न्यायाधीश को सिर्फ निष्पक्ष और स्वतंत्र होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। इसी के बाद वह शब्द हमें ज्यादा सुनाई देने लगा, जिसे अंग्रेजी में Recuse कहते हैं। जब न्यायाधीश या कमेटी का कोई सदस्य अपने स्वविवेक से किसी मुकदमे से खुद को इसलिए अलग कर लेता है ताकि हितों के टकराव या पूर्वग्रह की छाया न्याय की प्रक्रिया पर न पड़े। किसी मामले में न्यायाधीशों की पीठ बनाते समय या कोई कमेटी बनाते समय भी इस बात का ख्याल रखे जाने की अपेक्षा की गई।
न्याय और निष्पक्षता वैसे तो दो शब्द हैं। मगर न्याय शब्द का कोई मूल्य नहीं, अगर वह निष्पक्ष न हो। न्याय की निष्पक्षता ही न्यायाधीश को ताकत देती है कि वह फैसला करते हुए पीड़ित का पक्ष ले सके। अगर प्रक्रिया में निष्पक्षता और वस्तुगतता नहीं है तो न्याय पक्षपात हो जाता है। पक्षपाती न्याय जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती।
न्याय का निष्पक्ष होना यानी न्यायाधीश का निष्पक्ष होना। यानी कमेटियों का निष्पक्ष होना।
शायद कोई भी ऐसा खेल खेलना या देखना नहीं चाहेगा, जिसके रेफरी के बारे में पहले से पता हो कि वह किसी एक तरफ झुका हुआ है, या किसी लालच या धमकी के असर में है।
मगर क्या मान कर चला जा सकता है कि प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की तरह पंच की गद्दी पर आते ही अपने आप कोई निष्पक्ष हो जाएगा। नए जमाने में पूँजी और राज्य की विराट मौजूदगी के साथ यह महसूस किया जाने लगा था कि पंच की गद्दी की महिमा के भरोसे नहीं रहा जा सकता। निश्चित ही न्याय व्याख्या पर आधारित है, मगर उसके आधार और कसौटियां ऐसे होने चाहिए, जिन्हें वस्तुगत रूप से परखा जा सके।
करीब सौ साल पहले इंग्लैंड में दिए गए एक फैसले ने यह महत्त्वपूर्ण सिद्धांत दिया था कि निष्पक्षता होनी ही नहीं चाहिए बल्कि दिखनी भी चाहिए। यह दिखना चाहिए कि वह किसी पूर्वग्रह से ग्रसित नहीं है, किसी पक्ष के प्रति झुका हुआ नहीं है। हितों के किसी टकराव में शामिल नहीं हैं। यह बड़ी अजीब सी बात लग सकती है कि न्याय होना ही काफी नहीं है, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए! करीब सौ साल पहले ब्रिटेन में एक मुकदमे में जस्टिस हेवर्ट ने वह वाक्य बोला था, जो उसके बाद साल दर साल आधुनिक विधिशास्त्र के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रासंगिक होता चला गया। (Rex v. Sussex Justice, ex parte McCarthy ([1924] 1 KB 256, [1923] All ER Rep 233)
इस फैसले का किस्सा भी बड़ा रोचक है। मैक्कार्थी और विटवर्थ की मोटरसाइकलें आपस में टकरा गईं थी। विटवर्थ की मोटरसाइकल के साथ एक साइड कार भी जुड़ी हुई थी, जिसमें उसकी पत्नी बैठी थी। दोनों को काफी चोटें आईं। मैक्कार्थी पर खतरनाक ढंग से वाहन चलाने का मामला दर्ज हुआ। ससेक्स की एक अदालत में मुकदमा चला। वहाँ सुनवाई पूरी होने के बाद न्यायाधीश फैसले पर विचार करने अपने कक्ष में चले गए। जैसा कि आम तौर पर होता है, न्यायाधीश की मदद के लिए अदालत का बाबू भी उनके साथ वहां चला गया। अपने कक्ष से बाहर आकर न्यायाधीश ने फैसला लिखवाया और मैक्कार्थी को दोषी पाते हुए दस पौंड का जुर्माना भरने का दंड सुनाया, जो उस समय के लिहाज से ज्यादा नहीं था।
मगर मैक्कार्थी को जब बाद में यह पता चला कि अदालत का वह बाबू वकीलों की उस कंपनी का हिस्सेदार है, जो विटवर्थ का मामला भी लड़ रही थी, तो उसने ऊंची अदालत किंग्स बेंच King’s Bench में इस सज़ा को रद्द करने की अर्जी लगा दी। जस्टिस हेवर्ट, जस्टिस लश और जस्टिस सैंके की पीठ ने सुनवाई की। वहां ससेक्स के न्यायाधीश ने हलफनामा देकर बताया कि हालांकि यह सही है कि वह बाबू उनके साथ कक्ष में आया था, मगर उससे उनकी इस मुकदमे के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई थी और यह फैसला बिना किसी पूर्वग्रह के दिया गया है। यह भी निवेदन किया गया कि बाबू की उपस्थिति को एक अनियमितता की तरह तो लिया जा सकता है, मगर इससे फैसले की वैधता पर कोई आंच नहीं आती।
