शैलेश शुक्ला
हाथरस की घटना के बाद पहले सोचा कि बेटी – बेटी है दलित हो या सवर्ण की। इसलिए जो इस मुद्दे पर जातिवादी विमर्श को हवा दे रहे थे मैंने उनको इग्नोर करना उचित समझा।
अपने जीवन में कभी यह महसूस ही नहीं किया कि कोई ऊंचा या नीचा हो सकता है।
परिवार में अवश्य कुछ बुजुर्गों में यह भावना थी कि हम ब्राह्मण हैं, इसलिए श्रेष्ठ हैं, लेकिन हमने उस भावना को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। अपनी जातीय श्रेष्ठता का दंभ हमने स्कूली दिनों में ही निकाल फेंका था। इतना सब होने के बाद भी कहीं ना कहीं गहराई से यह महसूस करता था कि अनेक उच्च जाति के लोगों के मन में जातीय अहंकार और दंभ ठूंस-ठूंस कर भरा हुआ है। पौधा जब पेड़ बन जाए तो उसे मोड़ना मुश्किल होता है। इसलिए बुजुर्गों की तरफ से तो कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन अपने आप को और अपनी आने वाली पीढ़ी को हमने इससे दूर रखा कि परमात्मा की इन संतानों में कोई ऊंच-नीच हो सकती है या कोई श्रेष्ठ और कोई निम्न हो सकता है। फिर भी मन में एक टीस तो रहती ही थी। क्यों कुछ लोग खुद को पवित्र और दूसरे को अपवित्र मानते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह का व्यवहार देखकर मन खिन्न हो जाता था। कालांतर में सुखद बदलाव दिखने लगा। वर्ष दर वर्ष गांव जाने पर यह सामने आया कि अब जातिवादी नफरत और छुआछूत उतनी नहीं है। उसमें उत्तरोत्तर कमी आ रही है। जब ग्रेजुएशन करके पहली बार गांव पहुंचा तो लगा कि इस जातिवादी नफरत के अब केवल अवशेष ही बचे हुए हैं। जो अगली पीढ़ी सामने आई है उसने इन पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं को तिलांजलि दे दी है।
लेकिन यह केवल मेरे ननिहाल की बात थी। शायद वहां शिक्षा का स्तर ऊंचा था। राजनीतिक चेतना भी अधिक थी। देश के बहुत हिस्सों में ऐसा नहीं था। वहां दलितों की स्थिति में सुधार अवश्य हुआ लेकिन सामाजिक रूप से उनकी स्वीकार्यता उतनी नहीं थी। सामने मुंह पर कोई कुछ ना बोले लेकिन पीठ पीछे तो कुछ ना कुछ कमेंट आ ही जाते थे। आए दिन समाचार पत्रों में भी पढ़ने को मिलता। किसी जाति विशेष के लोगों को बारात नहीं निकालने दी गई। किसी को घोड़े पर नहीं बैठने दिया गया। इसके अलावा हिंसा, अत्याचार और बलात्कार की घटनाएं तो हमारे इन भाइयों के परिजनों और स्त्रियों साथ होती ही थी। हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि दलित के साथ बैठकर खाना खाने से ‘जाति’ जाती है लेकिन उसकी स्त्री से बलात्कार करने से नहीं जाती।
आज हाथरस की घटना ने उन स्मृतियों को ताजा कर दिया। मुझे लगा था कि जातिवादी नफरत के यह पुरावशेष भी समय के थपेड़ों के साथ नष्ट हो जाएंगे। लेकिन यह तो और भी स्पष्ट और परिष्कृत हो चुके हैं। हाथरस की घटना इसकी पुष्टि करती प्रतीत हो रही है। दलित बेटी के साथ गैंगरेप जैसी दरिंदगी के बाद उसके परिजनों का यह कहना कि ‘हम इनके साथ बैठना-बोलना भी पसंद नहीं करते, हमारे बच्चे इनकी बेटी को छुएंगे क्या?’ मेरी आंखों में आक्रोश के आंसू लाने के लिए पर्याप्त हैं। इन्हें अब भी अपनी जातिवादी शुद्धता और श्रेष्ठता का इतना घमंड है। जिनकी संतानों ने सारी मानवता के मुंह पर कालिख पोत दी है।।। उनके छातियां अभी भी जातिवादी श्रेष्ठता के गर्व से फूली हुई हैं। लेकिन इसमें इनकी गलती नहीं है हमारे देश की अदालत में भी तो यही मानती हैं। 1992 में 22 सितंबर को राजस्थान के भटेरी में भंवरी देवी के साथ बलात्कार के बाद निचले कोर्ट का यह निष्कर्ष था कि।।
