राकेश दीवान

हाल के इस बजट को ही देखें तो अगले वित्त-वर्ष के लिए कृषि क्षेत्र को एक लाख 31,530 करोड रुपयों का आवंटन किया गया है, जो पिछले साल के बजट आवंटन से दस हजार करोड रुपए कम है, लेकिन इस समूची राशि का आधा ‘प्रधान-मंत्री किसान सम्मान निधि’ योजना की मार्फत 6-6000 रुपए प्रति किसान परिवार वितरित करने में खर्च हो जाएगा। अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी से लेकर भांति-भांति के योजनाकार बदहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ‘नोट छापकर लोगों के हाथ में पैसा देने’ की तजबीज सुझा रहे हैं और कृषि-बजट ने ठीक यही किया भी है। लेकिन क्या लोगों के हाथ में सेंत-मेंत में पैसा आने से उनके रोजगार की समस्या हल हो जाएगी?

अभी, इस महीने की पहली तारीख को संसद में पेश किए गए केन्द्रीय बजट का मतलब आखिर क्या है? बजट की भूमिका, कहने को भविष्य की आर्थिक गतिविधियों का लेखा-जोखा पेश करने की होती है, लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता है? क्या बजट हमारी पिछली-अगली परिस्थितियों की पडताल करके एक देश की हैसियत से हमारी बेहतरी का कोई खाका प्रस्तुत करता दिखाई देता है?

सरसरी तौर पर देखें तो बजट में सौ में से ‘जीएसटी’ (15 प्रतिशत), कॉर्पोरेट टैक्स (13 प्रतिशत), आयकर (14 प्रतिशत), कस्टम (3 प्रतिशत), केन्द्रीय उत्पाद शुल्क (8 प्रतिशत), पूंजीगत प्राप्तियां (5 प्रतिशत), गैर-कर आय (6 प्रतिशत) और उधार (36 प्रतिशत) की मदों से आय होती है। इसी तरह सौ में से ही पेंशन (5 प्रतिशत), रक्षा (8 प्रतिशत), सब्सिडी (9 प्रतिशत), केन्द्र की योजनाएं (9 प्रतिशत), ब्याज भुगतान (20 प्रतिशत), वित्त आयोग (10 प्रतिशत), करों में राज्यों का हिस्सा (16 प्रतिशत) और केन्द्रीय योजनाओं (13 प्रतिशत) की मदों के जरिए खर्च होता है। लेकिन क्या आय-व्यय के इस लेखे-जोखे से हमें अपनी मौजूदा हालातों से निपटने का कोई खाका दिखाई देता है? 

पिछले, यानि 2020-21 के साल में हमने तीन बडी समस्याओं को अपने सामने घटते देखा है – अव्वल तो साल की शुरुआत में ही जनवरी की तीस तारीख को कोरोना वायरस का पता चला था और फिर उससे उपजी कोविड-19 बीमारी ने देखते-ही-देखते समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया था। दूसरे, इस वायरस के कारण बंद हुए देश में अप्रेल, मई की तीखी, जानलेवा गर्मी में करोडों मजदूरों का अपने-अपने घर-गांवों की तरफ ‘रिवर्स माइग्रेशन’ यानि उलट-पलायन और तीसरे – एन कोविड-19 के दौर में केन्द्र सरकार द्वारा पहले अध्‍यादेश के माध्‍यम से कृषि संबंधी दो नए कानून लाए गए और तीसरे कानून में संशोधन किया गया, फिर इन्हीं तीनों कानूनों को, बहुमत की दम पर ससंद में पारित भी करवा लिया गया। इन कानूनों की वापसी के साथ अपनी अन्य मांगों को लेकर पिछले सात-आठ महीनों से देशभर के किसानों ने अभूतपूर्व आंदोलन छेड रखा है और पिछले 74-75 दिनों से वे राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर अहिंसक, शांतिपूर्ण धरना देकर बैठे हैं। सवाल है कि क्या ताजा बजट में इन तीनों संकटों से निपट पाने की कोई तजबीज उजागर होती दिखाई देती है?

