अरुण कुमार डनायक 

मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनें या न पहनें, इस मुद्दे को लेकर कर्नाटक में विरोध हो रहा है। मामला उडुपी जिले के एक कॉलेज का है। यहां से जो खबरें आ रही हैं, वे चिंतनीय हैं। पर्दा प्रथा चाहे वह किसी भी रूप में- घूँघट, बुर्का या हिजाब- में क्यों न हो उसका समर्थन नहीं करता। लेकिन एक धर्म विशेष की लड़कियों को निशाना बनाकर उनसे हिजाब त्यागने का दुराग्रह करना अनुचित है। पर्दा त्यागने और अपने अन्य सहपाठियों की तरह वेशभूषा धारण कर स्कूल और कालेज में पढ़ाई करें, ऐसा कानून कर्नाटक सरकार ने 1983 में बनाया था। इस कानून को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और निर्णय आना बाकी है । क्या हम कुछ सालों और फैसले का इंतजार नहीं कर सकते? क्या सरकार न्यायालय से जल्दी सुनवाई करने व निर्णय देने का अनुरोध नहीं कर सकती?

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में जो बात सबसे आपत्तिजनक लगी हिजाब पहनकर आई एक मुस्लिम युवा छात्रा के पीछे  गमछाधारी युवकों का ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष करते हुए आना। लड़की ने प्रतिकार किया, वह डटी रही, उसने ‘अल्लाह हू अकबर’  के नारे लगाए। अन्याय और जोर जबरदस्ती का विरोध करने का सभी को अधिकार है। स्त्रियों के लिए तो यह प्रतिकार और भी अधिक जरूरी है क्योंकि वे एक ऐसे देश में रह रही हैं जहां अनेकानेक कानून बनने के बाद भी वे समानता के मौलिक अधिकारों से कई मामलों में वंचित हैं। वे आए दिन बलात्कार जैसी घृणित घटनाओं, दहेज कुप्रथा का शिकार हो रही हैं। गांधीजी ने तो स्त्रियों को ऐसे अन्याय का प्रतिकार करने के लिए हिंसा का भी सहारा लेने की छूट दी थी। इस लड़की ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि अन्याय का प्रतिकार करने का गाँधीवादी तरीका कितना उपयुक्त है।

स्त्री पर्दा कितना उचित ?

मेरे अनेक मुस्लिम मित्र हैं, वे सब मेरी तरह मध्यमवर्गीय ही हैं। हम लोगों का उनके यहां आना-जाना होता रहता है। उनकी महिलाओं को हमने पर्दा करते नहीं देखा। शिक्षिकाओं, बैंककर्मियों को मैंने स्कूल और बैंक के अंदर बिना बुर्के के काम करते देखा है। वे जब घर से निकलती हैं तो पर्दे में रहती है और जब अपने कार्य क्षेत्र में आती हैं तो पर्दा त्याग देती है।

इसी संबंध में मुझे गांधीजी का एक संस्मरण याद आ रहा है। यह घटना नोआखली की है जहां गांधीजी सीधी कार्रवाई के तहत पीड़ित हिन्दूओं की रक्षा करने के उद्देश्य से गए थे और शांति स्थापना के इस प्रयास में मुस्लिम भाई उन्हें संदेह की दृष्टि से देखते थे।  (मुरियम दिनांक 24.01.1947)  गांधीजी प्रेमी स्वभाव के मुस्लिम भाई हबीबुल्ला पटवारी के यहां रुके । घर के सभी पुरुष गांधीजी से मिले और फिर हबीबुल्ला मनु बहन को जनानखाने में ले गए । हबीबुल्ला ने मनु बहन का परिचय सभी स्त्रियों से करवाया और फिर आग्रह किया कि बापूजी जब फुरसत हो जाएँ तो उन्हें इन स्त्रियों से मिलवाने के लिए जनानखाने में लेकर आएं । गांधीजी जब अपने दैनिक कार्यों से निवृत हो गए तो वे मुस्लिम स्त्रियों से मिलने पहुंचे। सभी ने गांधीजी को सलाम किया, लेकिन कुछ बहनें शरमा कर एक तरफ बैठ गई। गांधीजी ने उनसे कहा कि “मैं तो तुम्हारे बाप के बराबर बूढ़ा आदमी हूं। मुझसे कोई स्त्री पर्दा रखती ही नहीं। पर्दा रखना ही है तो सच्चा पर्दा दिल में रखना चाहिए। झूठा पर्दा छोड़ दो। बाहर से पर्दा रखो और मन में विकार हों तो वह पाप है।“

हबीबुल्ला ने गांधीजी की वाणी का बांग्ला में अनुवाद सुनाते हुए मुस्लिम बहनों से कहा कि “आज हम पावन हो गए। हम पर हिंदुओं को मारने का कलंक है इसीलिए हम पापी हैं। हमारे आँगन में यह खुदा के फरिश्ते आए हैं, उनके दर्शन करके पावन होने में पर्दा कैसा ?”  इस वार्तालाप के बाद सभी स्त्रियों ने पर्दे को त्याग दिया और प्रेम से गांधीजी के विचार सुने। गांधीजी ने उनसे सफाई पर ध्यान देने को कहा।

कहने का आशय है कि प्रेम, भाई चारे और विश्वास को कायम रखकर पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों से निजात पाई जा सकती है। जिस प्रकार की घटना कर्नाटक में हुई वह निंदनीय है । अभी मध्य प्रदेश सरकार ने भी ऐसा कानून लागू करने की बात कही है। बेहतर होगा कि सरकार ऐसे स्कूल कालेजों में अभिभावकों की बैठक बुलाकर उन्हें समझाने का प्रयास करती और फिर मुस्लिम बहनों को पर्दे से आजाद करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाती। दुर्भाग्यवश हिन्दू मुस्लिम राजनीति ने पहले ही देश को बहुत नुकसान पहुंचाया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

श्री अरुण कुमार डनायक महात्मा गांधी के विचारों के अध्येता हैं। वे भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है।

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