पत्रकारिता और मीडिया को गड्डमड्ड करना और एक ही समझना ठीक नहीं है| आधी सदी पहले वे दोनों एक सरीखे ही रहे हों, पर आज नहीं हैं। देश के मीडिया के बड़े हिस्से पर कारपोरेट सेक्टर का कब्जा है। आज के समय में दो तरह की पत्रकारिता बची है; एक पत्रकारिता दूसरी स्टेनोग्राफी| जो बोलकर लिखाया गया वही लिखा और प्रकाशित किया गया। यही वजह है कि न पत्रकारिता सुरक्षित है न पत्रकार।
अभी पिछले हफ्ते ही देश के प्रख्यात पत्रकार पी. साईनाथ ने कुछ झकझोर देने वाले सवाल उठाये| ऐसा नहीं कि देश के प्रबुद्ध नागरिक इन सवालों और उनकी प्रासंगिकता से परिचित नहीं, पर साईनाथ के प्रश्नों का महत्व उनकी ईमानदारी, सामाजिक सरोकारों के प्रति गंभीर फिक्र और सृजनशील अनुभव में निहित था| साथ ही उनकी अंतर्दृष्टियों में सच्ची, निर्भीक पत्रकारिता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता साफ़ उभर कर सामने आ रही थी|
साईनाथ ने किसानों की पीड़ा, कोविड से मारे जाने वाले लोगों, उनकी संख्या को तोड़ मरोड़ कर पेश करने की सरकारी कुटिलता, पत्रकारों की दुर्दशा, अपने आर्थिक और राजनीतिक लोभ के कारण बड़े मीडिया हाउस की सरकार की जी-हुजूरी करने की आदत पर चिंता जताई| गाँव में देश के 69 प्रतिशत लोग रहते हैं, पर फिर भी उनकी खबर शायद ही अख़बारों के पहली पन्ने पर कभी छपती हो| यह भी साईनाथ का एक उद्वेलित करने वाला अवलोकन था| किसान अपने ही खेतों में मज़दूर की तरह हो गए हैं इस त्रासद सच्चाई को उन्होंने रेखांकित किया| साईनाथ ‘शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान,’ भोपाल के एक संवाद कार्यक्रम में ‘ऑनलाइन’ बातचीत कर रहे थे|
साईनाथ ने बताया कि हाल ही में जितने भी पत्रकारों की हत्याएं हुईं उनमें अधिकतर ग्रामीण पत्रकार थे और वे क्षेत्रीय भाषाओं में काम करते थे। फिर भी इस संबंध में कोई भी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। सियासी दल और माफिया आंचलिक पत्रकारों को ही निशाना बनाते रहे हैं। उन्होंने आशंका जताई कि भविष्य में ग्रामीण पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ सकती हैं। साईनाथ ने कहा कि कृषि की लागत बढ़ रही है और सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से बच रही है। कृषि को किसानों के लिए घाटे का सौदा बनाया जा रहा है ताकि किसान खेतीबाड़ी छोड़ दें और फिर खेती भी कॉर्पोरेट जगत के लिए धुआंधार फ़ायदे का सौदा हो जाए। देश में बीज, उर्वरक, कीटनाशक और साथ ही कृषि यंत्रों की कीमत तेजी से बढ़ी है। पिछले तीन सालों में कृषि से जुड़ी आय में भारी कमी साईनाथ को चिंतित करती है जबकि खेती में लागत तेजी से बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 4-5 लोगों वाले किसान परिवार की एक महीने की आय लगभग छह हज़ार रुपये है। गौरतलब है कि कृषि संकट सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों का संकट नहीं है, इसका समूचे देश पर व्यापक असर होगा।
साईनाथ की बात की कडवी सच्चाई को किसानों के जीवन, कृषि पर निर्भर लोगों के जीवन और कृषि मज़दूरों के जीवन को गौर से निहार कर ही समझा जा सकता है। आंकड़े अक्सर झूठ बोलते हैं। कर्ज़ माफ़ी बीच-बीच में किसानों को थोड़ी राहत तो देती है, लेकिन यह उनकी समस्याओं का हल नहीं है। साल 2008 में यूपीए सरकार ने कर्ज़ माफ़ी का ऐलान किया था, लेकिन ज़्यादातर किसानों तक इसके फ़ायदे नहीं पहुंच पाए। किसान तो निजी कर्ज़ लेने पर मजबूर होता है और उसे कर्ज माफी का कोई फायदा नहीं मिल पाता| विडंबना यह है कि यही सरकारें हर साल लाखों-करोड़ का कॉर्पोरेट क़र्ज़ माफ़ देती हैं। बड़े उद्योगपति बैंकों के पैसे लेकर लापता हो जाते हैं और किसान गाँव के सूदखोर से कर्ज लेकर पूरी ज़िंदगी उसके बोझ के नीचे पिसता रहता है|