वित्तमंत्री के बजट भाषण में स्वास्थ्य के लिए आवंटित दो लाख 23,846 करोड रुपयों यानि 137 प्रतिशत या पिछले बजट से 2.37 गुने की बढौतरी ने खूब तालियां बटोरीं जिसमें 35 हजार करोड रुपए कोविड वैक्सीनीकरण के नाम पर आवंटित किए गए थे। स्वास्थ्य, स्वास्थ्य क्षेत्र में शोध, आयुष, पेयजल, पोषण, जल-स्वच्छता आदि पर खर्च की जाने वाली इस भारी-भरकम राशि ने इतना तो स्पष्ट कर ही दिया है कि कोविड-19 के संकट के अनुभव से स्वास्थ्य और उससे जुडे मामलों पर सरकार की जागरूकता बढी है। स्वास्थ्य के इस बजट को खर्च करने में ईमानदारी बरती गई तो जाहिर है, कोविड-19 सरीखी महामारी हमें आसानी से दबोच नहीं पाएगी। लेकिन फिर भी आज के संकटों – रोजगारहीन मजदूरों के ‘उलट-पलायन’ और किसान आंदोलन की मांगों – को हल करने की कोई दिशा इस बजट से उजागर होती दिखाई नहीं देती।

शहर-शहर बेरोजगार होते मजदूरों ने वापस अपने-अपने गांव लौटकर जता दिया था कि लोगों को उनके घर के आसपास रोजगार मिलना चाहिए। घर के आसपास यानि गांव-खेडे में। जाहिर है, खेती-किसानी में बेहतरी-बढौतरी होगी तो रोजगार के असंख्‍य अवसर पैदा होंगे और ऐसे में लोगों को अपना-अपना घर-बार छोडकर कोसों दूर, अनजाने इलाकों में भटकना नहीं पडेगा। लेकिन आमफहम सी यह बात हमारे योजनाकारों, राजनेताओं को कभी समझ नहीं आई। हाल के इस बजट को ही देखें तो अगले वित्त-वर्ष के लिए कृषि क्षेत्र को एक लाख 31,530 करोड रुपयों का आवंटन किया गया है, जो पिछले साल के बजट आवंटन से दस हजार करोड रुपए कम है, लेकिन इस समूची राशि का आधा ‘प्रधान-मंत्री किसान सम्मान निधि’ योजना की मार्फत 6-6000 रुपए प्रति किसान परिवार वितरित करने में खर्च हो जाएगा। अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी से लेकर भांति-भांति के योजनाकार बदहाल अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ‘नोट छापकर लोगों के हाथ में पैसा देने’ की तजबीज सुझा रहे हैं और कृषि-बजट ने ठीक यही किया भी है। लेकिन क्या लोगों के हाथ में सेंत-मेंत में पैसा आने से उनके रोजगार की समस्या हल हो जाएगी? पिछले साल की गर्मी में बगटूट घर वापस लौटे मजदूरों के लिहाज से देखें तो कृषि-क्षेत्र की भलाई के लिए क्या करना चाहिए?

एक तरह से दिल्ली की चौहद्दी पर डटे किसानों की ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की मांग देश के करोडों खेतहर मजदूरों की समस्याओं का हल भी दे सकती है। आंदोलनरत किसान ‘एमएस स्वामीनाथन कृषक आयोग’ की उन सिफारिशों को लागू करने का आग्रह कर रहे हैं जिनके मुताबिक एक तो सभी 23 फसलों के लिए ‘एमएसपी’ घोषित किया जाना चाहिए और दूसरे, यह ‘एमएसपी’ लागत का डेढ-गुना होना चाहिए। आज की हालातों में गेहूं, चावल और मक्का जैसी दो-ढाई फसलों की ‘एमएसपी’ पर खरीदी से कुल छह प्रतिशत किसानों का फायदा होता है। बाकी की 20-21 फसलें और करीब 94 फीसदी किसान इस ताने-बाने के बाहर ही रहते हैं। ये वे ही 86 प्रतिशत छोटे, सीमांत किसान-मजदूर हैं जिन्हें अपनी दाल-रोटी की खातिर देश-विदेश भटकना पडता है, लेकिन वित्तमंत्री के बजट भाषण को पढें तो ‘एमएसपी’ समेत इन संकटों से निपटने का कोई गंभीर जिक्र तक नहीं दिखता।

