ईशान अग्रवाल

हमारे जीवनकाल में ही हमारे सामने आये नैरेटिव नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे बीच हज़ारों सालों पुराने, सैकड़ों सालों पुराने, दसियों सालों पुराने और कुछ सालों पुराने सारे युद्ध एक साथ छिड़ गए हैं। धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग, देश, राज्य, अमीर, गरीब, गाँव, शहर, पूँजीवाद-साम्यवाद, ये सारी पहचानें एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हो रही हैं। पुराने सारे मिथक, मानदंड बेमानी हैं। कोई एक विचार भी इसलिए हमें वैश्विक रूप से स्वीकार नहीं। न धार्मिक, न राजनैतिक, न आर्थिक, न सामाजिक, न ही पर्यावरण सम्बन्धी कोई विचार! हमारे सामने है जो यह दावा कर सके कि वह विचारों की इस बेतरतीबी में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकता है।

क्या हम किसी बर्बाद हुयी चीज़ को फिर बिलकुल वैसा बना सकते हैं, जैसी वह पहले थी। शायद निर्जीव चीज़ों को हम फिर से बना सकते हैं। पर उस पर भी हज़ारों विवाद हैं। और जो सजीव है, क्या उसको फिर से बना सकते हैं? अगर हम लोगों को क्लोन भी कर लें, तो भी क्या क्लोन और असल व्यक्ति एक से होंगे?

मेरी राय में जवाब होगा, नहीं।

पिछले 200 वर्षों में औपनिवेशिक काल, औद्योगिक क्रांति, पूँजीवाद और आधुनिकता के प्रचार-प्रसार ने मिलकर ऐसी धमाचौकड़ी मचाई है कि हज़ारों सालों से अर्जित की हुयी विद्वता (wisdom), ज्ञान, सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक (ecological) ढाँचे चरमरा गए हैं और बदलने पर मजबूर हुए हैं। यह बदलाव इंसानियत के इतिहास में पहले आये बदलावों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ और गहरे हैं। ये सिर्फ राजा रानी के खिलाफ हुए विद्रोह नहीं हैं जिन्हें इतिहास की किताबें बड़े बदलाव की तरह दिखलाती हैं। यह मानस में हुए गहरे बदलाव हैं जो एक से दूसरी पीढ़ी में ही आ जा रहे हैं अब। यह बदलाव न सारे के सारे अच्छे हैं न सारे के सारे बुरे। जैसा कि हर युग में होता है, इसमें कुछ अच्छे बदलाव भी हुए हैं और कुछ बुरे। जैसे कि आधुनिक समाज ने महिलाओं के सशक्तिकरण को नयी ऊंचाई दी है। अंधविश्वासों में जी रहे करोड़ों लोगों को विज्ञान की रोशनी दी है। और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आज की दुनिया में जितने लोग अपनी सरकारों को बनाने बिगाड़ने में अपनी भूमिका निभाते हैं, उतना कभी, किसी और युग में नहीं हुआ।

लोकतंत्र हमारे समय की सबसे पसंदीदा व्यवस्था है। ये और बात है कि पिछले एक दशक से लोकतंत्र गंभीर आलोचना का सामना कर रहा है। जहाँ यह कुछ अच्छे बदलाव हैं, वहां बहुत से चिंताजनक बदलावों की भी एक लम्बी सूची है। तेजी से होता मौसमी बदलाव, ऐसे कई बदलावों का एक लक्षण है। सोशल मीडिया के प्रचार – प्रसार के साथ समाज में बढ़ती हिंसा और नफरत, अमीर और गरीब के बीच बढ़ता हुआ फासला, जंगलों की सीमाओं का तेजी से सिकुड़ना, हमारे खान-पान में हुए बदलाव ऐसे ही कुछ बदलाव हैं।

