जंगल की कटाई की जगह वृक्ष-रोपड़ संस्कृति हमारे जीवन का हिस्सा हो। उनकी देखरेख की संस्कृति हमारे जीवन की संस्कृति बने। यह तभी होगा जब हमारी विश्वास की सघनता बढ़ेगी इस प्रकृति से, जल से और हमारे जलवायु से। यह तभी होगा जब हम अपनी नवोदित पीढ़ी में भी प्रकृति से प्रेम करने का बीज अंकुरित कर सकेंगे। ऐसा करने पर, एक अहिंसक सुखद यात्रा का मनुष्य तभी भागीदार बन सकेगा जब हमारे जीवन में हमारे जीवन के संबल होंगे।
आजादी की लड़ाई की शुरुआत की बात है। गांधीजी ने ‘असहयोग आंदोलन’ का आह्वान किया था। वैसी देशव्यापी हड़ताल इतिहास में कभी देखी नहीं गई थी ! लगने लगा था कि अंग्रेजों के पांव उखड़ जाएंगे, लेकिन तभी गांधीजी ने अचानक पूरा आंदोलन वापस ले लिया। जैसे मंजिल पर पहुंचते-पहुंचते कोई वापस लौट चला हो। हुआ इतना ही था कि उत्तरप्रदेश के चौराचौरी में आंदोलनकारियों ने एक पुलिस चौकी फूंक दी थी तथा कई सिपाही उसमें जलकर मर गए थे। गांधीजी ने कहा था : परिणाम का पूरा विचार किए बिना ऐसा आंदोलन छेड़ना मेरी भूल थी – ‘हिमालयन ब्लंडर!’ – हिमालय जितनी बड़ी भूल !
गांधीजी का मतलब जो भी रहा हो, लेकिन मुझे लगता है ‘हिमालयन ब्लंडर’ बड़ी जगहों पर बैठे, बड़े लोगों की उस बड़ी गलती का नाम है जिसका दुष्प्रभाव बड़े पैमाने पर और लंबे समय तक बना रहता है। अब आज की लें तो लोग भले बड़े न हों, गलतियां तो हिमालय सरीखी हो ही रही हैं। मोदी सरकार के दस साल पूरे हो रहे हैं। इस सरकार की नाकामियों का जब आंकलन करती हूं तो हिमालय सरीखी भूलों की सूची लंबी ही होती जाती है। अभी उनमें से कुछ का जिक्र करूंगी।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 1 : इस सरकार का शुरुआती फैसला ही भयानक था जिसे देश आज तक भुगत रहा है। आठ नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी! देश की नसों में दौड़ने वाली 86% करेंसी को रातों-रात अवैध घोषित कर दिया गया। पहले कहा गया कि यह आतंकवाद, काला-धन, नकली नोट आदि को खत्म करने के लिए है। जब दांव उल्टा पड़ा तो कई बार, कई नए कारण गढ़े गए – कभी ‘डिजीटाईजेशन,’ कभी कागज की करेंसी रोकना आदि।
आज 10 साल बाद व्यवस्था में नगद करेंसी दुगने से भी ज्यादा है। काला धन चरम पर है और आतंकवादी हर संभव मौके पर वार करते ही जाते हैं। तो सारे दावे खोखले साबित हुए। नोटबंदी के परिणाम इससे भी भयानक हुए। भारत का 80% से ज्यादा रोजगार असंगठित क्षेत्र से आता है, मतलब उन छोटी-छोटी दुकानों-कारख़ानों से आता है जिन्हें नोटबंदी ने हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 2 : नोटबंदी ने आर्थिक ढांचा चरमरा दिया तो कोविड के दौरान हुई ‘देशबंदी’ ने उसे जड़ से ही उखाड़ दिया। नोटबंदी ने दूर-दराज के गांवों के रोजगार छीने, ‘देशबंदी’ में शहरों के करोडों रोजगारों की हत्या हो गई। इन नीतियों ने देश के विकास के 10 साल छीन लिये। आने वाले वर्षों में यदि भारत में लोकतंत्र बचा रहा तो ये 10 साल देश के इतिहास के ‘लुप्त दशक’ (Lost Decade) माने जाएंगे।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 3 : देश का साम्प्रदायिक ताना-बाना जिस तरह तोड़ दिया गया है उस नुकसान की भरपाई तो कैसे होगी, समझ पाना कठिन है। शक, नफरत और अपमान किसी भी समाज को तोड़ देता है। हमारा समाज तो कितने धर्मों-भाषाओं-परंपराओं की विभिन्नताओं को संभालकर चलना सीख रहा था कि आपने उसकी जड़ में ही मट्ठा डाल दिया ! सारी दुनिया के समाजों में जैसी भयंकर टूट हुई है, हम उससे बचे थे। अब हम भी उसी आग में झुलस रहे हैं।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 4 : मोदी-राज में भारत की राजनयिक कूटनीति को गहरा आघात पहुंचा है। अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के राजनयिक संबंध खराब हुए हैं। पाकिस्तान को तो हमने ही मजा चखाने के नाम पर दूर कर दिया। अफ़ग़ानिस्तान, जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और पाकिस्तान के संदर्भ में भारत का सहयोगी रहा है, अब उसका दूतावास भी भारत में नहीं है। बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका का आर्थिक तंत्र धीरे-धीरे चीन के अधीन होता चला गया है। अब मालदीव का नाम भी इसमें जुड़ गया है।
दुनिया की नज़र में भारत अमेरिका-परस्त होकर रह गया है। कनाडा, मलेशिया जैसे देशों में भारत की कूटनीतिक फ़ज़ीहत हुई है। अभी चीन को छोड दें, जिसने हमारी जमीन हड़प ली है। एक तरफ भारत का बाजार दुनिया को आकर्षित कर रहा है तो दूसरी तरफ देश के लोकतंत्र को कमजोर कर हम दुनिया में चीन का मजबूत विकल्प बनकर उभरने का मौका खो रहे हैं ! भारत की राजनयिक कूटनीति की विफलता ही है कि आज हम किसी भी महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदारी का हिस्सा नहीं है !