रोचक बात यह है कि जस्टिस हेवर्ट ने न्यायाधीश के हलफनामे को सच माना कि उन्होंने अपने बाबू से मुकदमे के संबंध में कोई बात नहीं की थी। मगर उन्होंने 9 नवंबर, 1923 को दिए गए अपने फैसले में न सिर्फ मैक्कार्थी को दिए गए दंड को निरस्त कर दिया, बल्कि यह भी कहा कि उस बाबू की न्यायाधीश के कक्ष में उपस्थिति या उसका न्यायाधीश को प्रभावित करने का तथ्य यहां महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इन सवालों पर गौर करने की जरूरत ही नहीं है। उन्होंने कहा कि महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि वास्तव में क्या हुआ था, बल्कि यह है कि क्या होता हुआ प्रतीत हो रहा है। जस्टिस हेवर्ट ने कहा कि “ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे तनिक भी संदेह पैदा हो कि न्याय के रास्ते में कोई अनुचित दखलंदाजी हो रही है।”
बाकी दोनों न्यायधीश भी हेवर्ट से सहमत थे। जस्टिस लश ने कहा कि हालांकि न्यायाधीश का इरादा कुछ गलत करने का नहीं था, मगर उन्होंने कक्ष में बाबू की उपस्थिति की इजाजत देकर स्वयं को एक असंभव परिस्थिति में डाल दिया। मैक्कार्थी के वकील से इस उपस्थिति की मंजूरी नहीं ली गई थी, इसलिए उक्त सज़ा को निरस्त किया ही जाना चाहिए। इसी फैसले में जस्टिस हेवर्ट ने वह वाक्य लिखा, जो बाद में न्यायशास्त्र के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण साबित हुआ।
“It is not merely of some importance but is of fundamental importance that justice should not only be done, but should manifestly and undoubtedly be seen to be done.”
“यह बात सिर्फ साधारण महत्त्व की नहीं बल्कि बुनियादी महत्त्व की है कि न्याय सिर्फ किया ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि किए जाते हुए जाहिरा तौर पर और असंदिग्ध रूप से दिखना भी चाहिए।“
इस फैसले के बाद हितों के टकराव की तरफ अदालतों का ज्यादा ध्यान गया व इसे गंभीरता से लिया जाने लगा। एक न्यायाधीश को सिर्फ निष्पक्ष और स्वतंत्र होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। इसी के बाद वह शब्द हमें ज्यादा सुनाई देने लगा, जिसे अंग्रेजी में Recuse कहते हैं। जब न्यायाधीश या कमेटी का कोई सदस्य अपने स्वविवेक से किसी मुकदमे से खुद को इसलिए अलग कर लेता है ताकि हितों के टकराव या पूर्वग्रह की छाया न्याय की प्रक्रिया पर न पड़े। किसी मामले में न्यायाधीशों की पीठ बनाते समय या कोई कमेटी बनाते समय भी इस बात का ख्याल रखे जाने की अपेक्षा की गई।
जब किसी कमेटी के सदस्यों के विचार उस मुद्दे पर पहले से पता हैं, जिन पर उन्हें राय देना है, तो वह कमेटी संदिग्ध हो जाती है। फिर न्याय की पूरी दखलंदाजी संदिग्ध हो जाती है। संदिग्ध कमेटी के आगे यदि कोई न जाने का निर्णय करता है तो उसे जायज निर्णय ही कहा जाएगा।
हेवर्ट का वाक्य दूरगामी महत्त्व का था। कोई आत्मगत रूप से निष्पक्ष है या नहीं, इसे संयोग के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। पीठ या कमेटी के पदाधिकारी को निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। उसकी दृश्यता में कोई ऐसा तत्व नहीं होना चाहिए, जो उसकी निष्पक्षता को संदेह के घेरे में लाए। (सप्रेस)
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