एक दशक पहले तक जिस भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसन्धान केंद्र की पहचान राष्ट्रीय स्तर के सुपर स्पेशिऐलटि अस्पताल के रूप में थी जहाँ बारह से ज्यादा उच्चत्तर चिकित्सा विभागों में कंसल्टेंट कार्यरत रहते थे और आठ बाह्य चिकित्सा यूनिट्स में बड़ी संख्या में गैस पीड़ित मरीजों को आधुनिक सुविधाओं के साथ विशिष्ट उपचार मुहैया कराया जा रहा था. पिछले कुछ वर्षों से कई चिकित्सा विशेषज्ञों के अस्पताल से छोड़ कर जाने, दवाओं की कमी और अन्य समस्याओं के कारण आज बदत्तर स्थिति में है.
पूर्णेन्दु शुक्ल
3 दिसम्बर : भोपाल गैस त्रासदी
विश्व की इस सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी के बाद उत्पन्न समस्याओं, सामाजिक व पर्यावरणीय स्थितियों को राज्य और केंद्र सरकार ने जिस बेढंगे तरीके से नियंत्रित और नियोजित करने की कोशिश की उससे यह दुर्घटना लाखों प्रभावितों के लिए त्रासदी में तब्दील हो गया है. चाहे मसला हादसे के दोषी लोगों को सजा दिलाने, उचित मुआवजा राशि का हो या फिर गैस प्रभावितों को रोजगार,उनके पुनर्वास-आवास और विशिष्ट उपचार मुहैया कराने आदि मोर्चे पर सरकार की योजनायें और कार्य अभी अधूरा-अपूर्ण है.
एक दशक पहले तक जिस भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसन्धान केंद्र की पहचान राष्ट्रीय स्तर के सुपर स्पेशिऐलटि अस्पताल के रूप में थी जहाँ बारह से ज्यादा उच्चत्तर चिकित्सा विभागों में कंसल्टेंट कार्यरत रहते थे और आठ बाह्य चिकित्सा यूनिट्स में बड़ी संख्या में गैस पीड़ित मरीजों को आधुनिक सुविधाओं के साथ विशिष्ट उपचार मुहैया कराया जा रहा था. पिछले कुछ वर्षों से कई चिकित्सा विशेषज्ञों के अस्पताल से छोड़ कर जाने, दवाओं की कमी और अन्य समस्याओं के कारण आज बदत्तर स्थिति में है. इस बदहाली के लिए केन्द्र सरकार की उदासीनता, अस्पताल का संचालन करने वाली भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद के महानिदेशक का अस्पताल के प्रति उपेक्षित रवैया और स्थानीय प्रबंधन पूरी तरह जिम्मेदार है.
वास्तव में सरकार में ”विजन” की कमी और अधिकारियों की जिद और बदनीयती से किये गए गलत फैसले किसी अच्छे-खासे संस्थान को किस बदहाली में पहुँचा देते है इसका सटीक उदाहरण है यह संस्थान BMHRC. केंद्र सरकार के उपेक्षित रवैये के चलते पिछले सात-आठ वर्षों से दस प्रमुख चिकित्सकों, डॉक्टरों और स्टाफ़ के कई अन्य कर्मचारियों के भी अस्पताल से पलायन ने इस संकट को और गहरा कर दिया.