इन बदलावों का गहरा असर मैं अपने काम में देखता हूँ। मैं जंगलों और नदियों के संरक्षण पर काम करता हूँ। 200-250 साल पहले मेरे जैसे पेशेवर सामाजिक-पर्यावरण कार्यकर्ता की कोई ज़रुरत नहीं थी। आज है। 200-250 साल पहले जंगलों का बेतहाशा दोहन नहीं था और लोग अपनी ज़रुरत के हिसाब से निस्तार करते थे। गाँव का अपना एक प्रबंधन था और वह प्रबंधन निस्तार की ज़रूरतों को लम्बे समय तक पूरा करने के आधार पर होता था। यह सच है कि संरक्षण के लिए जंगल का प्रबंधन नहीं होता था। संरक्षण अपने आप हो जाता था कभी दूसरे गॉंवों को अपने जंगल से चारा या लकड़ी न लेने देने से या फिर कभी जंगल के किसी एक हिस्से को पवित्र घोषित कर देने से, चरवाहे की व्यवस्था से वगैरह वगैरह। राजा या मंदिरों के नाम भी जंगल हुआ करते थे जिनसे लकड़ी, जानवर, या शिकार जैसी जरूरतें पूरी की जाती थी।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “हस्तिवन” यानी हाथी के जंगल का ज़िक्र है जिस पर कौटिल्य के अनुसार राजा का हक़ होना चाहिए ताकि सेना में हाथियों की कमी न हो। पर इन जंगलों से निस्तार पर कोई रोक हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। देश के आदिवासी इलाकों और पहाड़ों में राजा या बादशाहों का दखल हल्का ही रहा। उन्हें कभी भी राजस्व का स्रोत नहीं माना गया।

जंगलों के असली हक़दार एक धक्के से जंगल से बाहर

जंगलों का अंधाधुंध दोहन अंग्रेज़ों के समय ही हुआ। अंग्रेज़ों के शोषण चक्र में न सिर्फ जंगल पिसा बल्कि जंगल के पास रहने वाले लोगों का उसके साथ नाता भी हमेशा के लिए बदल गया। दुनिया के सबसे पहले वन विभागों में से एक है हमारे देश का वन विभाग। और सबसे सख्त वन कानून हमारे देश में लागू हुआ जिसने जंगलों की तस्वीर बदल दी। जंगलों के असली हक़दार कलम के एक धक्के से जंगल से बाहर हो गए।

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी आदिवासी क्षेत्रों में हुए सैंकड़ों विद्रोह इस ऐतिहासिक अन्याय के विरुद्ध इतिहास में दर्ज़ हैं। न जाने कितने मासूम आदिवासियों और स्थानीय लोगों ने अपनी जानें दीं इस दौरान। इसके अलावा, देशी पेड़ों को काटकर सागौन, सफेदा, चीड़ के जंगलों की बहुतायत हो गयी जो उद्योगों में तो काम आते थे पर स्थानीय समाजों के लिए इनका कोई मोल न था। सैंकड़ों आक्रामक झाड़ियों ने भी हमारे देश पर हमला बोला जिसमें लैंटाना और विलायती बबूल प्रमुख हैं। जंगली जानवरों का अंधाधुंध शिकार, खास तौर से गंगा के क्षेत्र में अंग्रेज़ों की खेती के लिए जंगल कटान की नीति का हिस्सा थी। बाघ, तेंदुओं के डर से लोग जंगलों में गहरे नहीं जाते थे। इनको बेहिसाब संख्या में मारा गया ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा जंगल काट कर खेती कर सकें और फिर उससे लगान दे सकें। (पढ़िए Battle for nature (वसंत सब्बरवाल, महेश रंगराजन, 2005) एक और जीवन पद्धति, जिसे हम घुमन्तु जीवन कहते हैं, भी तबाह कर दी गयी। जंगलों पर हुए सरकारी अधिकार ने देश के लाखों पशुपालकों को अपनी जीवन पद्धति छोड़ने पर मज़बूर किया। पूरे देश में घुमन्तु पशुपालकों के संस्कृतियां अंतिम सांसें ले रही हैं।

