नागरिकों की नाराज़गी शायद इस बात को लेकर ज़्यादा है कि उनके ‘तात्कालिक भय’ अब उन्हें एक ‘स्थायी भयावहता’ में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। बीतने वाले प्रत्येक क्षण के साथ नागरिकों को और ज़्यादा अकेला और निरीह महसूस कराया जा रहा है। जिन बची-खुची संस्थाओं की स्वायत्तता पर उनकी सांसें टिकी हुई हैं, उनकी भी ऊपर से मज़बूत दिखाई देने वाली ईंटें पीछे से दरकने लगी हैं। उनकी लाल/गुलाबी इमारतों के रंग अविश्वसनीय चेहरों की तरह बदहवास होते जा रहे हैं। नागरिक अकेले पड़ते जा रहे हैं और वे तमाम लोग जो उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्रों में लगे हैं, ज़्यादा संगठित हो रहे हैं।
बहुत सारे लोगों ने तब राय ज़ाहिर की थी कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के ‘अपराध’ में वकील प्रशांत भूषण को बजाय एक रुपया जुर्माना भरने के तीन महीने का कारावास स्वीकार करना चाहिए था। भूषण शायद कारावास मंज़ूर कर भी लेते, पर तब उन्हें तीन साल के लिए वकालत करने पर भी प्रतिबंध भुगतना पड़ता जिसे वे उनके द्वारा लड़ी जाने वाली जनहित याचिकाओं के हित में स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पाए होंगे। प्रशांत भूषण द्वारा एक रुपया जुर्माना भर कर प्रकरण से मुक्त होने का समर्थन करने वालों में मैं भी था। पर अब मुझे अब लगता है कि उन्हें जुर्माना नहीं भरना था। प्रशांत भूषण अगर अगस्त -सितम्बर में जेल चले जाते तो नवम्बर महीने का इतिहास शायद अलग हो जाता।
प्रशांत भूषण, महाराष्ट्र-दिल्ली की सत्ताओं और देश की जनता को तब ऐसी कोई कल्पना रही होगी कि अर्नब गोस्वामी नामक एक चर्चित पर विवादास्पद टीवी पत्रकार ऐसा इतिहास बनाने वाले हैं कि न्याय व्यवस्था इतनी जल्दी एक बार फिर चर्चा में आ जाएगी! अर्नब को मिली अंतरिम ज़मानत के साथ ऐसी कोई शर्त नहीं जुड़ी है कि सम्बंधित प्रकरण का निचली अदालत द्वारा अंतिम रूप से निपटारा होने तक वे अपने चैनल अथवा किसी अन्य माध्यम से ऐसा कुछ नहीं करेंगे या कहेंगे, जो अन्य व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला हो ! प्रशांत भूषण अब इस स्थिति में नहीं हैं कि अपने द्वारा जमा किए गए जुर्माने की वापसी की माँग करके दर्ज हो चुके इतिहास को बदल सकें। अब तो सारे ही इतिहास नए सिरे से लिखे जा रहे हैं।
अर्नब को जिस प्रकरण में (प्रेस की आज़ादी से जुड़े किसी मामले में नहीं) सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई करके अंतरिम ज़मानत प्रदान की गई, उसे लेकर समाज के एक वर्ग में बेचैनी है। तर्क दिए जा रहे हैं कि हज़ारों की संख्या में विचाराधीन क़ैदी महीनों/सालों से अपनी सुनवाई की प्रतीक्षा में कई दीपावलियाँ सींखचों के पीछे गुज़ार चुके हैं। (एक सोशल मीडिया जानकारी में बताया गया है कि 31 दिसम्बर, 2019 तक तीन लाख से अधिक विचाराधीन क़ैदी देश की विभिन्न जेलों में बंद थे।) एक अन्य उदाहरण यह दिया जा रहा है कि आदिवासियों के हक़ों की लड़ाई लड़ने वाले और पार्किंसंस की बीमारी से पीड़ित तिरासी वर्षीय स्टेन स्वामी को जेल में सिर्फ़ ‘सिपर’ प्राप्त करने के लिए भी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
अर्नब की ज़मानत याचिका की सुनवाई को लेकर अपनाई गई प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने भी विरोध ज़ाहिर करते हुए सवाल उठाया है कि एक तरफ़ तो जेलों में बंद हज़ारों नागरिकों की सुनवाई के लिए याचिकाएँ हफ़्तों और महीनों तक लिस्ट नहीं होती और दूसरी ओर अर्नब जब भी आवेदन करते हैं तुरंत लिस्ट हो जाती है।’ देश की बहुसंख्यक जनसंख्या और लगभग सभी राजनीतिक दल, जो कुछ चल रहा है, उस पर अगर मौन हैं तो यही माना जा सकता है कि मीडिया और ‘एक्टिविस्ट्स’ के एक छोटे से वर्ग की सोशल मीडिया पर विपरीत प्रतिक्रिया की ‘मेजोरिटी’ या सत्ता के नक्कारखाने में कोई अहमियत नहीं रह गई है।
वे तमाम लोग जो न्यायपालिका द्वारा अपनाई गई त्वरित न्याय की प्रकिया को लेकर आपत्ति दर्ज करा रहे हैं, उन्हें निश्चित ही व्यक्तिगत आज़ादी के आधार पर किसी भी नागरिक को मिलने वाले न्याय के प्रति कोई नाराज़गी होनी ही नहीं चाहिए। दूसरा यह भी कि अर्नब ने न कोई संगीन अपराध किया है और न ही वे किसी सरकार अथवा जाँच एजेन्सी की नज़रों में स्टेन स्वामी, वरवरा राव, सुधा भारद्वाज आदि जैसे कथित ‘अर्बन नक्सल’ हैं। अर्नब को आगे या पीछे रिहा होना ही था। सवाल केवल समय को लेकर है, जो कि सिर्फ़ अर्नब के ही साथ है!