विशेषज्ञों के पलायन का असली कारण
बीएमएचआरसी में गैस पीड़ित मरीजों को उच्च स्तर का विशिष्ट इलाज न मिल पाने का प्रमुख कारण है सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों का पलायन और रिक्त पदों पर स्थायी नियुक्ति नहीं होना है. ICMR और स्थानीय प्रबंधन ने इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये है. वर्ष 2013-14 में जब विशेषज्ञों के संस्थान छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ तब उसकी मुख्य वजह थी इन कंसल्टेंट्स को मिलने वाले वेतन और भत्तों की कुल राशि घट कर एक तिहाई हो जाना थी. चिकित्सकों के मासिक वेतन में इतनी अधिक कमी किसी कटौती की वजह से नहीं बल्कि उनको मिलने वाले ‘प्रायवेट पेशेंट शेयर’ राशि के बंद हो जाने से हुई थी. दरअसल अस्पताल में जब गैर-गैस पीड़ितों का भी उपचार करने का निर्णय लिया तबसे एंजियोप्लास्टी,एन्जिओग्राफी, सर्जरी और सीटी जैसी जाँच प्रक्रियाओं के लिए प्रायवेट मरीजों से मिलने वाले शुल्क की करीब 60 प्रतिशत राशि का शेयर प्रमुख चिकित्सकों और उनसे जुड़े स्टाफ को बांटने की योजना प्रारंभ की गई थी, इसके परिणाम स्वरूप कार्डियोलाजी,रेडियोलाजी, गैस्ट्रोसर्जरी,केंसर सर्जरी आदि विभाग के इन विशेषज्ञों को यह इंसेंटिव राशि वेतन से कहीं ज्यादा दो-तीन गुना तक मिलने लगी.
यह व्यवस्था सुचारू रूप से 2010 तक चलती रही. सभी संतुष्ट थे क्योंकि इसका फायदा उन मरीजों को भी मिलने लगा जो गैस प्रभावित नहीं थे. इस स्तर के विशेषज्ञों की सेवाएँ और सुविधा किसी सरकारी अस्पताल में उपलब्ध नहीं थी और प्रायवेट अस्पताल उनकी पहुँच से बाहर थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा जून 2010 में ट्रस्ट भंग करने और इसके संचालन का दायित्व केंद्र सरकार को सौपने के आदेश के कारण इस तरह की व्यवस्था बनाए रखना मुमकिन नहीं था. केंद्र सरकार ने चिकित्सकों और स्टाफ को प्रायवेट मरीजों से कलेक्ट शुल्क राशि आदि में से हिस्साबाँट करने से इंकार कर दिया. इसीलिए इस योजना का सबसे अधिक लाभ उठाने वाले कंसल्टेंट की वेतन राशि लगभग दो तिहाई कम हो गई और मुख्यतः इसी वजह से उनका अस्पताल से पलायन का सिलसिला शुरू हो गया.
इस स्थित को भांपते हुए मॉनिटरिंग कमेटी ने स्वतः संज्ञान लेते यह पहल की कि ये विशेषज्ञ अस्पताल से जुड़े रहे और अपनी सेवाएँ जारी रखें.कमेटी ने नोटिस देने वाले हर एक चिकित्सक से संपर्क साधा और चर्चा की. अध्यक्ष जस्टिस व्ही. के. अग्रवाल की अगुआई में कमेटी ने वर्ष 2013-14 में इन डॉक्टर्स के साथ कई मीटिंग की और बीएमएचआरसी डायरेक्टर, हेल्थ रिसर्च विभाग और आईसीएमआर के अधिकारियों के साथ विमर्श में डॉक्टरों के पलायन की समस्या को सुलझाने के प्रयास किया. साथ ही इस मुद्दे पर कमेटी ने कोर्ट को सौपी रिपोर्ट में उच्चतर योग्यता वाले ऐसे सुपरस्पेशलिस्ट डॉक्टर्स को केन्द्रीय वेतनमान के अलावा इंसेंटिव के बतौर विशेष भत्ता देने की सिफारिश की ताकि इनके अस्पताल से पलायन को रोका जा सकें.परन्तु केन्द्र सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई.
