बुद्धि के संवर्धन पर हमने इतना जोर दे दिया है कि खुद को बुद्धिजीवी कहने में गर्व महसूस होता है| हम ह्रदयजीवी क्यों नहीं हो सकते? या फिर हम ज़्यादातर समय सिर्फ अपनी नैसर्गिक संवेदनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुए, देखते, सुनते, स्पर्श करते हुए एक सृजनशील जीवन क्यों नहीं बिता सकते?
किसी माली को पौधा लगाते हुए जरुर देखना चाहिए| उसकी तन्मयता, मिट्टी के साथ उसका सोंधा-सा संबंध, पौधे को कोमलता से छूने, संभालने, निहारने और रोपने के उसके ढब और सलीके पर गौर किया जाना चाहिए |अपनी तंगहाली के बावजूद वह ऐसे पलों में दुनिया का सबसे संतुष्ट और अमीर इंसान दिखता है| जापानी ज़ेन बौद्ध मास्टर अपने विहार में ठहरे कला के छात्र को सिखाता है कि किसी दरख़्त को कैनवस पर उकेरने से पहले उसे गौर से देखो, हफ़्तों तक रोज़ निहारो, जब तक उसके और दरख़्त के बीच कोई जेहनी फासला न रह जाए| इसके बाद ही सृजनात्मकता की कोपलें फूटेंगी और अपनी सम्पूर्णता में वृक्ष कैनवस पर उतर पाएगा| इसी तरह किसी जूते बनाने वाले को देखिए| ऐसा महसूस होगा कि वह जूता नहीं बल्कि अपने ही अन्तस के ही किसी हिस्से को आकार दे रहा है| उस वक्त उसकी दुनिया में सिर्फ उसकी कला का समृद्ध मौन होता है|उसे यह भी नहीं मालूम होता कि जूता किसके पैरों में जायेगा, किस गाँव-देश की सैर करेगा| उसे शायद यह भी फिक्र नहीं होती कि कोई उस जूते को खरीदेगा भी या नहीं; उसकी तारीफ भी करेगा या नहीं|
हमारे समाज में इन लोगों को बुद्धिजीवी नहीं कहा जाता| क्या ये अपनी एड़ी का इस्तेमाल करके इस तरह के खूबसूरत काम करते हैं! या फिर खुद को विशेष जीव के रूप में स्थापित करने के लिए चंद लोगों ने खुद को बुद्धिजीवी कहना शुरू कर दिया है? जो ‘बुद्धिजीवी’ नहीं, उन्हें खुद से दूर रखना, और उनको बुद्धि का दुश्मन साबित करने का भी उनका अचेतन अजेंडा रहा होगा| पर कितने तथाकथित बुद्धिजीवी होंगे जो एक नाविक की तरह उद्वेलित नदी में नौका चला सकते होंगे, या एक बढई की तरह आरी को सीधा पकड़ कर सख्त काठ को मनचाहा आकार दे सकते होंगे? कितने अनुशासित और सधे हुए होते हैं वे हाथ और वह मन, जो ये काम करते हैं|
बुद्धिजीवी आम तौर पर लेखन, पेंटिंग, नाट्यमंच या पत्रकारिता से जुड़े किसी न किसी पूर्वपरिभाषित सृजनात्मक या क्रिएटिव काम में लगे होते हैं| पर सृजनात्मकता किसी विशेष काम में होती है या फिर काम करने के ढंग और सलीके में? क्या कोई काम अपने आप में क्रिएटिव होता है? चरखा चलाना शायद सृजनात्मक काम नहीं, पर बापू को चरखा चलाते देख कर लगता है कोई ऋषि अज्ञात के संपर्क में आकर उसकी विराटता में खो गया है| बीथोवेन सुन नहीं पाते थे और संगीत में बुद्धि की नहीं बल्कि जूनून की बात करते थे| उनके बारे में एक मशहूर लेखक ने लिखा कि वह तो इतने बधिर हैं कि खुद को चित्रकार समझ बैठते हैं! फ्रांसिस बेकन कहते थे कि कला का मकसद ही जीवन के रहस्य को और गहरा कर देना है| पंडित जसराज को बैरागी भैरव गाते देख कर सहसा यह सवाल उठता है कि पंडित जी तो यह राग गा रहे हैं, पर क्या वह गायक होने के साथ किसी रचनात्मक संवेग के लिए एक गीत भी हैं| वह जब गा रहे हैं, क्या उन क्षणों में उन्हें भी कोई गा रहा है? यह सब चतुर बुद्धि का खेल नहीं, बल्कि तन्मयता, प्रबल भावनात्मक आवेग, जीवन के रहस्य को समझने के लिए किसी उपयुक्त माध्यम की सतत खोज का परिणाम है| सृजनात्मक कामों के लिए बस बुद्धिजीवी नहीं, ह्रदयजीवी होने की भी दरकार है|
तथाकथित क्रिएटिव काम मशीन की तरह भी किया जा सकता है| यंत्र की तरह कवितायेँ लिखने, पेंटिंग बनाने, या फिर सिर्फ बाजार के लिए, किसी को प्रभावित करने के लिए सृजनात्मक काम को करते रहने में उतनी गहराई है ही नहीं जितनी पूरी तन्मयता और स्नेह के साथ नींबू का पौधा रोपने में या भोजन पकाने और बर्तन धोने में है! किसी के प्रति गहरा प्रेम क्रिएटिव प्रक्रिया का हिस्सा है| यह पूरी तरह कुदरती है, इसमें न कोई कोई तकनीक है, न ही किसी बौद्धिक ज्ञान की जरुरत है| दुर्भाग्य से बुद्धि के संवर्धन पर हमने इतना जोर दे दिया है कि खुद को बुद्धिजीवी कहने में गर्व महसूस होता है| हम ह्रदयजीवी क्यों नहीं हो सकते? या फिर हम ज़्यादातर समय सिर्फ अपनी नैसर्गिक संवेदनात्मक क्षमता का उपयोग करते हुए, देखते, सुनते, स्पर्श करते हुए एक सृजनशील जीवन क्यों नहीं बिता सकते?
