
अखबारों में भले ही ‘तीन ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था’ बताकर हमारे देश को आर्थिक रूप से श्रेष्ठ देशों की पंक्ति में शामिल बताया जाता हो, लेकिन मैदानी हालात खस्ता हैं। इसकी बानगी के लिए इतना जानना ही काफी है कि देश की अस्सी फीसदी आबादी पांच किलो अनाज की सरकारी इमदाद के भरोसे अपने दिन काट रही है। क्या है, यह गफलत? सरकार और उसके कारिंदे कहां चूक रहे हैं?
भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय गहरे संकट में है। सरकार के नीति-निर्माण में असंतुलन, कर्ज का बढ़ता बोझ और सरकार संरक्षित पूंजीवाद (Crony Capitalism) के कारण प्रतिस्पर्धा और आत्मनिर्भरता दोनों प्रभावित हो रहे हैं। 80% से अधिक ‘GDP’ (सकल घरेलू उत्पाद) के बराबर कर्ज और नीति निर्माण में बड़े कॉरपोरेट समूहों की बढ़ती पकड़ ने देश की आर्थिक संप्रभुता को खतरे में डाल दिया है।
सरकार एक ओर निजीकरण और विनिवेश के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को बेचना चाहती है, जबकि दूसरी ओर कृषि जैसे बुनियादी क्षेत्रों को बड़े औद्योगिक घरानों के हवाले करने की कोशिश कर रही है। ये नीतियाँ न केवल आम जनता के लिए आर्थिक असुरक्षा पैदा कर रही हैं, बल्कि देश की प्रतिस्पर्धी क्षमता को भी कमजोर कर रही हैं।
बढ़ता कर्ज और सरकारी संरक्षणवाद
जर्मन ऑनलाइन प्लैटफॉर्म ‘स्टैटिस्टा’ के अनुसार, भारत का राष्ट्रीय कर्ज 2020 में 88.43% ‘जीडीपी’ तक पहुंच गया था, जो अब भी 80% से अधिक बना हुआ है। सरकार लगातार यह दावा कर रही है कि अर्थव्यवस्था सुधार की ओर बढ़ रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकारी नीतियाँ कुछ विशेष औद्योगिक समूहों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई जा रही हैं, न कि आम जनता या ‘लघु-मध्यम उद्यमों’ (MSME ) के हित में।
सरकारी बैंक और कंपनियाँ घाटे में बताकर बेची जा रही हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वाले उद्योगपतियों को सस्ते ऋण और टैक्स में छूट दी जा रही है। रेलवे, तेल कंपनियाँ, टेलीकॉम और एयरपोर्ट जैसे बुनियादी ढांचों को कुछ खास समूहों के हाथों बेचा जा रहा है, जिससे बाजार में प्रतिस्पर्धा खत्म हो रही है। छोटे व्यापारियों और किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है, जबकि बड़े उद्योगपतियों को अरबों की टैक्स रियायतें दी जा रही हैं।
सरकार बार-बार कहती है कि सार्वजनिक उपक्रम घाटे में हैं, लेकिन क्या सच में ऐसा है? ‘बीपीसीएल,’ ‘एलआईसी,’ ‘रेलवे,’ ‘एसएआईएल’ और अन्य कंपनियों को या तो बेचा जा रहा है या उनके संसाधन निजी हाथों में दिए जा रहे हैं। सरकारी संपत्तियों की बिक्री से जो पैसा आ रहा है, वह मौजूदा कर्ज चुकाने में इस्तेमाल नहीं हो रहा, बल्कि कॉर्पोरेट टैक्स छूट देने और सरकारी खर्च बढ़ाने में इस्तेमाल हो रहा है। बाजार में प्रतिस्पर्धा खत्म हो रही है, क्योंकि सरकारी संरक्षण प्राप्त निजी कंपनियाँ मनमाने दाम वसूल रही हैं। सवाल वही है कि यह निजीकरण की नीति है या बड़े कॉरपोरेट समूहों को फायदा पहुँचाने का तरीका?
किसानों को बाजार के हवाले करने की कोशिश
तीन कृषि कानूनों को जबरदस्ती लागू करने की कोशिश सरकार की नवउदारवादी सोच और पूंजीपतियों की लॉबी का स्पष्ट प्रमाण थी। ये कानून किसान आंदोलन के दबाव में वापस लिए गए, लेकिन सरकार अब भी कृषि सेक्टर में बड़े उद्योगपतियों को प्रवेश दिलाने की कोशिश कर रही है। ‘MSP’ (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की कानूनी गारंटी नहीं दी जा रही, ताकि किसान मजबूरी में निजी कंपनियों को अपनी उपज बेचें। कृषि को ठेके की खेती के हवाले करने की योजनाएँ अब भी जारी हैं, जिससे छोटे किसान बिचौलियों और बड़ी कंपनियों पर निर्भर हो जाएंगे। सरकार ने ‘FCI’ (भारतीय खाद्य निगम) का बजट लगातार घटाया है, जिससे सरकारी खरीद कमजोर हुई और किसान खुले बाजार में जाने को मजबूर हुए।
किसान विरोधी नीतियाँ क्यों ख़तरनाक हैं?