सुपर-स्पेशलिस्ट के चयन/प्लेसमेन्ट का सुझाव
सरकार का हमेशा नकारात्मक रवैया रहा और हेल्थ रिसर्च विभाग के लकीर के फ़क़ीर अफसरों ने गैस प्रभावितों के लिए बने इस संस्थान के प्रति असंवेदनशील-रूख बनाए रहा. सुपर-स्पेशलिस्ट की नियुक्त के संबंध में एक व्यावहारिक सुझाव भी दिया था कि जिस तरह बड़ी-बड़ी कंपनियां नए इंजीनियरों के चयन के लिए अच्छे शैक्षणिक संस्थानों से केम्पस प्लेसमेंट कर लेती है उसी तरह एम्स या पीजीआई में डीएम यां एमसीएच कोर्स करने वाले फायनल सेमिस्टर के स्टूडेंट को BMHRC की ओर से आफ़र देना चाहिए. लेकिन इस पर भी अमल नहीं हो सका. भला इतने कम वेतनमान में कोई सुपर स्पेशलिस्ट यहाँ क्यों आता?
हेल्थ रिसर्च विभाग के इस अड़ियल रवैये और निगेटिव एप्रोच के कारण इतने वर्षों बाद भी नेफ्रोलाजी, न्यूरोलाजी, गैस्ट्रोसर्जरी,कैंसर सर्जरी, रेडियोलाजी, कार्डिअक सर्जरी, कार्डियोलाजी आदि प्रमुख विभागों में किसी डीएम-एमसीएच डिग्री धारी सुपरस्पेशिऐलिस्ट की नियुक्ति नहीं हो सकी है. सच तो यह है कि इन नियुक्तियों के लिए अधिकारिक तौर पर कभी गंभीरता से प्रयास नहीं किये गए.सुपरस्पेशिलिस्ट को भी इतने कम वेतनमान- कमतर सुविधाओं का आफ़र दिया गया कि किसी वरिष्ठ विशेषज्ञ ने यहाँ आने में कोई रूचि नहीं ली.
अभी भी प्रोफ़ेसर के दस पद और ऐशोसिएट प्रोफ़ेसर के 7 पद खाली पड़े है, इन पदों हेतु लेटरल एंट्री या किसी अन्य संस्थानों से सीनियर डॉक्टर्स को प्रतिनियुक्ति पर नियुक्ति करने की संभावना कभी नहीं टटोली गई है जबकि संस्थान 15 सहायक प्राध्यापकों के पदों पर सीधी भर्ती की प्रक्रिया में ही उलझा हुआ है.इसमें आवेदक की आयु सीमा 40 वर्ष से कम रखी गई और नियमों के अनुसार SC,ST, OBC,EWS और सामान्य वर्ग (UR) के लिए पद आरक्षित किये गए है. यह समस्या विभिन्न विभागों में रोस्टर का पालन करते हुए भर्ती करने की बाध्यता के कारण और जटिल हो गई है जिसका कोई व्यवाहरिक हल ढूढ़े बगैर समाधान मुमकिन नहीं है.चूंकि कई विभागों में सिर्फ एक ही पद रिक्त है और उसके अनुसार आरक्षित श्रेणी का उपयुक्त उम्मीदवार मिलना अक्सर मुश्किल होता है.
यह समझ से परे है कि मरीजों के जिस लक्ष्यित समूह पर ICMR ने अनुसन्धान कार्य किया है उसी के लिए जब वास्तव में कुछ काम करने का इतना बड़ा अवसर मिला है तो भी उसकी रूचि क्यों नहीं है ..? एक ऐसी औद्योगिक दुर्घटना जिसने दुनिया को हिला कर रख दिया पीड़ित लाखों लोगों के समुचित उपचार का दायित्व वो इतनी बेरुखी और इतने अनमने ढंग से महज रस्म अदायगी क्यों कर रही है? अस्पताल में नेफ्रोलाजी ,न्यूरोलाजी जैसे महत्त्वपूर्ण कई विभागों में 8-9 वर्षों से सुपर स्पेशिएलिस्ट के पद इसीलिए खाली क्यों पड़े है.