यह सब अंधेर हो जाने के बाद आज की तस्वीर उभरती है। आज, जब दुनिया के सबसे बड़े वन विभाग और सबसे कठोर वन कानूनों से हम अपने जंगल के संरक्षण का दम भर रहे हैं। आज जब इस देश का 5% भूभाग अभयारण्यों के हवाले है, जहाँ पर वहां के मूल निवासियों का कोई हक़ नहीं। इसके बावजूद, हर आम और ख़ास आदमी  को इस बात का एहसास है के जंगल कम हो रहे हैं। 90 के दशक से फलक पर एक नया शब्द उभरता है जिसे हम “प्राकृतिक पुनर्स्थापन ” या “Ecorestoration” कहते हैं। सोसाइटी फॉर इकोलॉजिकल रेस्टोरेशन (SER) के अनुसार “प्राकृतिक पुनर्स्थापन” की व्याख्या कुछ इस तरह करते हैं – Ecological restoration is the process of assisting the recovery of an ecosystem that has been degraded, damaged, or destroyed.

प्राकृतिक पुनर्स्थापन बिगड़े हुए या तबाह हुए पारिस्थितिक तंत्र की सेहत को वापस पुरानी अवस्था में लाने की प्रक्रिया है।

ऐसे पढ़ने पर प्राकृतिक पुनर्स्थापन एक सुन्दर और आवश्यक प्रक्रिया मालूम देती है। व्यावहारिक रूप से इसका अर्थ हर कोई अपने हिसाब से लगा लेता है। कुछ लोग इसे पेड़ लगाने का कार्यक्रम मानते हैं, कुछ इसे मिट्टी और पानी संरक्षण का काम मान लेते हैं। और कुछ लोग है जो इस प्रक्रिया को वाक़ई पारिस्थितिक तंत्र को पुरानी स्थिति में लाने की कोशिश मानते हैं।  मतलब पहले जंगल था तो अब अभी जंगल ही होगा। पहले चरागाह था कहीं पर तो वहां फिर से चरागाह होना चाहिए।

ऐसा हो सकता है क्या?

और हम कौन से युग को “पहले” कह के सम्बोधित करेंगे? उस युग की पूरी समझ अब बची है क्या।

और क्या प्राकृतिक पुनर्स्थापन करना पूरी तरह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है या इसका सामाजिक सन्दर्भ भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है? और यदि ऐसा है तो क्या हम प्राकृतिक तंत्र के साथ साथ पुराने सामाजिक तंत्र को भी वापस लाएंगे?  क्या उसके बिना प्राकृतिक तंत्र की पुनर्स्थापना हो सकती है?  (पढ़िए : Martin, 2017 https://onlinelibrary.wiley.com/doi/epdf/10.1111/rec.12554)

और भी कई प्रश्न हैं।

क्या पुराना सब कुछ अच्छा था जिसकी पुनर्स्थापना करना जरूरी है?  एक किस्से से अपनी बात समझने का प्रयास करता हूँ। अपने काम के सिलसिले में हमें अक्सर गाँव आना जाना होता है। ऐसे ही एक दौरे में साथियों के साथ एक लम्बी चर्चा छिड़ गयी। बातचीत में हम लोग जंगलों, नदियों, तालाबों  के बारे में बात करते-करते अपने-अपने अतीत में चले गए। फिर वो बात ऐसी हो बैठी कि भाई, जब मैं छोटा था, तब मेरे गाँव में ऐसा होता था, वैसा होता था। हम इस तरह मछली पकड़ा करते थे और दादी कैसे सुबह नाश्ते में उन्हें पकाती थी। और इस तरह जंगल का ध्यान रखता था गाँव, इस तरह मंदिर का, इस तरह तालाब का, वगैरह, वगैरह। हमारी  बातों में अपने अतीत पर गर्व झलक रहा था। पर कुछ ऐसा भी था जिसे हम नज़रअंदाज़ कर रहे थे। जैसे कि पहले हमारे घरों में और गाँव में महिलाओं की स्थिति क्या थी। दलितों का गाँव में क्या हाल था। कोई  उसके बारे में बहुत बात नहीं करना चाहता था।