– गांव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता।
– अलग-अलग जाति के पुरुष गैंग रेप में शामिल नहीं हो सकते।
– 60-70 साल के बुजुर्ग रेप नहीं कर सकते।
– एक पुरुष अपने किसी रिश्तेदार के सामने रेप नहीं कर सकता।
– अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला का रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह अशुद्ध होती है।
जिस देश के न्यायालय के निर्णय में ही पिछड़ी जाति की एक स्त्री को अशुद्ध कहा जा रहा है। वहां के लोगों की मानसिकता कैसी होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। भंवरी देवी के बाद से लेकर आज तक कुछ नहीं बदला। हाथरस कांड में भी उन सवर्ण लोगों ने यही घिनौना तर्क दिया है कि हम दलित स्त्री को स्पर्श तक नहीं कर सकते। जातिवादी नफरत आज भी बचाव का हथियार बन रही है।
यूं तो भारत के ग्रामीण अंचलों में ऊंच-नीच का यह भेदभाव किसी ना किसी रूप में अभी भी उपस्थित है, लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार में विशेष रूप से हर जाति अपने से निम्न जाति की तलाश कर ही लेती है, शोषण और अत्याचार के लिए। इसमें भी सवर्ण जातियों के अत्याचार की कहानी बहुत लंबी और शर्मनाक है। आए दिन इस तरह की घटनाएं सुनाई पड़ रही हैं। हमारे देश की राजनीति भी इस जातिवादी नफरत को जिंदा रखना चाहती है, क्योंकि यह उनके वोट बैंक का साधन है। हाथरस की घटना के बाद यह स्पष्ट दिखने लगा है कि उत्तरप्रदेश में आने वाले चुनाव से पहले जातिवाद की आंधी चलने वाली है। इस घटनाक्रम में कुछ और अलग तरह की दुखद घटनाएं जुड़ जाएंगी जो चुनाव के समय मुद्दा बनकर बाद में सुर्खियों से गायब हो जाएंगी।
एक समय था जब जातियां हमारे देश में स्वरोजगार और आजीविका से जुड़ी हुई थी। यह ऐसी व्यवस्था थी जिसमें हर हाथ को उसकी योग्यता के अनुसार काम दिया जाता था। यह हमारी आर्थिक प्रणाली का एक बेहद परिष्कृत रूप था लेकिन ना जाने कैसे यह उतना ही विकृत हो गया। जाने कब उन लोगों को हीन समझा जाने लगा जो समाज के लिए सबसे उपयोगी काम करते थे। जो समाज को स्वच्छ रखते थे। बीमारियों से बचाते थे। समाज के लिए उपयोगी वस्तुओं और जीवन को आसान करने वाली सामग्री का निर्माण करते थे। खेतों में काम करते थे। वनोपज लाते थे। चमड़े – मांस के व्यापार में लगे हुए थे और गरीबों के प्रोटीन की व्यवस्था करते थे। उन सब महत्वपूर्ण लोगों को हाशिए पर धकेल दिया गया। उनकी आजीविका ही उनके लिए अभिशाप बन गई। वे अछूत हो गए। उनकी परछाई से नफरत की जाने लगी। उनका शोषण और उन पर अत्याचार एक शक्तिशाली वर्ग ने अपना विशेषाधिकार समझ लिया। बाबा साहब अंबेडकर का संविधान बना तो लगा कि देर-सवेर इससे मुक्ति मिलेगी। लेकिन यह जातिवादी नफरत हमारे अवचेतन में घुस चुकी है। आसानी से बेदखल होने वाली नहीं है। एक बाबा अंबेडकर या एक ज्योतिबा फुले या एक महात्मा गांधी जो राजनीति से ऊपर कुछ करके दिखाने की हिम्मत रखता हो आज जरुरी है।