प्रधानमंत्री की अगुआई में देशभर में ‘आत्मनिर्भरता’ की दुंदुभी बज रही है। लगभग हरेक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की जुगत बिठाई जा रही है, लेकिन क्या मौजूदा विकास के ताने-बाने के साथ-साथ वास्तविक आत्मनिर्भरता संभव हो सकेगी? क्या इस आत्मनिर्भरता का महात्मा गांधी के स्वावलंबन से कोई जोड बैठता है? मूल अंग्रेजी लेख का अनुवाद बाबा मायाराम।
पिछले कुछ महीनों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार कह रहे हैं कि देश को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाने की दिशा में ले जाने की जरूरत है। जो लोग दुनिया भर में कारपोरेट को निवेश के लिए आकर्षित करते घूम रहे थे, उनमें अचानक यह ज्ञान कहां से आ गय़ा? यह समझ सिर्फ मोदी में ही नहीं, बल्कि कोरोना की वजह से ध्वस्त हुए व्यापार के बाद दुनिया के बहुत से नेताओं में देखी जा रही है।
इस विचार के उद्गम से ईर्ष्या नहीं होना चाहिए। मोदी जब कहते हैं ‘आत्मनिर्भरता,’ तो उसके मायने क्या हैं? वे ‘लोकल के लिए वोकल’ कहते हुए क्या सोचते हैं? क्या महात्मा गांधी की सोच से इसका मेल है? गांधी स्वराज की बात करते थे, जो स्वशासन, आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन से शुरू होता था और हर गांव में होना जरूरी था। भारत के आदिवासी समुदाय के साथ यह कैसे जुड़ेगा, जो प्राकृतिक निवास में आजादी से रहते हुए भलाई व बेहतरी को मानते हैं? अगर उन्हें बाहर से किसी मदद की जरूरत भी हो, तो वह उनके खुद के तरीके से प्राप्त की जाती है, न कि विदेशी, विनाशकारी विकास को उन पर थोपकर? क्या ‘मेक इन इंडिया’ सचमुच आत्मनिर्भरता बढाता है?
24 अप्रैल, 2020 को ‘राष्ट्रीय पंचायत दिवस’ के मौके पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘प्रत्येक गांव को आत्मनिर्भर होना चाहिए जिससे वे अपनी बुनियादी जरूरत पूरी कर पाएं। आत्मनिर्भर गांव लोकतंत्र को मजबूत करेगा, यह भी सुनिश्चित करेगा कि विकास के फल रिसकर जमीनी स्तर तक पहुंचे। इसी प्रकार, प्रत्येक जिला अपने स्तर पर आत्मनिर्भर होना चाहिए। प्रत्येक राज्य को भी अपने स्तर पर आत्मनिर्भर होना चाहिए और इस प्रकार पूरे देश को अपने स्तर पर आत्मनिर्भर होना चाहिए। भारत में यह पुराना विचार है पर बदले घटनाक्रम ने इसकी फिर याद दिला दी है। इसमें हमारी पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका है। आत्मनिर्भर गांव की नींव मजबूत पंचायतें हैं। मजबूत पंचायत व्यवस्था होगी, तो लोकतंत्र भी मजबूत होगा और इसके माध्यम से विकास के फल अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेंगे।‘
‘राष्ट्र के नाम संबोधन’ में 12 मई को नरेन्द्र मोदी ने कहा ‘वैश्विक परिदृश्य में आत्मनिर्भर शब्द का अर्थ बदल गया है। यह अर्थव्यवस्था केन्द्रित वैश्वीकरण न होकर मानव केन्द्रित वैश्वीकरण होगा। भारत की संस्कृति व परंपराएं आत्मनिर्भरता के बारे में बताती हैं। उसकी आत्मा है – वसुधैव कुटुम्बकम यानि पूरी दुनिया हमारा परिवार है। यह संस्कृति दुनिया के कल्याण में विश्वास करती है। सभी जीव-जंतुओं व प्राणियों के साथ पूरी दुनिया को एक परिवार मानती है। यह उस संस्कृति का आधार है, जो धरती को माता के रूप में मानती है।‘