कहने का अर्थ यह है कि ज़रूरी नहीं कि जो कुछ भी पहले था, वह अच्छा ही था। हम इतिहास से सबक ले सकते हैं या कहें प्रेरणा ले सकते हैं। उसे दोहराना मूर्खता है। कदम उठाना ज़रूरी है, उसके लिए इतिहास समझना भी ज़रूरी है। पर इतिहास का महत्त्व यहीं तक है।

इसीलिए मैं यह बात ज़ोर देकर कहता हूँ कि हम न तो सामाजिक कार्यकर्ता हो सकते हैं, और न ही पर्यावरण कार्यकर्ता। हमें सामाजिक-पर्यावरण कार्यकर्ता होना होगा। दूसरा, हमें अपने युग की समस्याएं सुलझानी हैं। इसलिए हम सामाजिक-पर्यावरण रचनाकार हैं न कि सामाजिक कार्यकर्ता । हम सृजनकर्ता हैं, कोई क्लर्क नहीं कि जिन्हें एक मैन्युअल दिया जायेगा और उसके अनुसार सब काम हो जायेगा। हमारे काम से नयी सामाजिक-पारिस्थितिक सच्चाइयां उभरेंगी।

एक उदाहरण से अपनी बात समझाने की कोशिश करता हूँ। मंडला में हमने कान्हा टाइगर रिज़र्व के चारों ओर काम किया। सीधे मुद्दे पर जाऊं तो हमने यह महसूस किया कि पूरे क्षेत्र में बहुत सारा लैंटाना भरा हुआ है। लैंटाना, जो कि एक आक्रामक झाडी है, अपने आस-पास घास या दूसरे पौधों को नहीं होने देता, 19 वीं सदी में हमारे देश में अंग्रेज़ों के साथ आयी और अगले 200 सालों में इसने पूरे देश के बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।

वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के शोध के अनुसार भारत में बाघों के रहवास के 40% क्षेत्र में लैंटाना का कब्ज़ा है। वन-विभाग अमूमन इससे होने वाले नुकसान को वन्य प्राणियों के रहवास को हुआ नुकसान समझता है। मसलन, लैंटाना के कारण जंगल वन्य प्राणियों के लिए चारा पैदा नहीं कर पाता और यदि हिरन, जंगली भैंसों जैसे जानवरों की संख्या कम होगी, बाघों को भी अपना भोजन ढूंढने में दिक्कत होगी। कहने का अर्थ है कि पूरा तंत्र भरभरा जायेगा। वन विभाग पार्क के अंदर काफी पैसा खर्च करता है लैंटाना हटाने में। पर बफर जोन में कई जगह गाँव के लोग ही वन विभाग को लैंटाना हटाने से रोक देते थे। वन विभाग का संवाद लोगों के साथ नहीं था। हमने यह जानने की कोशिश की कि लैंटाना के हटने से लोगों को क्या लाभ होंगे।

ज़ाहिर सी बात है कि जंगल में से लैंटाना निकालने से मवेशियों के लिए चारे का एक नया स्रोत पैदा हो जाता। गाँव के पास लैंटाना हटने से जंगली जानवरों के खेतों में घुसने के खतरे भी कम होते थे। इससे एक नया नैरेटिव पैदा हुआ जिसमें न सिर्फ वन्य जीवों के लिए जगह थी बल्कि मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था होनी थी। कुछ सालों में लोगों ने खुद वन विभाग में लैंटाना हटाने की दरख्वास्त लगाना शुरू कर दिया।

पर क्या लैंटाना कभी भी पूरे क्षेत्र से निकला जा सकता था?  नहीं। हमने हमेशा यह सोचा कि इन प्रयासों से गाँव के आसपास के जंगलों से लैंटाना कम हो जायेगा तो मवेशी को जंगल में बहुत अंदर नहीं जाना पड़ेगा। पर लैंटाना के बचे कुचे क्षेत्र तो फिर भी रहेंगे जिनसे लोग जलावन के लिए लकड़ी निकलते रहेंगे। ऐसा करने से एक मोज़ेक लैंडस्केप पैदा होगा, जो अपने आप में अनोखा होगा। ऐसा पहले कभी नहीं था। इस उदाहरण में इतिहास से सीख तो है पर इतिहास दोबारा दोहराने की ज़िद नहीं।