मौजूदा कृषि संकट उत्पादन का संकट नहीं है, जैसा कि सरकार और उसके कारिंदे समझते हैं। सब जानते हैं कि हमारे भंडार अनाज से लबालब भरे हैं और इनकी कमी के चलते हर साल हमें करीब 90 हजार करोड रुपयों का अनाज बर्बाद करना या फेंक देना पडता है। जाहिर है, किसानों के सामने ‘पैदावार बढाओ’ की बजाए उसकी वाजिब कीमतों का संकट है। साठ के दशक में ‘हरित क्रांति’ के नतीजे में बढी पैदावार की वाजिब कीमतों को बनाए रखने की खातिर ही ‘एमएसपी’ का ताना-बाना खडा किया गया था, लेकिन उत्पादन और उसकी जायज कीमतों के बीच का रिश्ता सरकारों की नजरों से हमेशा ओझल ही रहा है। ‘हरित क्रांति’ की ‘भारी लागत से भारी उत्पादन’ की तजबीज ने किसानों का संकट और बढा दिया है। आज की खेती एक तरफ, लगातार मंहगे होते जा रहे ‘आदान’ यानि खाद, बीज, दवाएं, कीटनाशक आदि के कारण और दूसरी तरफ, पैदावार की वाजिब कीमतों के आभाव में छोटे, सीमांत किसानों की हैसियत से बाहर होती जा रही है। जाहिर है, ऐसे में मुश्किल से काम चलाने वाले छोटी जोत के किसान मजदूरी पर निर्भर होते हैं।

असल में सत्‍ताएं नागरिकों को सक्षम, खुदमुख्तार बनाने में मदद करने की बजाए दान पर पलने वालों में तब्‍दील करती हैं। इसका एक बडा उदाहरण स्कूल-स्कूल में बच्‍चों को बांटा जाने वाली ‘मध्‍यान्ह भोजन’ है। क्या रोज सुबह अपनी थाली-कटोरी लेकर भोजन लेने जाने की बजाए यह ठीक नहीं होता कि उन बच्चों के मां-बाप दाल-रोटी जुटाने लायक बना दिए जाते? ताजा बजट में भी ‘मध्‍यान्ह भोजन’ का बजट आवंटन 500 करोड बढाकर 11,500 करोड कर दिया गया है। दरअसल हरेक डंडों, झंडों वाली राजनीतिक जमातों को यह समझ लेना चाहिए कि हमारे सरीखे देश में खेती ही ‘निर्वाण’ का रास्ता दिखा सकती है। पिछले 2020-21 के संकट के साल में भी ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में जहां सेवा-क्षेत्र का योगदान 57.3 प्रतिशत से घटकर 54 प्रतिशत और उद्योग-क्षेत्र में 28.5 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत रहा, वहीं कृषि-क्षेत्र में 14.2 प्रतिशत से बढकर 20 प्रतिशत हो गया। जाहिर है, खेती और उससे जुडी मांगों को लेकर दिल्ली की सरहदों पर बैठे किसानों और पिछले साल ‘घर-वापसी’ करने वाले मजदूरों की बात बजट में भी सुनी जानी चाहिए। (सप्रेस)

[block rendering halted]

1 टिप्पणी

  1. यथार्थपूरक व गहन गम्भीर संतुलित आलेख।बौद्धिक तकनीकी व आंकड़ो से भरे और 90 फीसदी लोगो की समझ से बाहर रहने वाले बजट का आसन विश्लेषण ।
    साधुवाद

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें