इन दिनों देश में विकास का प्रकृति, पर्यावरण के साथ जबरदस्त संघर्ष चल रहा है। मानो एक युद्ध ही अनवरत चल रहा हो। आज की इन परिस्थितियों में ’विकास’ हमारी दुनिया का सबसे अधिक भ्रमपूर्ण शब्द बन गया है। आँखों को चौधिया देने वाली विकास की चमक हमें इतना अंधा बना रही है कि हम नहीं देख पाते कि हम स्वयं अपनी जड़ों को ही उखाड़ रहे है। हवा में बन रहे एक महल की रचना के ख्याल में अपने घर की ईटें उतार रहे है।
हिमालय एक अत्यन्त नाजुक पर्वतमाला है, यह एक स्पष्ट सत्य है। वहीं यह भी उतना ही सत्य है कि हिमालय में खड़ा प्रत्येक हरा पेड़ देश का स्थायी प्रहरी है। हिमालय के गर्भ में जबरदस्त हलचल है जिसे प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री प्रो. के. एस वल्दिया कहते हैं, ’’एशिया महाद्वीप और भारतीय भूखण्ड के बीच विस्तीर्ण हिमालय में विवर्तनिक हाहाकार चल रहे हैं’। ’ये हलचल अनेक भ्रंशों का निर्माण करती हैं, इन भ्रंशों के तनाव को भूकम्पों के रूप में बाहर निकलना होता है, ऐसी इस हिमालय की धरती में जहाँ छोटे भूकम्पों की संभावना तो हमेशा बनी रहती है, कालान्तर में किसी महाभूकम्प का आना भी अनिवार्य रहता है, यहाँ की घाटियों और पर्वतों के ऊपर बसने वाले इन्सान को अपने जीवित रहने के लिए प्रकृति से सहयोग का बर्ताव ही करना पड़ता हैं।
उत्तराखण्ड भूकम्पों से टूटी-फूटी चट्टानों को संभाले हुए हिमालय का ऐसा ही भाग है, इसका अधिकांश भाग इसी कारण भूस्खलन प्रवण-क्षेत्र है, ज्यों ही इसकी भूमि चट्टानों और वनसम्पदा (जो यहाँ की मिट्टी को और भूमिगत जल को तो थामे रहती ही है, बाढ़ों की विशाल जलराशि और हिमखण्डों के धक्कों से जन जीवन को भी सुरक्षा देती है) से छेड़छाड़ होती है। भूस्खलनों की अन्तहीन घटनाएँ मानव-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है, छेड़छाड़ का अर्थ है, हरे वृक्षों का पालन (कटान), अन्धाधुन्ध सड़कों के निर्माण के लिए पहाड़ों का कटान, सुरंगों के निर्माण के लिए शक्तिशाली विस्फोटकों का उपयोग और खनिजों के लिए खानों का खुदान।
दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी अनियंत्रित कार्यवाहियों को ’विकास’ कहा जाता है, उत्तराखण्ड़ में ऑल वैदर रोड़ के अन्तर्गत हो रहा सड़कों का चौड़ीकरण और इन सड़कों के निर्माण का अत्यन्त संवेदनहीन अवैज्ञानिक तरीका विकास और राष्ट्र-सुरक्षा के नाम पर की जा रही भयंकर छेड़छाड़ ही है। केन्द्र सरकार की चार-धाम ऑल वैदर रोड़ पर योजना के तहत उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग कीचौड़ीकरण फोरलेन के मानकों पर हो रहा है, जिसके लिए हर्शिल से गंगोत्री तक के 30 कि.मी. में फैली सघन वृक्षावली में से 6 से 8 हजार हरे देवदार के वृक्षों को काटने की तैयारी उन पर छपान याने निशाने लगा कर कर ही गई है।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते गंगोत्री घाटी पूर्वापेक्षा काफी गर्म हो गई है। वहाँ अब पहले से कम बर्फबारी होती है। गंगा का प्राण श्रोत गोमुख ग्लेशियर निरन्तर टूट फिसलकर घटता जा रहा है। वह प्रतिवर्ष कई मीटर पीछे खिसक जाता है। ऐसी स्थिति में उक्त 30 कि. मी. में फैले घाटी के एकमात्र वन के हजारों हरे वृक्षों को काटना ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को और भी तीव्रता देने की गलती साबित होगा, क्योंकि वृक्षों की हरीतिमा वायुमण्डल को शीतलता देती है। गोमुख और पास के अन्य ग्लेशियरों का पिघलना एक दिन गंगा के उद्गम श्रोत को इतना क्षीण कर देगा कि गंगा के अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह खड़ा हो जायेगा।
ऐसे परिस्थतिकीय प्रश्नों के साथ-साथ एक अत्यन्त व्यवहारिक प्रश्न भी सड़क निर्माण तथा सड़क चैड़ीकरण की निर्माण पद्धति ने प्रस्तुत कर दिया है। हमने गंगोत्री घाटी बॉडर रोड आगेनाइजेश न (बी. आर. ओ.) को शक्तिशाली विस्फोटकों से बड़ी-बड़ी चट्टानों की धराशायी करते देखा था। एक बारगी पहाड़ हिल गया था। इससे निकले विशाल बोल्डरों व मिट्टी-मलुआ सबको सड़क किनारे के ढलान पर लुढ़का दिया गया था, जो भागीरथी के जल में जाकर अड़ गये थे। भागीरथी का जल मटमैला हो गया था। उसके किनारों पर मलुबा के बड़े-बड़े ढेर खड़े हो गये थे जो हिमालयी मूसलाधार वर्षा या बादल फटने पर नदी में बढ़ने वाले पानी के आकार;टवसनउमद्धको दसियों गुना बढ़ाकर गंगा के किनारे बसे नगरों-गाँवों, वहाँ के पशुओं-मानवों, खेतों व करोड़ों रुपयों की लागत से बनी सड़कों पर ऐसा कहर बरपा करेगा कि कई वर्षों तक आपदा की यह मार जनसमाज को उठने नहीं देगी, क्या इसे विकास कहें?
मलुबे की यह समस्या केवल गंगोत्री घाटी की ही समस्या नहीं है। उत्तराखण्ड में प्रधानमंत्री सड़क योजना के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव को मोटर-सड़क से जोड़ने का विकास सर्वोपरि महत्व के साथ चलाया जा रहा है। इन सभी सड़कों के निर्माण का मलबा पास में बहती नदियों पर्वतीय तीव्र ढलानों, गाँवों के जलस्त्रोतों चरागाहों, घासनियों यहाँ तक की उपजाऊ फसलदार खेतों के ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानों सहित फैंक दिया जाता है, मलबा किसानों के जल, जंगल, जमीन घास, लकड़ी खेती को ही नहीं नष्ट कर रहा है वरन् इसने बस्तड़ी गाँव (जिला पिथौरागढ़) की जिन्दा बस्ती को पिछली बरसात में पूरी तरह जमींदोज कर दिया था, यह स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड में मलुबे की वैज्ञानिक व जिम्मेदार निस्तारण पद्धति के बिना सड़क निर्माण करना विकास कम विनाश ही अधिक है।
गंगोत्री घाटी की सड़क चैड़ीकरण की पद्धति के नमूने पर ही उत्तराखण्ड के तीन अन्य धामों के लिए भी औल वैहर रोड़ की योजना है, जिनके लिए करोड़ों की धनराशि आवांटित हो चुकी हैं। बद्रीनाथ की अलकनन्दा, केदारनाथ की मन्दाकिनी और यमुनोत्री की यमुना में फेंक गया निर्माण का मलुवा अन्त में गंगा में ही मिलने वाला है। उन नदियों के ग्लेशियरों सतोपंथ, खत लिंग और यमुनोत्री की दशा भी गोमुख जैसी ही होने वाली है, क्योंकि वहाँ के वन भी वैसे ही कटने वाले हैं। तब गंगा की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी योजना ’’नमामि गंगे’’की ’’अविरल निर्मल गंगा’’का लक्ष्य कैसे सिद्ध होगा?
कुमाऊ मंडल में टनकपुर-पिथौरागढ़ हाईवे 125 के चौड़ीकरण का मोड़ भी ऑल वैदर रोड़ की तरह ही है, इसमें 4600 चैड़ी पत्ती के हो वृक्षों का कटान होना है, चैड़ी पत्ती के ये वृक्ष जल संवर्धन के लिए अहम प्रजाति हैं। हिमालयी जल स्त्रोतों की घटती जल धाराओं को पुनर्जीवित करने के लिए एक ओर करोड़ों का धन व्यय किया जा रहा है, दूसरी ओर पीढ़ियों के वृक्षों को नष्ट कर दिया जा रहा है। क्या यह विरोधाभास किसी को दिखाई नहीं पड़़ रहा है?
सरकार की एक योजना अपनी ही दूसरी योजना को मिटाने का काम कर रही है। चाहे वह ’’नमामि गंगे’’ की ’अविरलता निर्मलता’ पर चोट करते घटते ग्लेशियर व मलुवे से बोझिल प्रदूषित भागीरथी गंगा हो, चाहे तेजी से घट रहे जल स्त्रोतों व नदियों के संकट से मुक्ति पाने के लिए एक और जलगम संरक्षण की परियोजनाओं पर करोड़ों की धन राशि व्यय हो और दूसरी ओर सुन्दर विकसित चैड़ी पत्ती के वृक्षों को हजारों की संख्या में कटवाने वाली मोटर रोड़ का निर्माण हो और चाहे किसान की प्रगति व आत्मनिर्भरता की कई नई-नई स्कीमें हो और उन्हीं कृश कों की जमीन, जंगल, चारागाह और जलस्रोतों को निर्दयता से दबाने वाला सड़क निर्माण का मलवा हो।
क्या ऐसे विकास पर प्रश्न नहीं उठाने चाहिए या केवल झेलते जाना चाहिए? गांधीजी के शब्दों में यह ’’पागल दौड़’’ है। विकास, विकास चिल्लाते हुए विनाश की और बेतहाशा भाग रही पागल दौड़ को रोकने के लिए यदि हम अपनी आवाज नहीं उठाते, इस मूर्ख दौड़ को रोकने की कोशिश नहीं करते है तो कल उसके भयंकर परिणामों के भागीदार हम भी होंगे। इतिहास क्या हमें माफ करेगा? इसलिए जितना संभव हो उतनी ऊँची आवाज में हर कोने से चिल्ला कर सावधान करने की आवश्यकता है। (सप्रेस)