आचार्य विनोबा
मानव के लिए सबसे खतरनाक चीज अगर कोई है तो वह है, उसकी जमीन से उखड़ना। जैसे हर एक पेड़ का मूल जमीन में होता है, वैसे ही हर एक मनुष्य का संबंध जमीन के साथ होना चाहिए। मनुष्य को खेती से अलग करना पेड़ को जमीन से अलग करना ही है। मेरा विचार है कि मनुष्य का जीवन जितना पूर्ण हो, उतना ही वह सुखी होगा। भूमि-सेवा पूर्ण जीवन का एक अनिवार्य अंग है। खेती से खुली हवा और सूर्य-प्रकाश मिलता है। जिससे आरोग्य-लाभ होता है। खेती से मानसिक आनंद प्राप्त होता है, बुद्धि तीव्र होती है। खेती भगवान की भक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है। जितने लोगों को पूर्ण जीवन का मौका मिलेगा, समाज में उतना ही समाधान और शांति रहेगी। प्रस्तुत लेख पूज्य विनोबा जी ने नवंबर 1982 में अपनी मृत्यु के पूर्व लिखा था।
यह तो जाहिर है कि अनाज पैदा कर बहुत पैसा पैदा नहीं कर सकते। यह बात किसान भी जानते हैं। फिर भी वे मांग करते हैं कि अनाज की कुछ ज्यादा कीमत होनी चाहिए। साथ ही वे जानते हैं कि अनाज बहुत ज्यादा महंगा नहीं हो सकता। जो चीज सबको चाहिए, वह महंगी नहीं हो सकती। इसीलिए फिर वे तंबाकू, गन्ना, जूट, कपास, हल्दी जैसी पैसे की चीजें बोते हैं। यह भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा, क्योंकि दिन-ब-दिन जनसंख्या बढ़ रही है। इसलिए जितनी जमीन में दूसरी चीजें बोई जाएंगी। उतने परिमाण में अनाज कम मिलेगा। इससे देश को नुकसान होगा। यद्यपि शक्कर खाने की चीज है, फिर भी वह अनाज की जगह नहीं ले सकती। दो तोले अनाज के बदले दो तोले शक्कर ले सकते हैं, लेकिन उसे ज्यादा नहीं खा सकते। इसलिए अनाज कम पड़े, इतना गन्ना नहीं बो सकते। देश को कपास भी चाहिए, क्योंकि कपास के बिना कपड़ा बनेगा नहीं। लेकिन कपास ज्यादा बोएंगे, तो कपड़ा खूब मिलेगा, पर अनाज कम हो जाएगा। अनाज के बदले में कपड़ा, तंबाकू, गन्ना आदि से ही काम चलेगा नहीं। सारांश, जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती चली जाएगी, वैस-वैसे अनाज के लिए ही जमीन का उपयोग करना होना। तब पैसे के लिए जो चीजें बोते हैं, शायद वे छोड़ देनी पड़ेंगी या तो कम-से-कम बोनी होंगी।
हम चाहते हैं कि गांव के लोग अपने उद्योगों के आधार पर अपना जीवन चलाएं। इसका मतलब यह नहीं कि वे ही पुराने औजार चलेंगे। समाज की परिस्थिति के अनुसार जितने औजार प्राप्त हो सकें और उनमें जितना संशोधन हो सके, उतना करके ग्रामीण सादगी से अपना जीवन चलाएं। जहां हम सादगी की बात करते हैं, वहां कुछ लोग समझते हैं कि यह ऐश्वर्य और उत्पादन-वृद्धि नहीं चाहता होगा। हम जाहिर करना चाहते हैं कि हम सब प्रकार की अभिवृद्धि चाहते हैं, लेकिन उसके साथ तीन बातें और भी चाहते हैं। एक तो हर मनुष्य का सृष्टि के साथ संबंध बना रहे। इन दिनों कुछ लोग फैक्ट्री में आठ-दस घंटे काम करते हैं। उन्हें खेत में काम करने, सृष्टि के साथ एकरूप होने का मौका नहीं मिलता। इसीलिए