाल किए गए हैं। जहां-जहां भी परमाणु सत्ताओं के सामने पारंपरिक शस्त्र वाले देश खड़े  हुए हैं वहां अक्सर जीत उन्हीं की हुई है, परमाणु सत्ताओं की नहीं। उदाहरण के लिए अमरीका-वियतनाम, रूस-अफगानिस्तान, चीन-वियतनाम, इंग्लैण्ड-ईजिप्‍ट आदि के बीच के युद्ध। इस प्रकार अनेक कारणों से परमाणु शस्त्रों से लाखों करोड़ों को मौत से बचाना हो तो उसका एक ही उपाय है, परमाणु दौड़ को तुरंत बंद करना चाहिए। (सप्रेस) http://www.spsmedia.in

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नारायण देसाई
नारायण देसाई  एक प्रख्यात गाँधीवादी थे। वे गाँधीजी के निजी सचिव और उनके जीवनीकार महादेव देसाई के पुत्र थे। वे भूदान आंदोलन और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़े रहे और उन्हें "गाँधी कथा" के लिये जाना जाता है जो उन्होंने 2004 में शुरू की थी। साबरमती आश्रम में उनका बाल्यकाल बीता और आरंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी तथा अपने पिता के निर्देशन में ही बाद की शिक्षा ग्रहण की।आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़कर इन्होंने गुजरात में काफ़ी भूदान यात्राएं कीं। भूदान आंदोलन के मुखपत्र "भूमिपुत्र" की शुरूआत की और वे 1959 तक इसके संपादक रहे। उन्होंने आपना जीवन महात्मा के बताये मार्ग पर व्यतीत किया और इन्ही आदर्शों का प्रसार करने में लगे रहे। उन्होंने 'तरुण शांति सेना' का नेतृत्व किया, वेडची में अणु शक्ति रहित विश्व के लिये एक विद्यालय की स्थापना की तथा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, गांधी विचार परिषद और गांधी स्मृति संस्थान से जुड़े रहे थे।

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