उद्योगों और उनसे खडी की जाने वाली पूंजी का ताजा शिकार खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग हुआ है। इस प्रक्रिया में पहले खाद्य पदार्थों को बाजार के लिहाज से चमकदार बनाने के लिए उनकी पौष्टिकता कम या खत्म की जाती है और फिर उन्हें पौष्टिक बनाने की खातिर उनमें तरह-तरह के कृत्रिम तत्व डाले जाते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं में अकूत पूंजी बनाई जाती है। अलबत्ता, इनसे सहज भोजन किस तरह प्रभावित होता है?
खाद्य-प्रसंस्करण या फूड-प्रोसेसिंग उद्योग की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है जिसे महात्मा गांधी ने बहुत पहले पहचान लिया था। उन्होंने इसे समुचित महत्त्व दिया था व अपने साथियों के सहयोग से इसके लिए उचित मार्ग निर्धारित किया था। उन्होंने वह राह अपनाई थी जिससे पोषण व स्वास्थ्य की भरपूर रक्षा व वृद्धि हो सके, किसान व उपभोक्ता दोनों की भलाई हो, खाद्य-प्रसंस्करण के कार्यों में गांव तथा कस्बे के स्तर पर भरपूर रोजगार सृजन हो तथा अवशेष के रूप में स्थानीय पशुओं को भी पोषक खली आदि खाद्य मिलते रहें।
महात्मा गांधी की बताई राह हर दृष्टि से देश के स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार सृजन, कृषि व पशुधन विकास के लिए टिकाऊ और कल्याणकारी है। इसके बावजूद इसे लगभग पूरी तरह त्याग कर हमारे देश ने खाद्य-प्रसंस्करण या फूड-प्रोसेसिंग की ऐसी राह अपना ली है जिसमें सरकार के हजारों करोड़ रुपए तबाह होने के साथ-साथ स्वास्थ्य, पोषण, कृषि, पशुधन, रोजगार सृजन सभी की क्षति हो रही है।
संक्षेप में कहें तो इस नीति के अंतर्गत पहले तो खाद्यों से उनके प्राकृतिक रूप में उपलब्ध पौष्टिक तत्व हटा दिए जाते हैं, फिर सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च कर उनमें कुछ ऐसी तरह से कृत्रिम पौष्टिक तत्व डलवाती है जिससे कई तरह की क्षति हो सकती है। जो प्राकृतिक पौष्टिक तत्व हटाए जाते हैं उनकी पूर्ति कृत्रिम तत्त्वों से नहीं हो सकती है, अपितु विशेष स्थितियों में कृत्रिम तत्त्वों से क्षति भी हो सकती है।
इसका एक उदाहरण है धान से चावल प्राप्त करते समय मिल में अत्यधिक पॉलिशिंग करना जिससे चावल के अधिक पोषक तत्त्व अलग हो जाते हैं। इससे मिल मालिकों को दो तरह से लाभ मिलता है। एक ओर तो वे अधिक पौष्टिक तत्त्व को अधिक बड़े बाजार में, कई बार निर्यात के लिए, ऊंची कीमत पर बेच सकते हैं। दूसरी ओर, सफेद चावल की अधिक कीमत भी वसूल सकते हैं, जबकि इसके मूल्यवान पोषण तत्त्व पहले ही अलग हो चुके होते हैं।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। अब सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च करके इस सफेद चावल में कृत्रिम तौर पर पौष्टिक तत्त्व मिलाने की पहल कर रही है। तकनीकी भाषा में इसे ‘फोर्टीफिकेशन’ कहा जाता है। विश्व स्तर की बड़ी कंपनियों ने कब से इसके लिए जोर लगाया हुआ था कि किसी तरह यह बहुत बड़ा बिजनेस हमें भारत में मिल जाए और अब इस उपलब्धि पर इन्हें बहुत खुशी हो रही है। इस तरह जहां देश में इतना कुपोषण है, वहां हजारों करोड़ रुपए सरकार बर्बाद करती है। इस पूरी प्रक्रिया में केवल एक सोच हावी है कि किसी तरह बड़े बिजनेस को लाभ पहुंचाया जाए।
इसी तरह खाद्य तेलों के मामले में ग्रामीण स्तर के कुटीर उद्योगों को बेरोजगार किया जा रहा है और बड़े व्यापारियों को लाभ दिया जा रहा है। सरसों, मूंगफली, तिल, नारियल आदि के तेल की लघु इकाईयों के लिए अवसर कम होते गए हैं। सरकार की नीति यह है कि उन तेल के स्रोतों को आगे लाएं जिनकी प्रोसेसिंग कुटीर उद्योग में न हो, ताकि मुनाफा व बिजनेस बड़े उद्योगों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिले। इसी सोच के साथ सोयबीन को आगे बढ़ाकर परंपरागत तिलहन को पीछे किया गया व इसी सोच के अंतर्गत अब पॉम-ऑयल को और भी तेजी से बढ़ाकर परंपरागत तिलहनों और उन पर आधारित कुटीर उद्योगों को पीछे धकेला जा रहा है।
जब गांवों-कस्बों में परंपरागत तिलहन से खाद्य तेल प्राप्त किया जाता है तो खली स्थानीय पशुओं के लिए बचती है, जबकि बड़ी फैक्ट्रियों में प्रसंस्करण से प्राप्त अवशेष तो प्रायः निर्यात हो जाते हैं। जब बड़े उद्योग हाईड्रोजनेशन की प्रक्रिया से खाद्य तेल तैयार करते हैं तो इसमें पोषक तत्त्वों का भारी विनाश करते हैं व हाईड्रोजनेटिड तेल (जिसे चालू भाषा में लोग डालडा या वनस्पति तेल कह देते हैं, जबकि ये दोनों नाम अनुचित हैं) से पोषक तत्त्व हानिकारक तत्त्वों में बदल जाते हैं।
इस समय ‘जंक फुड’ की भरमार है, जबकि प्राकृतिक पोषक गुणों के खाद्य उपलब्ध करवाने पर सरकार न्यूनतम ध्यान दे रही है। अब सरकारी नीति न तो किसान की हितकारी है न उपभोक्ता की, न कुटीर उद्योग की न खादी की, वह तो केवल बड़े बिजनेस व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साध रही है। हमें समझना चाहिए कि इससे पोषण व स्वास्थ्य की, कृषि व पशुधन की, कुटीर उद्योगों की, खादी व स्वदेशी की मूल भावना की कितनी बड़ी क्षति हो रही है। अब समय आ गया है कि पुरानी व नई गलतियों को सही करने के लिए व खाद्य प्रसंस्करण को सुधारने के लिए एक व्यापक जन-अभियान के रूप में प्रयास किए जाए। (सप्रेस)
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