डॉ.खुशाल सिंह पुरोहित

गोबर से बने कन्डों से होली जलाने के लिए सामाजिक स्तर पर जनचेतना अभियान चलाया जा रहा है। गाय के गोबर के कन्डों के बढ़ते उपयोग से गोशालाओं और गोपालकों को अतिरिक्त आय होगी इस आय से गोशाला प्रबंधन और गोरक्षा में सहायता होगी। यह सिलसिला आगे बढे़गा तो देश में गो संरक्षण में स्वावलंबन आएगा। यह एक सामयिक कदम है, जिससे गोरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्यों में सफलता प्राप्त की जा सकती है।

मालवा क्षेत्र में प्राचीन काल से ही पर्यावरण मित्र होली की परंपरा रही है। मालवा की प्राचीन नगरी उज्जैन में सिंहपुरी की होली का नाम इसमें प्रमुखता से आता है। उज्जैन शहर में सिंहपुरी में विश्‍व की सबसे प्राचीन होली पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का भी संदेश देती है। वनों को बचाने के लिए यहां लकड़ी से नहीं बल्कि गाय के गोबर से बने कंडो की पारंपरिक होलिका का दहन किया जाता है। श्री महाकालेश्‍वर भर्तृहरि विक्रम ध्वज चल समारोह समिति सिंहपुरी की ओर से यह होली बनाई जाती है। इस समिति का संचालन गुर्जर गौड़ ब्रह्माण समाज सिंहपुरी की ओर से किया जाता है। समिति अध्यक्ष पं. विनोद व्यास और उपाध्यक्ष पं.रविशंकर शुक्ल के अनुसार गाय के गोबर से बने कण्डों की होली बनाई जाती है। पारंपरिक तरीके अनादि काल से ही यहां कंडों की होली बनाई जाती है। इसमें पांच हजार कंडों से होली बनाई जाती है। पं. यशवंत व्यास और धर्माधिकारी पं. गौरव उपाध्याय के अनुसार सिंहपुरी की होली विश्‍व में सबसे प्राचीन और बड़ी है। पांच हजार कंडों से 50 फीट से भी ऊंची होलिका तैयार की जाती है। लकड़ियों का प्रयोग नहीं किया जाता, जिससे पेड़ व वन संरक्षित होते हैं।

भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमारी संस्कृति कृषि प्रधान है। विश्‍व में भारत ही ऐसा देश है, जहां सदियों से करोड़ों लोग निरामिषभोजी रहे हैं। वैदिक काल में ही हमने गाय को अवधा मानकर पारिवारिक सदस्य का दर्जा दिया था। वेदों में गाय के लिए विश्‍व माता संबोधन किया गया है। गाय को गोमाता के रूप में पूज्य मानने में केवल धार्मिक आग्रह ही नहीं है, अपितु ये पशु और मानव संबंधों के मानवीय आधार की सर्वोत्कृष्ट परंपरा और भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक है। महाभारत में यक्ष के प्रश्‍न अमृत क्या है? के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ’’गाय का दूध ही अमृत है।’’

कृषि भारतीय अर्थतंत्र का आधार है। पशु सम्पदा भारतीय कृषि और किसान की बहुमूल्य निधि है। हमारी कृषि प्रणाली में हर स्तर पर पशु-पक्षी की महत्वपूर्ण भूमिका है। कृषि में खेत जोतने, बीज बोने से फसल आने तक और फिर कृषि उत्पादन को बाजार तक पहुंचाने के विविध कार्यों में पशु शक्ति का उपयोग होता है। देश में उपयोग आने वाली कुल ऊर्जा का एक तिहाई भाग पषु एवं मानव शक्ति से प्राप्त होता है। गाय और गोवंश की देश में कृषि, चिकित्सा स्वास्थ्य, ऊर्जा, उद्योग और अर्थव्यवस्था के साथ ही पर्यावरण संतुलन में अपनी भूमिका है। गोवंश को सम्मान देने के लिए ही हमारे राष्ट्रीय चिन्ह में नंदी विद्यमान है।

आधुनिक कृषि में हरित क्रांति के बाद रासायनिक उर्वरकों और कीटनाषकों के बढ़ते प्रयोग से खेतों में मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की संख्या अत्यंत कम होती जा रही है। इससे कृषि पैदावार पर विपरीत असर पड़ रहा है। महंगी होती कृषि में बढ़ते घाटे के कारण पिछले एक दशक में देश में करीब दो लाख किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। इसलिए खेती में आज गाय और गोवंश के महत्व को फिर से स्थापित करने की आवष्यकता है।

