पत्रकारिता में शुरुआत से ही एक विधा रही है, ‘फ्री-लांस’ या स्वतंत्र लेखन व मीडिया-कर्म की। यह लेखन बिना किसी मीडिया संस्थान से औपचारिक सम्बन्ध बनाए लगातार लिखने और जीवन-यापन करने पर आधारित रहता है। ऐसे ही एक लेखक-मित्र हैं, ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ से बरसों से जुडे भारत डोगरा। पिछले दिनों उनके ‘फ्रीलांस’ लेखन के पचास साल होने पर हमने उनसे, उनके अनुभव साझा करने का आग्रह किया।
जहां लोकतंत्र में मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बहुत महत्त्वपूर्ण है, वहां यह भी सच है कि इसे बनाए रखने में उन स्वतंत्र व निष्पक्ष लेखकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है जो किसी एक मीडिया समूह से जुड़े बिना दीर्घकालीन स्वतंत्र लेखन की राह अपनाते हैं और इस पर अटल भी रहते हैं।
हाल ही में इस तरह के स्वतंत्र लेखक के रूप में मैंने 50 वर्ष (आयु 16 वर्ष से 66 वर्ष) पूरे किए हैं। मेरे लेखन की उपयोगिता का मूल्यांकन तो सजग पाठक व विद्वान समीक्षक ही कर सकते हैं, पर इतना तो अपनी ओर से कह ही सकता हूँ कि 50 वर्ष तक यह जिम्मेदारी मैंने पूरी ईमानदारी से निभाने का प्रयास किया। आरंभ से ही मुझे सबसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में नियमित रोजगार के प्रस्ताव मिले, पर कठिन स्थितियों में भी मैं स्वतंत्र लेखन की राह पर ही चलता रहा। मुझे यही लगा कि इस राह पर चलते हुए शायद मेरा सामाजिक योगदान अधिक हो सकेगा।
यदि सतही व संख्यात्मक तौर पर देखें तो मेरे लगभग दस हजार लेख व रिपोर्टें, 400 पुस्तक-पुस्तिकाएं व अनेक कहानियां, कविता, गीत, लघु उपन्यास आदि प्रकाशित हुए हैं। पर मेरे व मेरे परिवार के जीवन के लिए इससे बड़ी बात यह रही कि इस लेखन के माध्यम से इतने अच्छे प्रेरणादायक व्यक्तियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व अन्य लेखकों, पत्रकारों, संपादकों से मित्रता हो सकी। अतः 50 वर्ष का लेखन पूरा होने पर सबसे पहला विचार तो यही आता है कि परिवार के सदस्यों के साथ इन मित्रों, साथियों, प्रेरकों व संपादकों को धन्यवाद दूं।
आरंभ की मेरी समझ के अनुसार तो मुझे यही लगा कि गरीबी व इससे जुड़े विषय ही सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। अतः इस पर ध्यान केन्द्रित करना ही सबसे उचित है। कुछ समय बाद मुझे अपने सरोकार अधिक व्यापक करना जरूरी लगने लगा। जब ‘चिपको आंदोलन’ पर उत्तराखंड से रिपोर्टिंग की, तो पर्यावरणीय विषयों का महत्त्व बेहतर ढंग से समझ में आया। इस आंदोलन के गांधीवादी कार्यकर्ताओं से संबंध बढ़ने पर उन्होंने मुझे शराब व नशे के विरोध का महत्त्व समझाया।
इस तरह अनेक मित्रों और साथियों से सीखते हुए अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि दुख-दर्द के जो भी कारण हैं, वे सभी लेखन का विषय बनने चाहिए। इसके साथ यह भी सीखा कि केवल मनुष्य के दुख-दर्द की चिंता नहीं होनी चाहिए। सभी जीव-जंतुओं के दुख-दर्द के बारे में सोचना चाहिए। दूसरी बात यह भी सीखी कि केवल इस पीढ़ी की नहीं, आगामी पीढ़ियों के दुख-दर्द की भी चिंता करना जरूरी है।
इस दूसरी बात पर अधिक अध्ययन-चिंतन किया तो यह समझ में आया कि आगामी समय की दृष्टि से देखें तो धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ रही हैं – कुछ तो अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं (जैसे जलवायु बदलाव) के कारण व कुछ महाविनाशक हथियारों (जैसे परमाणु हथियारों) के कारण। जैसे-जैसे इन समस्याओं की अति गंभीरता समझ आई, वैसे-वैसे इस पर मैंने अधिक ध्यान केंद्रित किया व अपनी नई पुस्तकों का विषय भी बनाया। ‘धरती रक्षा अभियान’ भी आरंभ किया।
हालांकि हिंदी व अंग्रेजी दोनों के समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में मैंने लिखा, फिर भी यह जरूरत महसूस होती रही कि अधिक समग्र लेखन पुस्तक-पुस्तिकाओं के रूप में किया जाए। मेरी पत्नी मधु व हमारी बेटी रेशमा भारती ने वैसे तो सभी कार्यों में भरपूर सहयोग दिया, पर पुस्तक-पुस्तिकाओं के इस कार्य में उनका विशेष महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा। इस तरह लगभग 400 छोटी-बड़ी पुस्तक-पुस्तिकाओं का प्रकाशन हमारे कुटीर स्तर के प्रकाशन ‘सोशल चेंज पेपर्स’ से हो सका।
आर्थिक कठिनाईयां प्रायः बनी ही रहीं व इन्हें कम करने के लिए मैंने कई प्रयास किए, जैसे – प्रेस क्लिपिंग सर्विस निकाली, अनेक संस्थानों के लिए डाक्यूमैंटेशन व अनुवाद कार्य किए। खैर, कठिनाईयां आती रहीं तो कुछ राह भी निकलती रही। कुल मिलाकर, अभी तक का 50 वर्ष का स्वतंत्र लेखन का यह सफर तय हो सका। अब इस कार्य के साथ-साथ ‘धरती रक्षा अभियान’ की नई जिम्मेदारी भी मेरे साथ है। वृद्धावस्था में कितना हो सकेगा, कमजोर होते हाथ कहां तक पहुंच सकेंगे, पता नहीं, पर इतना जरूर पता है कि अंतिम समय तक हमारे प्रयास में कमी नहीं आएगी।
जहां मीडिया के महत्त्व को हर कोई स्वीकार करता है, वहां इस ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है कि मीडिया के लोक हितकारी, निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप को कैसे सशक्त किया जाए। यह केवल स्वतंत्र लेखकों के लिए नहीं, लोकतंत्र के व्यापक हितों के लिए भी जरूरी है कि स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता, साहित्य सृजन के लिए अधिक जगह बनाई जाए व इस बेहद रचनात्मक माध्यम को अपने जीवन व आजीविका का आधार बनाने के अधिक अवसर उपलब्ध करवाए जाएं। मीडिया की स्वतंत्रता का अर्थ केवल बड़े मीडिया की स्वतंत्रता नहीं है, अपितु अधिक सार्थक अर्थ में तो यह समाज की भलाई व सुधार से जुड़े श्रमजीवी लेखकों व पत्रकारों की स्वतंत्रता है और यह लोकतंत्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण भी है। मैं अपनी लेखन-यात्रा को भी इस दिशा में एक छोटे से प्रयास के रूप में ही देखना चाहूंगा। (सप्रेस)
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