हफ्ते में एक दिन आनंद के लिए उन्हें छुट्टी दी जाती है या वे रात को सिनेमा देखकर कृत्रिम आनंद हासिल करते हैं। परंतु हम चाहते हैं कि मनुष्य के जीवन का सबसे श्रेष्ठ,प्रकृति के साथ एकरूप होने का आनंद बना रहे। दूसरी बात है खेती के साथ जो भी उद्योग जोड़े जाएं, उनमें किसी का शोषण न हो, किसी भी प्रकार की ऊंच-नीचता या विषमता न रहे और तीसरी बात यह कि जो उत्पादन हो, उसका सम्यक् विभाजन होना चाहिए। इस तरह सृष्टि के साथ सतत जीवित संबंध, शोषणरहितता और सम्यक्-विभाजन,तीनों बातें कायम रखकर हम गांवों को समृद्ध बनाना चाहते हैं। मनुष्य के लिए अत्यंत सादा जीवन चाहने वाले हमारे शास्त्रों ने आज्ञा दी है कि ’अन्नं बहु कुर्वीत’-अन्न खूब बढ़ाओ। हम यह नहीं चाहते कि ’किसी भी प्रकार जीने’ को जीवन कहा जाए। हम तो खूब ऐश्वर्य चाहते हैं। हम मानते हैं कि यह चीज दुनिया के सब देशों में, खास कर यूरोप और अमेरिका में भी लागू हो सकती है।
जैसे इस देश में और दुनिया में भी खेती नहीं टल सकती, वैसे ही कम-से-कम हिंदुस्तान में ग्रामोद्योग नहीं टल सकते। दुनिया को हर हालत में खेती करनी ही पड़ेगी पर ग्रामोद्योगों के बारे में ऐसा नहीं कह सकते। जिस देश में जनसंख्या बहुत कम हो,वहां दूसरे उद्योग चल सकते हैं और जहां जमीन बहुत ज्यादा हो,वहां खेती में यंत्रों का उपयोग किया जा सकता है। परंतु हिंदुस्तान जैसे देश में, जहां जमीन कम और जनसंख्या ज्यादा है,खेती में बड़े-बड़े यंत्र नहीं आ सकते और उद्योगों में भी सिर्फ ग्रामोद्योग ही चल सकते हैं। इसलिए न केवल बेकारी के असुर के भय से, बल्कि स्थायी योजना के रूप में काम किया जाए। कोई हमसे पूछ सकते हैं कि आप इस तरह भेद क्यों करते हैं? हम भेद इसीलिए करते हैं कि जहां देशव्यापी योजना बनानी हो, वहां अगर कोई निश्चित विचार न हो तो वह योजना नहीं चल सकती। मैंने कह दिया है, यह ठीक है कि बेकारी-निवारण के लिए ग्रामोद्योग का आरंभ किया जा रहा है लेकिन आज नहीं तो कल, हमें यह सोचना होगा कि यहां जो आयोजन करना है, उसमें ग्रामोद्योग को एक महत्वपूर्ण विषय, जीवन का एक अंश मानकर स्थान देना होगा।
किसान को केवल पैसे के आधार पर अपना जीवन नहीं रखना चाहिए। उसके हाथ में दूसरे उद्योग होने चाहिए। तेल,शक्कर, जूता,कपड़ा आदि चीजें अपने गांव में ही बनानी चाहिए। किसान के हाथ में कुछ उद्योग होने चाहिए। और उन उद्योगों का माल शहर में बेचा जाए और वह महंगा भी रहे। गांव वालों को अपना खुद का तेल बनाना चाहिए और बाकी बेच देना चाहिए। कपड़े आदि का भी ऐसा ही होना चाहिए।