नागरिकों की नाराज़गी शायद इस बात को लेकर ज़्यादा है कि उनके ‘तात्कालिक भय’ अब उन्हें एक ‘स्थायी भयावहता’ में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। बीतने वाले प्रत्येक क्षण के साथ नागरिकों को और ज़्यादा अकेला और निरीह महसूस कराया जा रहा है। जिन बची-खुची संस्थाओं की स्वायत्तता पर उनकी सांसें टिकी हुई हैं, उनकी भी ऊपर से मज़बूत दिखाई देने वाली ईंटें पीछे से दरकने लगी हैं। उनकी लाल/गुलाबी इमारतों के रंग अविश्वसनीय चेहरों की तरह बदहवास होते जा रहे हैं। नागरिक अकेले पड़ते जा रहे हैं और वे तमाम लोग जो उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्रों में लगे हैं, ज़्यादा संगठित हो रहे हैं। उनके समूह, जिन्हें कि वे क्लब, ग्रुप या ऑर्गनाइजेशन कहते हैं, पहले से कहीं अधिक मज़बूत हो रहे हैं।
क्या कोई ऐसी स्थिति ज़्यादा ख़तरनाक नहीं होगी कि अब अल्पसंख्यक वे नहीं माने जाएँ, जो धार्मिक सम्प्रदायों के आधार पर तुलनात्मक दृष्टि से संख्या में कम हैं बल्कि वे माने जाएँ जो वैचारिक रूप से एकाधिकारवादी धर्म, संवैधानेत्तर राजनीति और व्यक्तिपरक न्याय व्यवस्था के विरोध में अपनी मौन असहमति व्यक्त करने का भी साहस करेंगे ? अतः वे तमाम लोग, जो इस समय आपत्ति दर्ज करा रहे हैं उन्हें इस उपलब्धि को ही अंतिम सत्य मान लेने का साहस जुटा लेना चाहिए कि अर्नब गोस्वामी की निजी स्वतंत्रता की सुरक्षा में ही अब प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत आज़ादी भी समाहित कर दी गई है। अर्नब गोस्वामी की ज़मानत याचिका पर अनपेक्षित तीव्रता से विचार का सर्वोच्च अदालत की ओर से यही जवाब अंतिम माना जाना चाहिए कि ’अगर इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप नहीं करेंगे तो विनाश के रास्ते पर चलने लगेंगे।’ अर्नब पर तो आम आरोप यही है कि वे नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर भी हमला करते रहते हैं।हमारा सवाल भी यही है कि आम आदमी जिस अवमानना और अपमान को आए दिन बर्दाश्त करता रहता है उसके ख़िलाफ़ त्वरित सुनवाई देश की किस अदालत में कब प्रारम्भ होगी ?
पुनश्च: जो अद्भुत क्षण प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण ने अपने हाथों से फिसल जाने दिया था उसे एक अपेक्षाकृत कम पॉप्युलर आम आदमी के स्टैंड अप कामेडियन कुणाल कामरा ने पकड़ लिया है।दे श के अटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कथित रूप से अपमानजनक ट्वीट करने के लिए कामरा पर न्यायालय की अवमानना का मामला चलाने की अनुमति प्रदान कर दी है। इसके बाद कामरा ने ट्वीटर पर बयान जारी करते हुए कहा कि वे इस मामले में न तो कोई माफ़ी मांगेंगे और न ही अदालत में अपना पक्ष रखने के लिए किसी वकील की सेवाएं ही लेंगे।अर्नब की अंतरिम ज़मानत के बाद कामरा ने ऐसे ट्वीट जारी किए थे जिन्हें उनके ख़िलाफ़ दायर एक याचिका में न्यायमूर्ति डी वाय चंद्रचूड़ के प्रति अपमानजनक बताया गया है।
[block rendering halted]