दुनियाभर में कब्जा जमाए बैठी अश्लील गैर-बराबरी ने हर तरह के आर्थिक विचारों और उनके अमल पर चुनौती खडी कर दी है। चाहे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी या फिर मध्यमार्गी, सभी भीषण गैर-बराबरी के सामने इस हद तक नतस्तक हैं कि वे अपने-अपने नागरिकों को बिना कुछ किए वेतन देने तक की तजबीज पेश कर रहे हैं। ऐसे में विनोबा के ‘भू-दान’ की तरह क्या ‘सम्पत्ति-दान’ का तरीका आजमाया जा सकता है? क्या इस तरीके से मौजूदा गैर-बराबरी पर काबू पाया जा सकेगा?
आजादी के पहले भारत में जमींदारी प्रथा थी जिसमें राज्य और किसान के बीच जमींदार वर्ग बनाया गया था जो किसानों से मनमाना लगान वसूलकर उनका बडे पैमाने पर शोषण किया करता था। इसके विरुद्ध किसानों में आक्रोश था। किसानों के हित में कांग्रेस ने भूमि-सुधार कार्यक्रम अपनाया, उसके लिये वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार की और भारत को आजादी मिलते ही आर्थिक विषमता बढाने वाली और किसानों का शोषण करने वाली जमींदारी प्रथा समाप्त की गई। राज्यों में ‘जमींदारी उन्मूलन कानून’ और ‘भूमि सीमाबंदी कानून’ बनाये गये।
‘भूदान आंदोलन’ ने भूमि-सुधार अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अहिंसक क्रांति के विचार को जन्म दिया। यह आंदोलन एक जनक्रांति और आर्थिक समानता की दिशा में जनता द्वारा की गई महत्वपूर्ण पहल थी। ‘भूदान आंदोलन’ में 47 लाख 63 हजार 676 एकड जमीन प्राप्त हुई और उसकी आधे से अधिक जमीन बांटी गई। लाखों किसानों को जुताई के लिये जमीन का हक मिला। प्रेम के आधार पर दान प्राप्त करने की यह दुनिया की अद्भुत घटना थी। भूदान देने वाले और भूदान लेने वाले, दोनों ने प्रेम और सम्मान प्राप्तकर मानव धर्म निभाया।
‘जमींदारी उन्मूलन कानून’ के कारण लगभग 2 करोड किसानों को जमीन पर हक प्राप्त हुआ। ‘भूमि सीमाबंदी कानून’ के तहत 68 लाख 53 हजार 624 एकड भूमि अतिरिक्त घोषित हुई, उसमें से 49 लाख 64 हजार 995 एकड जमीन का वितरण किया गया। इन सभी प्रक्रियाओं में कुछ खामियां रही हैं, लेकिन इसके बावजूद आर्थिक और सामाजिक समानता की दिशा में किया गया यह अदभुत कार्य था। समाज की चेतना का जागरण और राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण यह संभव हुआ, लेकिन भूमि बंटवारे से ना किसानों की समस्या खतम हुई और ना ही आर्थिक विषमता कम हुई, क्योंकि भूमि उत्पादन का एकमात्र साधन नहीं है।
जब लोगों के उत्पादन और आय का मुख्य स्रोत कृषि भूमि था, तब जमीन का न्यायपूर्ण वितरण करके जमींदारी खतम करना जरुरी था, लेकिन अब आर्थिक समानता के लिये उत्पादन के तमाम साधनों से प्राप्त राष्ट्रीय आय का न्यायपूर्ण बंटवारा जरुरी है। भूमि-सुधार के द्वारा भूमि के न्यायपूर्ण वितरण के साथ ही संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण के उपायों की जरुरत है। उसके बिना आर्थिक समानता संभव नहीं होगी। भूदान का अगला कदम संपत्ति दान है और उस उद्देश की पूर्ति के लिये ‘ट्रस्टीशिप कानून’ और ‘संपत्ति सीमाबंदी कानून’ की जरुरत है।
आज फिर से आर्थिक विषमता के विरुद्ध आक्रोश बढता जा रहा है। सरकारें कारपोरेट जमींदारी की तरफ लौट रही हैं। औद्योगीकरण के साथ ही उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में केंद्रीकरण बढता जा रहा है। सभी प्राकृतिक संसाधनों को निजी हाथों में सौंपकर उनका बेहताशा दोहन किया जा रहा है। न्यायोचित श्रममूल्य देने की बजाय, श्रम कानून में पक्षपाती बदलाव किया जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र निजी कंपनियों को सौंपे जा रहे हैं। व्यक्ति और कंपनियों को अमर्यादित संपत्ति रखने की शक्ति दी गई है। देश और दुनिया की शोषणकारी नीतियों के कारण मनुष्य और पशुश्रम,प्राकृतिक संसाधन, टेक्नोलॉजी, मशीनीकरण आदि संपत्ति निर्माण के सभी साधनों से प्राप्त संपत्ति का लाभ केवल अमीरों और कुछ कंपनियों को मिल रहा है।
‘विश्व असमानता रिपोर्ट – 2022’ के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल संपत्ति का 76 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है, जबकि 50 प्रतिशत गरीब आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 2 प्रतिशत। दुनिया के सबसे धनी 10 प्रतिशत अमीरों का कुल आय में हिस्सा 52 प्रतिशत है, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगों का आय में हिस्सा केवल 8.5 प्रतिशत है।
