उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जिस अवधारणा ने राष्ट्रों के एकीकरण के साथ-साथ सर्वाधिक युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार की है, वह राष्ट्रवाद ही है। क्या है, यह राष्ट्रवाद? इस अवधारण ने कैसे सत्ताओं को प्रभावित और सक्रिय किया है?
पिछले कुछ वर्षों से भारत सहित विश्व के कई देशों के सत्ता-नशीनों द्वारा राष्ट्रवाद, देशभक्ति जैसे विचारों को प्रयासपूर्वक केंद्रीय विमर्श में प्रमुखता से लाने से इन विचारों को जनमानस में उभार मिला है। सिर्फ सतही तौर पर बात करें तो हम सबको ये विचार सकारात्मकता और गौरव का ही बोध देते हैं। ऐसा इसलिए कि इसी राष्ट्रवाद की दम पर सैकड़ों रियासतों में बिखरे भारत ने अपने को एकजुट किया, अपनी स्वतंत्रता का संघर्ष किया और आज़ादी हासिल करने के बाद देश में मौजूद बहुलतामूलक समाजों को राजनीतिक रूप से एकजुट किया।
यह इसका सिर्फ एक पहलू है। सच तो यह भी है कि इसी राष्ट्रवाद के नाम पर हिटलर ने साम्राज्यवाद का नंगा खेल खेला और लाखों यहूदियों को मौत की नींद सुलाया। दरअसल अपने लगभग दो सौ वर्षों के अस्तित्व काल में राष्ट्रवाद एक दुधारी तलवार ही साबित हुआ है जिसने एक ओर उत्कट निष्ठाओं को जन्म दिया तो दूसरी ओर गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया। मतलब साफ़ है कि सत्ता चाहे तो जनता के हितों के पोषण के लिए इसका सदुपयोग कर सकती है या अपना हित साधने के लिए दुरुपयोग भी कर सकती है। अतः इसे समझने की ज़रूरत पहले से ज्यादा आज है।
‘राष्ट्रवाद’ की उत्पत्ति ‘राष्ट्र’ शब्द से हुई है। राष्ट्र की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह एक आधुनिक संकल्पना है, पर बहुत कम समय में ही पूरे विश्व को इसने अपने सम्मोहन में ले लिया। राष्ट्र का अर्थ है, ‘एक निश्चित भू-भाग पर रहने वाले लोगों का ऐसा समूह जिनकी एक जाति, एक इतिहास, एक संस्कृति और एक भाषा है।’ ग़ौर करने की बात है कि ‘धर्म’ को राष्ट्र के बुनियादी आधार के तौर पर मान्यता नहीं है, फिर भी इस आधार पर राष्ट्रों का निर्माण हुआ है, जिसे खुद हमने देश के बँटवारे के समय देखा है।
एक रोचक सवाल यह उठता है कि जब इन साझा मानकों से राष्ट्र बनते हैं तो फिर ये राष्ट्रों को हरदम एकजुट रखने में नाकाम क्यों हो जाते हैं? और वहीं दूसरी तरफ़, भारत सहित दुनिया में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिनमें अनेक भाषा-भाषी, जातियाँ, धर्मावलंबी रहते हैं, फिर भी वे क़ायम हैं। तब वह क्या है जो इन्हें राष्ट्र के रूप में एकजुट रखता है? दरअसल, राष्ट्र बहुत हद तक एक काल्पनिक समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं, कल्पनाओं और साझा अतीत के सहारे एक सूत्र में बँधा होता है।
राष्ट्रवाद भारतीय चिंतन की उत्पत्ति नहीं है। इसका उदय भारत में नहीं, अठारहवीं और उन्नीसवाँ सदी के मध्य यूरोप में हुआ था। राष्ट्रवाद की उत्पत्ति का श्रेय जॉन गॉटफ्रेड हर्डर को दिया जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग कर जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली थी। राष्ट्रवाद के जो तजुर्बे हैं उससे यह स्पष्ट है कि इसकी कोई भी सटीक परिभाषा अब तक गढ़ी नहीं जा सकी है। एक मत के अनुसार, राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं।
प्रो. स्नाइडर के मतानुसार ‘इतिहास के एक विशेष चरण पर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व बौद्धिक कारणों का एक उत्पाद – राष्ट्रवाद, एक सु-परिभाषित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों के समूह की एक मनःस्थिति, अनुभव या भावना है जो समान भाषा बोलते हैं, जिनके पास एक ऐसा साहित्य है जिसमें राष्ट्र की अभिलाषाएँ व्यक्त हो चुकी हैं, जो समान परम्पराओं व समान रीति-रिवाजों से सम्बद्ध हैं, जो अपने वीरपुरूषों की पूजा करते हैं और कुछ स्थितियों में समान धर्म वाले हैं।’ ये और बात है कि पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा राष्ट्र नहीं है जो इन कसौटियों पर पूरी तरह से फ़िट बैठता हो।
राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ टैगोर का चिंतन व्यापक है, जिसे उन्होंने कई अवसरों पर सार्वजनिक मंचों से व्यक्त किया था। उनके इन विचारों की आलोचना भी हुई, पर वे डिगे नहीं क्योंकि राष्ट्रवाद के दुष्परिणामों को टैगोर ने संभवतः अच्छी तरह भाँप लिया था। सन् 1917 में एक भाषण में उन्होंने कहा था, “राष्ट्रवाद का राजनीतिक, आर्थिक और संगठनात्मक आधार उत्पादन में बढ़ोतरी और मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल करने का प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि और राजनैतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल की गई है।
शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन से खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाहरी संबंधों के साथ ही राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसे में समाज और व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप हासिल कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है।”
यह भी एक संयोग ही है कि जिस राष्ट्रवाद को 1917 में, टैगोर मानवता के लिए खतरा बता रहे थे, वह तब सही साबित हो गया जब उसी के नाम पर 1939 में ‘द्वितीय विश्व युद्ध’ छिड़ गया और फिर 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी हुई। संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोध में वे आगे लिखते हैं, “राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा है। ऐसा राष्ट्रवाद युद्धोन्मादवर्धक एवं समाजविरोधी ही होगा, क्योंकि राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य द्वारा सत्ता की शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता है।
अक्सर राष्ट्रवाद और ‘देशभक्ति’ को समान अर्थ में ले लिया जाता है, पर इनमें अंतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है। टैगोर ने तो मानवता को सबसे बड़ा माना और कहा कि “जब तक मैं ज़िंदा हूँ, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूँगा।” टैगोर मानते थे कि देशभक्ति चारदीवारी से बाहर विचारों से जुड़ने की आज़ादी से हमें रोकती है। उन्होंने कहा, “देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकती, मेरा आश्रय मानवता है।”
यह हम सब भारतवासियों के लिए गर्व की बात है कि हज़ारों वर्षों से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे उदात्त मूल्य हमारी संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि विश्व को अपना परिवार मानने की हमारी भावना के अनुरूप हमने सदा सबको अपनाया है और हर तरह के संकुचित विचारों को ख़ारिज किया है। इस अनूठी सोच ने हमें पूरी दुनिया में सम्मान दिलाया और विशिष्ट बनाया। समस्त भारत का यह अटल विश्वास रहा है कि हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, न उन्हें कहीं से बाधित किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। (सप्रेस)
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