साईनाथ की बातों से एक बार फिर स्पष्ट हुआ कि देश भर में किसानों की कुल आत्महत्याओं में से आधी से ज़्यादा छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में होती हैं। एनसीआरबी के 2015 के आंकड़ों के मुताबिक देश में हुए कुल किसान आत्महत्याओं में से 68 फ़ीसदी इन तीनों प्रदेशों में थी। इससे इन प्रदेशों में गहरे कृषि संकट की सच्चाई सामने आती है। स्पष्ट है कि आत्महत्याएं कृषि संकट की वजह नहीं हैं बल्कि इसका परिणाम हैं।
साईनाथ ने एक कीमती बात यह भी कही कि पत्रकारिता और मीडिया को गड्डमड्ड करना और एक ही समझना ठीक नहीं है| आधी सदी पहले वे दोनों एक सरीखे ही रहे हों, पर आज नहीं हैं। देश के मीडिया के बड़े हिस्से पर कारपोरेट सेक्टर का कब्जा है। साईनाथ ने ख़ास बात यह भी कही कि आज के समय में दो तरह की पत्रकारिता बची है; एक पत्रकारिता दूसरी स्टेनोग्राफी| जो बोलकर लिखाया गया वही लिखा और प्रकाशित किया गया। यही वजह है कि न पत्रकारिता सुरक्षित है न पत्रकार। आज की भारतीय पत्रकारिता पर यह एक तीखा व्यंग था, पर इसकी सच्चाई से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता| जिसे चौथा खंभा कहा गया है, वह एक पतली सी बांस की खपच्ची की तरह एक कांपती हुई, डरी हुई कलम बन गया है|
कोरोनाकाल में जब पत्रकारिता और कवरेज की देश और जनता को सबसे ज्यादा आवश्यकता थी ठीक तब 2000 पत्रकारों की छंटनी कर दी गयी, 10 हजार से ज्यादा तकनीकी तथा सहयोगी स्टाफ को घर बिठा दिया गया। इसके पहले नोटबंदी के समय भी यही हुआ था जब हिन्दुस्तान टाइम्स और टेलीग्राफ सहित कई संस्थानों ने अपने-अपने कई संस्करण बंद कर दिए गए थे। गौरतलब है कि मीडिया कर्मियों या पत्रकारों की छंटनी की खबर अक्सर अख़बारों में छपती भी नहीं| जब कातिल ही मुंसिब हो यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि नौकरी से निकाले गए पत्रकारों के बारे में कोई खबर सूचना के रूप में भी छापी जायेगी!
साईनाथ ने कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की खबर के अपर्याप्त कवरेज की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया| उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनावों में 1700 शिक्षकों की कोरोना से मौत भी बड़ी खबर नहीं बनी। कुम्भ की वजह से जो महामारी फ़ैली उसकी भी अखबारों में चर्चा तक नहीं हुयी। साईनाथ ने साफ़ शब्दों में कहा कि मीडिया बस धंधे में लगी हुई है| जैसे बाकी सभी धंधे सरकारी दबाव में काम करते हैं, वैसे ही मीडिया हाउस भी सरकार के पक्ष में या उसके दबाव में रहते हैं| मेनस्ट्रीम मीडिया को उन्होंने एक अच्छा शब्द दिया—रेवेन्यूस्ट्रीम मीडिया!
साईनाथ ने कहा कि संकट के इस समय में भी ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ जैसी स्वतंत्र न्यूज़ एजेंसी हैं जो ईमानदारी से काम कर रही हैं| जितनी जानकारी उनसे प्राप्त होती है, उतनी जानकारी किसी मेनस्ट्रीम मीडिया में नहीं मिलती| उन्होंने अपील की कि ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ जैसे स्वतंत्र मीडिया का ज्यादा से ज्यादा लोगों को समर्थन करना चाहिए| उन्होंने कहा कि यदि वैकल्पिक या स्वतंत्र मीडिया की ताकत बढ़ेगी उतना ही कॉर्पोरेट मीडिया कमज़ोर बनेगा| उनकी यह बात बहुत ही कीमती रही कि कॉर्पोरेट मीडिया के बारे में सिर्फ शिकायत करने से कुछ नहीं होने को| जरुरत इस बात की है कि स्वतंत्र मीडिया का समर्थन किया जाए| इन सिलसिले में उन्होंने ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ के ख़ास योगदान का उल्लेख किया| (सप्रेस)
लोकजतन व्दारा आयोजित व्याख्यान ‘लुप्त होती पत्रकारिता और छीजता मीडिया’ में पी.साईनाथ। व्याख्यान की लिंक है :
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