गाय कभी भी किसान के लिए अनुपयोगी नहीं होती है। गाय बूढ़ी हो जाये या दूध देना बंद कर दे तो भी गोबर और मूत्र के जरिये उसका आर्थिक स्वावलंबन बना रहता है। एक गाय प्रतिदिन करीब 10 किलोग्राम के हिसाब से वर्ष भर में 3650 किलोग्राम गोबर देती है, जिससे करीब साठ हजार रु. मूल्य की कम्पोस्ट खाद बनायी जा सकती है। इसके साथ ही करीब 1500 लीटर गो मूत्र उपलब्ध होता है। इससे बनने वाली दवाईयां और कीटनाशक से 20000 रु. मिल सकते है। गोघृत में वायुमंडल को शुद्ध करने की अलोकिक शक्ति होती है। इसलिए गाय का ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

देश में आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अपना महत्वपूर्ण स्थान होने के बाद भी आज देशी गाय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। भारतीय देशी गाय की सैकड़ों नस्लों में से केवल 33 ही बची है, समय रहते नहीं चेते तो भारतीय गाय की सभी नस्लें समाप्त होने में देर नहीं लगेगी। इसलिए संकर प्रजनन पर रोक लगाकर भारतीय नस्लों की शुद्धता की रक्षा करनी होगी। गोपालन के लिए सामाजिक स्तर पर अभियान चलाने की आवश्‍यकता है। हमारे देश में वर्ष 1951 में प्रति हजार व्यक्ति पीछे 430 गोवंश था, जो 2001 में प्रति हजार 110 ही रह गया था। यदि गो संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में प्रति हजार 20 का औसत हो जायेगा।

भारत में पशुओं  के वध का सवाल अर्थतंत्र के साथ ही सांकृतिक मूल्यों, पर्यावरणीय संतुलन और हमारी जैव विविधता से जुड़ा हुआ है। पशु पक्षियों के प्रति प्रेम और आदर की भावना हमारी जातीय परम्पराओं और संस्कृति की शिक्षाओं में हैं। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि हमारे प्रथम स्वतंत्र संग्राम 1857 की चिंगारी के पीछे गो हत्या विरोध की भावना ही मुख्य थी। यह विडंबना ही कही जाएगी की देश में मांस और चमड़े का व्यापार प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है, सरकार वध शालाओं के आधुनिकीकरण पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है।

देश में गोवंश एवं पशुओं की रक्षा के लिए कई कानून बने हैं। वर्ष 1960 में भारत सरकार ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम बनाया, जिसमें पशुओं के सहजतापूर्वक परिवहन के लिए भी नियम निर्धारित किये गए। केंद्र के साथ ही गो वंश के वध एवं अवैध परिवहन को रोकने में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित अनेक राज्यों में कठोर कानून बनाये गए हैं। इन कानूनों का व्यवाहरिक रूप से पालन सुनिशिचत करना पुलिस के लिए बड़ी चुनौती है। कानून व्यवस्था और अपराधों से जूझती पुलिस के लिए पशुओं की सुरक्षा के लिए हमेशा समय का संकट बना रहता है। इसलिए पुलिस, वनरक्षक और अन्य बलों के सामान पशुधन की रक्षा के लिए विशेष सुरक्षा बल के गठन की मांग गो प्रेमी संगठन वर्षों से कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामों, शहरों में पशुपालन के प्रति जागरूक पशु पालकों को चारा पानी के लिए अनुदान की व्यवस्था होनी चाहिए।

मालवा क्षेत्र के कुछ स्थानों पर कन्डों से होली जलाने की तैयारी चल रही है। गाय के गोबर के कन्डों के बढ़ते उपयोग से गोशालाओं और गोपालकों को अतिरिक्त आय होगी इस आय से गोशाला प्रबंधन और गोरक्षा में सहायता होगी। यह सिलसिला आगे बढे़गा तो देश में गो संरक्षण में स्वावलंबन आएगा। इसके साथ ही होली के अवसर पर रासायनिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंग और गुलाल का प्रचलन बढे़गा तो पर्यावरण प्रदूषण में कमी आयेगी और जनस्वास्थ्य की दिशा में भी समुचित सफलता मिलेगी। आशा की जानी चाहिए कि गोरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के इस उद्देश्‍यपूर्ण अभियान को व्यापक जन समर्थन मिलेगा। (सप्रेस)

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