बहुत सुंदर शब्द हैं, पर उन नीति-निर्णयों को गहराई से देखें, जिन्हें केन्द्र की सरकार ले रही है, तो उनमें दोमुंहापन दिखाई देगा। यह शब्दों में भी दिखता है। एक तरफ, वे कहते हैं कि कोरोना संकट ने हमें स्थानीय उत्पादन, स्थानीय बाजार और स्थानीय आपूर्ति का महत्व समझाया है, लेकिन दूसरी तरफ वे ही कहते हैं कि वैश्विक आपूर्ति में भारत को बड़ी भूमिका निभाने की जरूरत है। दोनों साथ-साथ कैसे चलेंगे, यह नहीं समझाया गया है।
पिछले 30 साल के आर्थिक वैश्वीकरण का अनुभव बताता है कि इसकी प्रकृति में ही विरोधाभास अन्तर्निहित है। वैश्विक अर्थव्यवस्था चाहती है कि भारत उत्पादन कर उसका पेट भरे और जो दूसरे उत्पादित करें, वह खुद खाए। यह आत्मनिर्भरता नहीं है। सन् 1991 में, जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने वैश्विक बाजार के लिए द्वार खोला था, भारत से मछली और खनिजों के निर्यात में कमी हो गई थी। समुद्री संसाधन खत्म हो गए थे और बड़े इलाके में खनन होने लगा था। स्थानीय मछुआरे, आदिवासी और किसान समुदायों की अर्थव्यवस्था को खत्म कर दिया गया था। उन देशों से जो अपने यहां उनको नहीं चाहते, जहरीले अपशिष्ट पदार्थों का आयात होने लगा था और इससे लाखों लोगों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव हुआ था। वैश्विक बाजार में बड़ी भूमिका निभाने वाले भारत में इससे कुछ बदलाव आएगा? और जैसा प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में कहा था कि ‘अर्थव्यवस्था केन्द्रित वैश्वीकरण’ से ‘मानव केन्द्रित वैश्वीकरण’ की ओर किस तरह आगे बढ़ेंगे?
मोदी कहते हैं कि पांच स्तंभ हैं, आत्मनिर्भरता को वापस लाने के, जिनमें एक है-मांग। मांग और आपूर्ति का चक्र हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है, इसे पूरी क्षमता से इस्तेमाल करने की जरूरत है। अगर देश में मांग बढ़ेगी और इस मांग को पूरा करेंगे तो हमारे प्रत्येक हितधारक, जो आपूर्ति करने वाली कड़ी का हिस्सा हैं, सशक्त होंगे। पर यहां रूकावट है। वर्ष 2008 में ‘चेम्बर ऑफ इंडियन इंडस्ट्री’ (सीआईआई) और ‘ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क’ के मुताबिक भारत के विकास की दिशा गैर-टिकाऊ है। वहां दोगुनी जैव क्षमता का इस्तेमाल हो चुका है। अगर मांग और बढ़ती है तो इसकी आपूर्ति करने में भारत और नीचे खिसकते जाएगा। यह रास्ता गैर-टिकाऊ होगा।
इसका एक अच्छा उदाहरण ताप बिजली है, जो कोयला खाती है। बिना यह सवाल पूछे कि कितनी मांग है और इसकी आपूर्ति कहां से होगी, इसका समाधान मूर्खतापूर्ण है। कोयला खनन का जितना संभव हो, विस्तार हो रहा है। सरकार ने पर्यावरणीय और सामाजिक सुरक्षा में छूट दे दी है जिससे निजी कंपनियों के प्रवेश का रास्ता आसान हो गया है। कोल ब्लाक की नीलामी अब भारत के उन इलाकों में होगी जो जैव-विविधता के लिहाज से सबसे समृद्ध हैं और वहां सबसे संवेदनशील आदिवासी आबादी