यहीं नहीं डेढ़ सौ करोड़ से ज्यादा के बजट वाले विशाल अस्पताल में महामारी के वख्त कोरोना संक्रमित मरीजों के पुख्ता इलाज की व्यवस्था में कोताही बरती गई.प्रथक कोविड आइसोलेशन वार्ड बनाने में देरी हुई. मरीजों को भर्ती करने में हील-हवाला ढर्रा रहा.इस दौरान परिषद् के डायरेक्टर जनरल ने भोपाल के गैस पीड़ितों की कोई सुध नहीं ली,उन्होंने न तो अस्पताल का विजिट किया और ना ही आनलाइन मीटिंग कर डॉक्टरों से विचार विमर्श किया.जबकि ICMR की रिसर्च रिपोर्ट में सबसे पहले इस वर्ग के लोगों को संक्रमण होने की पूरी संभावना व्यक्त की गई थी.
कोविड मरीजों को उचित उपचार नहीं मिला
अस्पताल और सम्बंधित मिनी यूनिट्स में आने वाली महिला मरीजों और बच्चों के लिए कोई भी महिला रोग विशेषज्ञ और बच्चों के विशेषज्ञ डॉक्टर्स क्यों नहीं है और सबसे अहम् सवाल कि अभी तक अस्पताल में जनरल मेडिसिन का अलग विभाग क्यों नहीं है? प्रथक जनरल मेडिसिन विभाग नहीं होने से ही कोरोना आइसोलेशन वार्ड बनाने में विलम्ब हुआ. यदि परिषद् के महानिदेशक ध्यान देते तो BMHRC में महामारी का बेहतर प्रबंधन हो सकता था.
जाहिर है कि गंभीर व्याधियों से ग्रस्त जिन गैस पीड़ितों के आधुनिक उपचार के जिस मूल उदेश्य से यह संस्थान स्थापित किया गया है,वह साकार नहीं हुआ है. आईसीएमआर का यह अड़ियल रूख अभी भी बरक़रार है. उसने जहाँ मानिटरिंग कमेटी की कई अन्य सिफारिशों को अनदेखा किया है और उपयोगी सलाह को नज़र अंदाज किया है.केवल विशेषज्ञों के चयन ही नहीं टैकनीकल स्टाफ की भर्ती, दवाओं की शीड्यूल अनुसार खरीदी एवं वितरण, नवीन मशीनों और उपकरणों के क्रय के लिए टेन्डर प्रक्रिया,उनके रखरखाव के अनुबंध आदि की प्रक्रिया में खास बदलाव नहीं किया है बल्कि वो जटिल प्रक्रियाएं और पुराने ढर्रे की केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था व रिजिड वित्तीय प्रबंधन का तौर तरीका बदस्तूर जारी है.यह भी एक बड़ा कारण है नई मशीनों, दवाओं आदि की खरीदी में देरी और गड़बड़ी का.
यह भी सवाल है कि जब मुंबई और दिल्ली के एकाधिक सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञों को विशेष वेतन और आकर्षक पैकेज दिया जा सकता है तो भोपाल गैस पीड़ितों के उपचार के लिए आकर्षक पैकेज देकर श्रेष्ठ चिकित्सकों की सेवाएँ क्यों नहीं हासिल की जा सकती है.
केंद्र और राज्य सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों को विशेषज्ञों और कंसलटेंट की नियुक्तियों की समस्या को अधिक गंभीरता से हल करना चाहिए और व्यावहारिक नीति बनाना पड़ेगी. जब तक उनको नियमित वेतनमान के साथ विशेष पैकेज का ऑफ़र नहीं दिया जाएगा तब तक कोई भी सुपर स्पेशलिस्ट नहीं मिलेगा. BMHRC में महिलाओं व बच्चों के लिए प्रथक विभाग तथा जनरल मेडिसिन विभाग के महत्व को देखते हुए इसकी शीघ्र शुरुआत की जाए.
गैस पीड़ित मरीजों की चिकित्सा से जुडी समस्याओं को दूर करने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार को कारगर कदम उठाने होंगे…इस सिलसिले में समय समय पर दी गई मॉनिटरिंग कमेटी की सिफारिशों और कोर्ट के निर्देशों पर अमल सुनिश्चित किया जाए.
पूर्णेन्दु शुक्ल पत्रकार है एवं मॉनिटरिंग कमेटी के सदस्य है।
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