कहा जाता है कि किताबें हमारी विरासत का दस्तावेज होती हैं और इसलिए किताबों को घर-घर में जगह दी जानी चाहिए, किताबें केवल स्कूली न हों और न ही केवल स्कूली बच्चों को पढ़नी चाहिए, अपितु सबको पढ़नी चाहिये क्योंकि अच्छी किताबें हमारे अनुभव एवं सीखने के क्षेत्र को विस्तार दे देती हैं। घर में बड़े पढ़ेंगे तो बच्चों के भी पढ़ने की संभावना ज़्यादा होगी।
सीखने और जीने के लिए किताबें पढ़ना अनिवार्य नहीं है, परन्तु यह सीखने को व्यापक और जीने को आसान बना सकता है। इन्सान अपने अनुभव और माहौल से बहुत कुछ सीखता है। बच्चे स्कूल जाने से पहले ही कितना कुछ सीख लेते हैं। हजारों साल पहले जब किताबें नहीं थीं, तब भी इंसान सीखा और आगे बढ़ा था। जाहिर है, किताबें पढ़ना, सीखने और जीने के लिए ज़रूरी नहीं है।
इन्सान केवल अपने अनुभव से ही नहीं सीखता। माता-पिता एवं बुजुर्गों के अनुभव से भी हमें सीख लेनी चाहिए और हम लेते भी हैं। हर एक के लिए आग में हाथ जलाकर यह सीखना कि आग जलाती है, बुधिमत्ता की निशानी नहीं है। अपने बुज़ुर्गों के अनुभव से सीखने पर सीखने का हमारा दायरा फ़ैल जाता है, सीखने का हमारा दायरा हमारे अपने निजी अनुभव के दायरे से ज़्यादा बड़ा हो जाता है।
किताबें इस दायरे को और फैला देती हैं। हमारा एवं हमारे बुज़ुर्गों का दायरा अपने समय, देश एवं काल तक सीमित होता है। किताबें इन सीमाओं को तोड़कर सीखने के हमारे दायरे को बढ़ा देती हैं। हम 500 साल पहले के लोगों के अनुभव से भी सीख सकते हैं और 1000 किलोमीटर दूर रहने वालों के अनुभव से भी।
पर हमें 500 साल पहले के लोगों और 1000 किलोमीटर दूर रहने वाले लोगों के अनुभव से सीखना क्यों है? इसकी क्या ज़रूरत है? हर देश और काल की अपनी विशेषताएं होती हैं, विविधता होती है, परन्तु इंसानी जीवन की कुछ समानताएं भी होती हैं। दुनिया भर के लोक गीतों, मुहावरों एवं कहावतों की समानता दिखाती है कि बहुत कुछ हम लोगों के बीच एक सा है। इसलिए जहाँ एक ओर हम दूर-दराज़ के लोगों की समानताओं से सीख सकते हैं, वहीं हम उनकी भिन्नताओं से भी सीख सकते हैं।
इतिहास केवल कौन राजा, कब जन्मा और मरा और कौन सा युद्ध कब हुआ का विवरण नहीं होता; इतिहास हमें यह भी बता सकता है कि किस तरह की नीतियों के क्या परिणाम हो सकते हैं, किस परिस्थिति में क्या उपाय कारगर हो सकता है।
किताबों के आने के बाद ही इंसान के ज्ञान एवं कौशल में तेज़ी से वृद्धि हुई; स्कूल-कालेजों का फैलाव हुआ। स्कूल-कालेज की किताबें अपने अनुभव से आगे जाकर दूसरों के अनुभवों से सीखने का माध्यम ही हैं।
परन्तु क्या स्कूली किताबें ही पर्याप्त हैं? जो लोग यह मानते हैं कि स्कूली किताबें ही पर्याप्त हैं, इसका मतलब उनका मानना है कि पढाई ख़त्म होने के बाद दूसरों के अनुभव से सीखना बंद कर केवल अपने अनुभव तक सीमित हो जाना चाहिए। जाहिर है, कोई भी यह नहीं कहेगा कि इम्तिहान ख़त्म होने के बाद सीखना बंद कर देना चाहिए।