1. खाद्य सुरक्षा पर खतरा: अगर कृषि उत्पादन पूरी तरह बाजार के हाथ में आ गया, तो खाद्य पदार्थों की कीमतें निजी कंपनियाँ तय करेंगी, जिससे गरीबों के लिए अनाज महंगा हो जाएगा।
2. छोटे किसानों की बर्बादी: भारत में 86% से अधिक किसान लघु या सीमांत श्रेणी के हैं। बड़े कॉरपोरेट के साथ प्रतिस्पर्धा में वे टिक नहीं पाएंगे।
3. भूमि अधिग्रहण और विस्थापन: कॉरपोरेट खेती के बढ़ने से गाँवों में जमीनें उद्योगपतियों के हाथों में जाएँगी, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था खत्म हो जाएगी।
अगर सरकार सच में किसानों का भला चाहती है, तो उसे ‘एमएसपी’ की कानूनी गारंटी देनी होगी, ‘एफसीआई’ को मजबूत करना होगा, ताकि सरकारी खरीद में कोई गिरावट न हो। कृषि आधारित छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना होगा, जिससे किसान आत्मनिर्भर बनें।
प्रतिस्पर्धी बाजार को कमजोर करने की साजिश
सच्चे प्रतिस्पर्धी बाजार का अर्थ है कि कोई भी नया व्यवसायी बिना किसी भेदभाव के बाजार में प्रवेश कर सके और उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले, लेकिन भारत में सरकार खुद ही कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों को बाजार पर कब्जा करने में मदद कर रही है। टेलीकॉम सेक्टर में सिर्फ दो-तीन कंपनियाँ ही बची हैं, क्योंकि अन्य कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया गया है। एयरपोर्ट, हाईवे, रेलवे, बिजली उत्पादन और शिपिंग जैसे क्षेत्रों में एकाधिकार बनाने की कोशिश की जा रही है। बैंकों से कर्ज माफ़ी और टैक्स छूट केवल कुछ बड़े व्यापारिक समूहों को दी जाती है, जबकि छोटे व्यापारियों को लोन भी नहीं मिलता।
इसका खतरा क्या है?
1. महँगाई बढ़ेगी, क्योंकि कम प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियाँ मनमाने दाम वसूलेंगी।
2. नए बिज़नेस शुरू करना मुश्किल होगा, क्योंकि नए व्यवसायियों को बड़े कॉरपोरेट के साथ मुकाबला करना असंभव होगा।
3. रोजगार कम होंगे, क्योंकि बड़े औद्योगिक समूह मशीनों और स्वचालन (ऑटोमेशन) पर निर्भर रहेंगे, जिससे नौकरियाँ घटेंगी।
सरकार अगर सच में मुक्त बाजार और प्रतिस्पर्धा चाहती है, तो उसे छोटे और मध्यम व्यापारियों को भी समान अवसर देने होंगे। एकाधिकारवाद को खत्म करने के लिए नियम और कानून सख्त करने होंगे। सरकारी बैंकों को सिर्फ बड़े उद्योगपतियों के लिए इस्तेमाल करने की नीति बंद करनी होगी।
और अंत में
भारत की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है, लेकिन इस संकट का कारण कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि सरकारी नीतियाँ और कॉरपोरेट संरक्षणवाद है। सरकार जिन सुधारों की बात कर रही है, वे वास्तव में सिर्फ कुछ गिने-चुने उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए बनाए गए हैं।
निजीकरण का विरोध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह सार्वजनिक संसाधनों की लूट है। कृषि क्षेत्र में बड़े कॉरपोरेट्स की घुसपैठ को रोका जाना चाहिए, ताकि किसान बिचौलियों का शिकार न बनें। निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए बड़े उद्योगपतियों को मिलने वाली सरकारी रियायतों को खत्म किया जाना चाहिए। आज सवाल यह नहीं है कि भारत आर्थिक संकट से बाहर कैसे निकलेगा, बल्कि सवाल यह है कि क्या सरकार सच में आम जनता की भलाई चाहती है, या सिर्फ अपने प्रिय उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाना चाहती है? (सप्रेस)