भारत में एक प्रतिशत अमीरों के पास कुल ‘राष्ट्रीय आय’ का 21.7 प्रतिशत हिस्सा जाता है, 10 प्रतिशत अमीर कुल आय का 57 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करते हैं, जबकि 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में केवल 13 प्रतिशत आय आती है। भारत में करोडों लोगों के पास कमरतोड मजदूरी के अलावा जीवन-यापन करने के लिये आय का कोई साधन नहीं है। जिनके पास है, उनका भी शोषण किया जाता है। यह गुलामी की एक नई व्यवस्था है। इसे बदले बिना आर्थिक समानता संभव नहीं है।
जिनके पास संपत्ति है, वह इसलिये नहीं है कि उन पर ईश्वर की विशेष कृपा है या वे विशेष क्षमतायें लेकर पैदा हुये हैं, ताकि वे भोगवादी जीवन-यापन कर सकें, बल्कि यह एक ऐसी व्यवस्था का परिणाम है, जिसके कारण श्रम का शोषण और प्रकृति का दोहनकर उससे प्राप्त संपत्ति को धारण करने का नीतिगत और कानूनी अधिकार अमीरों को दिया गया है। उसके लिये नीतियां बनाई गई हैं और कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई है। इस व्यवस्थागत सुरक्षा को अगर हटा दिया गया तो हम सभी एक जैसे ही हैं।
इस बात का जबरदस्त प्रतिवाद करने की जरुरत है कि अमीरों के टैक्स पर गरीबों का जीवन चलता है, जबकि सच्चाई यह है कि व्यवस्था द्वारा दी गई सुरक्षा निकाल दी जाए तो श्रम करने वाले लोग सबसे अमीर दिखाई देंगे। अगर बढती आर्थिक विषमता को समाप्त करने के लिये कोई अहिंसक तरीका नहीं ढूंढा गया तो आर्थिक विषमता के खिलाफ बढता आक्रोश व्यवस्था द्वारा प्रायोजित हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा को जन्म देगा।
हम मानते हैं कि आर्थिक विषमता मानवता के प्रति अपराध है। करोडों भूखे, बेघर लोगों को सन्मानपूर्वक जीवन देना हो तो सामाजिक, आर्थिक समानता के लिये ‘संपत्ति सब रघुपति कै आही’ के तत्व को स्वीकार कर कार्यक्रम बनाना होगा। ‘संपत्ति दान’ अभियान चलाना होगा। जिस विचार के आधार पर भूमि वितरण कार्यक्रम बनाये गये, उसी विचार पर आधारित कार्यक्रम संपत्ति वितरण के लिये लागू करने होंगे।
1. ‘संपत्ति दान’ – ‘संपत्ति दान’ के विचार के आधार पर मान्य सीमा से अधिक की संपत्ति पर स्वेच्छा से वार्षिक दान आमंत्रित किया जाये और उसका वितरण लोगों के बुनियादी साधनों की आवश्यकता पूरी कराने के लिये किया जाये।
2. ‘ट्रस्टीशिप कानून’ – एक निश्चित मर्यादा से अधिक संपत्ति के लिये संपत्ति धारक को ‘ट्रस्टीशिप कानून’ लागू कर ट्रस्टी बनाया जाये, जिसमें समाज-मान्य सीमा तक संपत्ति रखने का अधिकार हो और उससे अधिक संपत्ति का उपयोग समाज के लिये किया जाये।
3. ‘संपत्ति सीमाबंदी कानून’ – संपत्ति की अधिकतम सीमा निर्धारित करके उससे अधिक संपत्ति प्राप्त होने पर इस प्रकार टैक्स लगाया जाये ताकि उसकी संपत्ति सीमा रेखा की मर्यादा में बांधी जा सके।
इन सभी से प्राप्त धन का उपयोग देश की जनता की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये किया जाये, ताकि कोई अन्न, वस्त्र, आवास के बिना नहीं रहे। उसे स्वास्थ और शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध किये जायें, रोजगार के साधन उपलब्ध कराये जायें।
इस देश की गरीबी दूर करने के लिये इससे अच्छा कोई उपाय नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के लिये रोजगार का साधन उपलब्ध कराने या ऐसा व्यक्ति जिसे रोजगार उपलब्ध नहीं कराया गया, उसे रोजगार का साधन प्राप्त होने तक ‘बेरोजगारी भत्ता’ देने की व्यवस्था करनी चाहिये। समता मूलक समाज की दिशा में पहला कदम यही है कि कम-से-कम लोगों की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी होने की व्यवस्था सभी के पास हो।
असंभव, अव्यावहारिक, यूटोपिया जैसे आरोप भूमि-सुधार के तहत ‘जमींदारी उन्मूलन,’ ‘भूदान आंदोलन,’ ‘भूमि सीमाबंदी कानून’ आदि पर भी लगे थे, लेकिन समाज ने जब निश्चय किया तो एक तूफान खडा हुआ और जमींदारी प्रथा ढह गई, ‘भूमि सीमाबंदी कानून’ लागू हुआ। ‘भूदान आंदोलन’ में किसानों ने स्वेच्छा से जमीन दान दी। इतना ही नहीं ‘भूमि सीमाबंदी कानून’ ही कृषि भूमि पर कारपोरेटी आक्रमण से किसानों की रक्षा कर रहा है। जो भूमि की सीमा बांधने के लिये संभव हुआ, वह संपत्ति की सीमा बांधने के लिये भी संभव है। देश का शोषित समाज जब इस सच्चाई को समझेगा, तब फिर से एक क्रांति जन्म लेगी। (सप्रेस)
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