प्राकृतिक पुनर्स्थापन (ecorestoration) से “सामाजिक-पारिस्थितिक सृजन” (social-ecological creation)

बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस बात के बहुतेरे अर्थ निकाले जा सकते हैं। हमें सब कुछ नया लिखना होगा। पुराना लिखा कोई ज्ञान सिर्फ प्रेरणा दे सकता है। हमें एक नए पारिस्थितिक संतुलन की आवश्यकता है।  पुराने इतिहास को फिर से जीने के रूमानी ख्याल से हम ऐसा नहीं कर सकते। नए पारिस्थितिक संतुलन की कल्पना नए सामाजिक बदलाव के साथ ही संभव है। हमें एक लोकतान्त्रिक वन विभाग चाहिए जो लोगों की सुने। हमें ऐसा समाज भी चाहिए जो प्रयोग करने के लिए तैयार हो। अपने अनुभव के सन्दर्भ में लिखूं तो बिना इसके, सिर्फ लैंटाना उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा। मैं इसे प्राकृतिक पुनर्स्थापन (ecorestoration) की जगह “सामाजिक-पारिस्थितिक सृजन” (social-ecological creation ) कहना पसंद करूंगा।

आज के पारिस्थितिकी तंत्र सम्बन्धी विचार अमेरिकी प्राकृतिक विचारक जॉन मुइर के विचारों से प्रभावित हैं। उन्होंने ही अभयारण्यों के विचार की नींव डाली, जिसमें प्रकृति और मनुष्य को अलग-अलग रखना ज़रूरी था।  आज अमेरिका में ब्लैक लाइव मटर के आंदोलन के दौरान जॉन मुइर को अपने रंग-भेदी विचारों के कारण आलोचना झेलनी पड़ रही है, विशेषकर देशज अमेरिकन इंडियंस की तरफ से जिन्हें मुइर के विचारों के कारण योसेमिटी नेशनल पार्क और येलोस्टोन नेशनल पार्क की ज़मीनों से हाथ धोना पड़ा। हालाँकि यह कहा जा सकता है कि जॉन मुइर अपने समय की पूंजीवादी विचारधारा से तो बेहतर थे जिसने जंगलों के विनाश को ही विकास का रास्ता माना।

 मैं यहाँ यह इसलिए कह रहा हूँ कि अब हमारे जीवनकाल में ही हमारे सामने आये नैरेटिव नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे बीच हज़ारों सालों पुराने, सैकड़ों सालों पुराने, दसियों सालों पुराने और कुछ सालों पुराने  सारे युद्ध एक साथ छिड़ गए हैं। धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग, देश, राज्य, अमीर, गरीब, गाँव, शहर, पूँजीवाद-साम्यवाद, – ये सारी पहचानें एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हो रही हैं। पुराने सारे मिथक, मानदंड बेमानी हैं। सभी मर्यादा पुरुषोत्तमों, महापुरुषों, धर्म संस्थापकों की मूर्तियां भंजित पड़ी हैं हमारी सामूहिक चेतना में। कोई एक विचार भी इसलिए हमें वैश्विक रूप से स्वीकार नहीं। न धार्मिक, न राजनैतिक, न आर्थिक, न सामाजिक, न ही पर्यावरण सम्बन्धी कोई विचार हमारे सामने है जो यह दावा कर सके कि वह विचारों की इस बेतरतीबी में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकता है । इससे जो चेतना पैदा हो रही है, वह किसी एक रंग-रूप की नहीं है। इसे हम अभी पहचानना तक नहीं सीखे हैं। हमें इसे पहचानना सीखना होगा। हमें सब नया लिखना पड़ेगा। एक मोज़ेक विचार जो सच्चाई के ज़्यादा करीब है। सिर्फ अपने रंग में अगर सच्चाई को देखेंगे तो विनाश होगा।

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