हॉवर्ड गार्डनर का बहु-प्रतिभा का सिद्धान्त कई तरह की प्रज्ञा या इंटेलिजेंस की चर्चा करता है जिनमे भाषाई, स्थानिक, दैहिक, इन्द्रियगत, अंतर्वैयक्तिक, अन्तःवैयक्तिक, सांगीतिक, तार्किक, और गणितीय प्रतिभाएं शामिल है| गार्डनर ने 1983 के इस सिद्धांत में बुद्धि की अवधारणा को और अधिक शुद्धता से परिभाषित किया और बताया कि बुद्धि को मापने के पुराने सिद्धान्त कितने अवैज्ञानिक हैं। उसके मुताबिक बुद्धि की परंपरागत परिभाषा इंसान की सभी क्षमताओं को पर्याप्त रूप से दर्शाती ही नहीं। जो बच्चा आसानी से गणित समझ लेता लेता है, जरूरी नहीं कि गणित में कमज़ोर बच्चे से वह अधिक प्रतिभाशाली हो। हो सकता है कि दूसरा बच्चा किसी दूसरी तरह की बुद्धि में अधिक प्रखर हो। ऐसा भी सम्भव है कि वह बच्चा गणित की प्रक्रिया को बिल्कुल ही अलग ढ़ंग से देखता हो जिसके कारण उसकी प्रगाढ़ गणितीय बुद्धि का किसी को अन्दाज न मिल पा रहा हो।
देखा जाए तो एक तथाकथित बुद्धिजीवी के निर्माण में ऐसे कई लोगों की भी भूमिका होती है जो बुद्धिजीवी नहीं हैं! जैसे किसी महान लेखक के घर में एक दिन भोजन बनाने वाला, सफाई करने वाला न आए, तो उसके लिए लिखना मुश्किल हो जायेगा| उसका परिवार उसके साथ सहयोग न करें, तो भी उसके जीवन में कई मुश्किलें पैदा होंगी| कम्प्यूटर बनाने वाला कोई तकनीशियन न मिले तो भी लिखना दुश्वार हो जाएगा| कलम टूट जाए तो कितने लेखक होंगे जो फैज़ की सलाह पर ख़ूने दिल में उँगलियाँ डुबो कर लिखेंगे! कितने चिंतक सुकरात जैसे होंगे जो उसपर गर्म पानी फेंकने वाली ज़ेन्तिपी जैसी संगिनी के लिए भी कहे कि वह तो उसके धैर्य की परीक्षा ले रही है|
ह्रदय को और इन्द्रियों के बोध को विकसित करना उतना ही जरूरी है जितना बुद्धि को विकसित करना| आम तौर पर बुद्धि पर ज्यादा बल देने पर लोगों के भावशून्य शब्द्वविद बनने का खतरा भी बना रहता है| बुद्धिजीवियों को ‘एगहेड’ कह कर उनपर तंज भी कसा जाता है कि जिस तरह अंडा जर्दी से भरा होता है, उसमें कोई भी खाली जगह नहीं बचती, वही हाल बुद्धिजीवी के दिमाग का होता है, जो जानकारियों और ज्ञान से भरा रहता है| पिछली सदी के महान बुद्धिजीवी ऑल्डस हक्सले ने बुद्धि-केन्द्रित जीवन की वेदना को खूब समझा था और उन्होंने एक बार अपने मित्र और दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति से कहा था कि काश वह उनकी गहरी बातों का प्रत्यक्ष बोध कर पाता, पर उसकी बुद्धि उसके लिए सबसे बड़ी बाधा है और यही उसे इन्द्रियों को समग्रता में उपयोग करने से रोकती है| हक्सले फूलों के बारे में विस्तार से कृष्णमूर्ति को बता रहे थे और कृष्णमूर्ति का सवाल था कि क्या वे वनस्पतिशास्त्र के अपने समूचे ज्ञान को एक तरफ रख कर, सिर्फ अपनी आँखों से फूलों को निहार सकते हैं? सवाल दिलचस्प है, पर इसका उत्तर पूर्वनिर्मित नहीं हो सकता| इसे हम खुद की प्रतिक्रियाओं को निहार कर ही समझ सकते हैं|(सप्रेस)
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