का प्राकृतिक वास भी है। अगर हजारों लोगों को उनके घरों से बेदखल किया जाएगा तो वे गरिमाहीन, असुरक्षित प्रवासी मजदूर बन जाएंगे। जंगल या नदियों या समुद्री पारिस्थितिकी से जुड़ी बरसों पुरानी उनकी क्षमता को खत्म किया जा रहा है। यह कैसी आत्मनिर्भरता है? मोदी मजदूरों के पसीने का गुणगान करते हैं, पर उनकी और पहले की सरकारों ने मजदूरों की कामकाजी स्थितियों को सुधारने का काम नहीं किया है। चाहे वे उद्योगों के मजदूर हों, कृषि मजदूर हों या नगरपालिका-कर्मी, विशेषकर महिलाएं और हाशिये के दलित, की कामकाजी स्थितियों में कोई सुधार नहीं हुआ है।
आत्मनिर्भरता के बारे में कोई भी बुनियादी सवाल पूछने की जगह नहीं बची है। ‘भारतीय चैंबर्स और कामर्स’ में 11 जून को मोदी ने आत्मनिर्भरता का मंत्र दोहराया था। उन्होंने भारतीय कंपनियों से भारत के लिए उत्पादन करने को कहा था, पर उन्होंने मौजूदा उत्पादन पद्धति के कारण पारिस्थितिकी, सामाजिक नतीजों और भयंकर गैर-बराबरी का कोई जिक्र नहीं किया जो इन कंपनियों की मुनाफा कमाने की शर्मनाक होड़ से उपजी है। यह भी उल्लेखनीय है कि भारत कोशिश कर रहा है चीन से वैश्विक कंपनियां भारत आ जाएं। यह फिर वैश्विक आपूर्ति चेन को खुश करने की कोशिश है। केन्द्र और ज्यादातर राज्य सरकारें बेलगाम आर्थिक विकास, असीमित पदार्थ और ऊर्जा का इस्तेमाल करने की राह पर चल रही हैं जो धरती के लिए टिकाऊ नहीं है। दुर्भाग्यवश क्रांतिकारी वामपंथी भी उनमें शामिल हैं। भारत की विश्व और टिकाऊ विकास के प्रति क्या जवाबदारी है?
भारत सरकार ने जो बहुत बड़े कोविड क्षतिपूर्ति पैकेज (जीडीपी का 10 फीसदी) की घोषणा की है, उसका कोई खास मतलब नहीं लगता। इसमें लघु उद्योग, किसान व अन्य वंचित वर्ग शामिल हैं, लेकिन राशि प्राप्त करने की प्रक्रिया कठिन है और वंचित वर्ग को मिलने की संभावना नहीं है। हैंडलूम और हस्तशिल्प पर कर लगाना और वसूली करना जारी रखा है, जबकि इस तबके ने बड़े उद्योगों से स्पर्धा करने के लिए रियायत की मांग की थी।
आधी से ज्यादा आबादी कृषि, मत्स्य पालन, पशुपालन, उद्यानिकी और हस्तकला पर निर्भर है। इनकी स्पर्धा बड़े उद्योगों और कारपोरेट घरानों से है जिनके पास बेहतर संसाधन और राज्य का सहयोग प्राप्त है। उन्हें ‘याराना पूंजीवाद’ के माध्यम से राज्य मदद करता है। सरकार व्यवस्थित तरीके से ऐसे प्रयासों की उपेक्षा करती है जो समुदायों को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि अगर ऐसी सार्थक पहल का विस्तार होगा तो राज्य और निगमों को नुकसान पहुंचेगा।
इतिहास में दुनिया भर की सरकारों व निगमों ने सबसे क्रांतिकारी विचार और दृष्टिकोणों का इस्तेमाल किया है। जैसे बुएन विविर, सुमाक काउसे, स्वराज, उबन्तू, टिकाऊपन, समावेशिता, समाजवाद, लोकतंत्र और इसी तरह से बहुत से विचार। भारत की सरकार भी आत्मनिर्भरता को तोड़-मरोड़कर, जंगलों को उजाड़कर, शोषण करके, संसाधनों को निचोड़कर इसमें शामिल हो गई है। यह विकास नहीं विनाश का अन्यायपूर्ण रास्ता है। (सप्रेस)
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