विज्ञान की किताबों की बात समझ में आती है, पर कहानी, कविता या उपन्यास पढ़ने का क्या फायदा? जीवन केवल विज्ञान एवं तकनीक से नहीं चलता, सुखी जीवन के लिए केवल 2 और 3 का योग 5 होता है, जानना पर्याप्त नहीं है। कहानी/कविता/उपन्यास जीवन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं से परिचित कराते हैं। भाषा शिक्षण तो स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल है। कहानी की किताबें भाषा शिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
स्कूली बच्चों के लिए तो कहानी, कविता की किताब का विशेष महत्व होता है। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि स्कूलों में भी केवल पाठ्यक्रम की किताब पढ़ने पर जोर दिया जाता है एवं स्कूल पुस्तकालय को ताला लगा रहता है। हो सकता है हममें से कई लोगों को तो यह पता ही नहीं हो कि हर स्कूल में पुस्तकालय भी होता है।
जैसे जीवन में अच्छे, बुरे दोनों तरह के लोग और अनुभव होते हैं, उसी तरह किताबें भी अच्छी, बुरी दोनों तरह की होती हैं। जैसे संगति का इंसान के जीवन पर अच्छा या बुरा, दोनों तरह का असर हो सकता है, उसी प्रकार से किताबों की संगति का भी अच्छा-बुरा दोनों तरह का असर हो सकता है। कितने ही लोग फिल्म-टीवी देखकर अपराध करना सीखते हैं। ऐसा ही असर किताबों का भी होता है। इसलिए किताबों के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए, परन्तु यह भी आवश्यक है कि किताबें केवल उपदेशात्मक भी नहीं होनी चाहिए।
फिल्म-टीवी और किताबों में से कौन बेहतर है? जैसे किताबें अच्छी और बुरी दोनों हो सकती हैं, उसी तरह फ़िल्में भी अच्छी, बुरी दोनों तरह की हो सकती हैं, पर किताबों और फिल्मों/टीवी में एक बड़ा फर्क है। फिल्म/टीवी अपनी गति से चलते हैं, न कि देखने वाले की गति से। इसलिए इनको देखते समय सोचने-विचारने का मौका होता तो है, पर कम होता है। इसके विपरीत किताबें पढ़ने वाले की गति से चलती हैं; आप जो पढ़ा है, उस पर रुक कर सोच सकते हैं, विचार-मनन कर सकते हैं, कहीं नोट कर सकते हैं। पढ़े हुए पर सोचना, विचारना पढ़ने का ज़रूरी हिस्सा है। केवल याद करना नहीं, अपितु उससे सहमत या असहमत होना पढ़ने का महत्वपूर्ण काम है। सबसे बड़ी बात किताबें आप अपनी सुविधा अनुसार पढ़ सकते हैं।
इसलिए हर घर, हर स्कूल और हर गाँव में पुस्तकालय ज़रूर होना चाहिए। बार-बार प्रयोग में आने वाली किताबें, जैसे – शब्द-कोष हर घर के पुस्तकालय में हो एवं बाकी किताबें गाँव/स्कूल/मौहल्ले के पुस्तकालय में। सबकी – बच्चों, बच्चियों, महिलाओं एवं बड़ों की – इन तक पहुँच होनी चाहिए। किताबें केवल स्कूली न हों और न ही केवल स्कूली बच्चों को पढ़नी चाहिए, अपितु सबको पढ़नी चाहिये क्योंकि अच्छी किताबें हमारे अनुभव एवं सीखने के क्षेत्र को विस्तार दे देती हैं। घर में बड़े पढ़ेंगे तो बच्चों के भी पढ़ने की संभावना ज़्यादा होगी। (सप्रेस)
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