गांधीजी बार-बार कहते थे कि हिंदुस्तान का किसान खादी के बिना नहीं टिकेगा। वे अनुभवी थे। उन्होंने आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा पाई थी। इंग्लैंड की हालत भी देखी थी। उनका कहना था कि अगर हम खादी इस्तेमाल नहीं करेंगे, तो न किसान की रक्षा होगी और न बहनों की रक्षा होगी। खादी से बहनों को घर में ही उद्योग मिलता है। गांव वाले शिकायत करते है कि खादी महंगी है। पर वह तो आपकी चीज है, बेचने की चीज है, खरीदने की नहीं। उसका तो ज्यादा पैसा मिलना ही चाहिए, तभी किसानों को कुछ पैसा मिलेगा। अनाज में तो उन्हें खास पैसा मिलेगा नहीं। जनसंख्या बढ़ेगी तो वे दूसरी जीचें पैदा नहीं कर सकेंगे, ज्यादा से ज्यादा जमीन अनाज में लगानी पड़ेगी। इसलिए गांव की चीजें शहरों में बेची जानी चाहिएं, गांव वालों को खरीदनी नहीं चाहिए। गांव के सब लोगों को खादी पहननी चाहिए और बची हुई खादी शहर में बेचनी चाहिए। शहर वालों को भी ज्यादा दाम देकर उसे खरीदना चाहिए। परंतु आज तो देहात के लोगों का कुल जीवन पैसे पर खड़ा किया गया है। खेती के सिवा बाकी धंधे टूट गए हैं।
जमीन माता है। सबके पोषण का साधन हो सकती है। पर आज तो जमीन को ही अपने पैसे का साधन बनाया गया है। इसलिए पैसे वालों ने गरीब लोगों के हाथ से उसे छीन लिया है। घर में शादी हुई, तो सौ रुपए का कर्जा दो सौ रुपया लिखवाकर लेना पड़ा। दिन-ब-दिन रुपए बढ़ते गए और आखिर दो सौ रुपए के बदले में पांच एकड जमीन देनी पड़ी। इस तरह जमीन की पैसे में कीमत हो गई और बेचारा किसान बेहाल हो गया।
वास्तव में जमीन का मूल्य रुपए में नहीं हो सकता। अगर आप दस हजार रुपए के नोटों को एक गड्ढे में रखकर ऊपर से पानी डालें, तो क्या फसल आएगी? मिट्टी की कीमत पैसे में हो ही नहीं सकती। मिट्टी में से खाने चीजें मिल सकती हैं, पैसे नहीं। फिर भी आज जमीन पैसे का साधन बनी और वह चंद लोगों के हाथ में आ गई है। आपने जमीन को पैसे का आधार बनाया तो आपकी चोटी उनके हाथ में आ गई। जमीन की मालकियत ही नहीं हो सकती। वह पैसे की चीज नहीं, प्राण की चीज है। उस पर अपना प्राण टिकेगा। परंतु आपने उसकी पैसे में कीमत की। परिणामस्वरूप गांव के उद्योग टूट गए और गांव के लोग चूसे गए।
मानव के लिए सबसे खतरनाक चीज अगर कोई है तो वह है, उसकी जमीन से उखड़ना। जैसे हर एक पेड़ का मूल जमीन में होता है, वैसे ही हर एक मनुष्य का संबंध जमीन के साथ होना चाहिए। मनुष्य को खेती से अलग करना पेड़ को जमीन से अलग करना ही है। मेरा विचार है कि मनुष्य का जीवन जितना पूर्ण हो, उतना ही वह सुखी होगा। भूमि-सेवा पूर्ण जीवन का एक अनिवार्य अंग है। खेती से खुली हवा और सूर्य-प्रकाश मिलता है। जिससे आरोग्य-लाभ होता है। खेती से मानसिक आनंद प्राप्त होता है, बुद्धि तीव्र होती है। खेती भगवान की भक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है। जितने लोगों को पूर्ण जीवन का मौका मिलेगा, समाज में उतना ही समाधान और शांति रहेगी।
कुछ लोग सिर्फ खेती करें और कुछ दूसरे धंधे ही करते रहें, यह रचना अच्छी नहीं। हर एक को दिन में दो-एक घंटे खेती में काम करने का मौका मिलना ही चाहिए। फिर बचे हुए समय में वह दूसरा उद्योग करे। खेती बुनियादी सेवा है। खेत एक सुंदर उपासना-मंदिर है, खेत एक उत्तम व्यायाम-मंदिर है, खेत एक उत्तम ज्ञान-मंदिर है।(सप्रेस)