हिमालय सरीखी भूल नंबर 5 : शिक्षा का हमारा पूरा तंत्र पहले ही सड़ा-गला था, अब उसमें सांप्रदायिकता का ऐसा जहर मिला दिया गया है कि वह शिक्षा और समाज को बर्बाद कर देगी। एकाधिकार शाही के बिना सांप्रदायिकता जी ही नहीं सकती। एक संस्था का सर्वे बताता है कि 80% से ज्यादा भारतीय आज लोकतंत्र नहीं, तानाशाही चाहते हैं। कहां हमारी कोशिश एक लोकतांत्रिक, सर्वधर्म-समभावी समाज बनाने की थी और कहां हम तानाशाही की चाहत रखने वाला सांप्रदायिक समाज बना रहे हैं। न्यायपालिका हो, चुनाव आयोग हो कि मीडिया हो, सब अर्थहीन होते जा रहे हैं।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 6 : खोखले शब्दों से न देश चलते हैं, न समाज बनता है। ‘नारी वंदन’ जैसी वाहियात उपमा के साथ जो काम मोदी सरकार ने किया है उसका नतीजा यह है कि स्त्रियों की सुरक्षा व सम्मान मजाक बन गया है। बलात्कारी सम्मानित किए जा रहे हैं, उन्हें शासन-प्रशासन में बड़ी जगहें मिल रही हैं, उनके पक्ष में रास्तों पर भारत का झंडा लेकर रैलियां निकलती हैं, उन पर से मुकदमे उठाए जा रहे हैं, उन्हें रिहाई मिल रही है! समारोहों से नहीं, समाज का मन कैसा बन रहा है, उस पर लड़कियों की स्थिति का आंकलन करें तो ऐसी खबरें तथा उनके प्रति सरकार का रवैया निहायत चिंताजनक है।
हिमालय सरीखी भूल नंबर 7 : सरकार ने आते ही 2015 में ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ को इस तरह बदल दिया कि सारे देश में भूमि की लूट चल पड़ी। ‘पर्यावरण संवर्धन क़ानून’ ऐसा बदला कि अब कोई क़ानून बचा ही नहीं है। प्राकृतिक आपदाएं हमें सब तरफ से घेर रही हैं। लंबी-चौड़ी सड़कें, हवाई अड्डे, विशालकाय मंदिरों व आरामगाहों की आड़ में यह विनाश छिपाया नहीं जा सकता। लद्दाख में सोनम वांग्चुक अनशन पर बैठे हैं कि पर्यावरण की बाजारू लूट के प्रति लोग सतर्क हों ! हिमालय के तराई इलाक़ों में बढ़ रही आपदा सारे देश को संकट में डालेगी। असल में भारत जैसे विशाल व विविधता वाले देश को संभालने की समझ व योग्यता का अभाव है मोदी सरकार में। गांधीजी ने अपनी हिमालय सरीखी गलती स्वीकार की तो सफल होता आंदोलन वापस खींच लिया। एक समय इंदिरा गांधी को भी अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने इमर्जेंसी खत्म की और देश ने अपना लोकतंत्र चुन लिया। हिमालय-सी गलती का एक मतलब यह है कि भूल करने वाला उसे कबूल करे और सुधारे। क्या मोदी-सरकार और उसके भक्तों को इन हिमालय-सी भूलों का अहसास भी है? 2024 का राष्ट्रीय चुनाव भी यही पूछ रहा है। अगर सरकार को अहसास नहीं है तो जनता को तो होना ही चाहिए। देश को बचाने के ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। (सप्रेस)
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