आजकल हमारे रोजमर्रा के जीवन में सुबह की सैर एक जरूरी क्रिया हो गई है, लेकिन क्या इसी घुमक्कडी को जीवन के व्यापक आनंद और ज्ञानार्जन में तब्दील किया जा सकता है ? संत विनोबा और आदि शंकराचार्य ने इसी घुमक्कडी के बल पर क्या, कैसा जीवन और ज्ञान हासिल किया, इसे कौन नहीं जानता ?
कुदरत ने हम सबको घुमक्कड़ी करने के लिये ही दो पैर दिये हैं पर ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विस्तार ने पैदल घुमक्कड़ी को पीछे धकेल कर सुबह-शाम के एकरस टहलने की रस्म-अदायगी में बदल दिया है। मनुष्य के एक जोड़ी पैरों ने धरती के चप्पे-चप्पे पर अपनी पद-छाप छोड़ी है। गर्मी से तपता रेगिस्तान हो या हाड़तोड़ ठण्डक वाला हिमालय, सबको घुमक्कड़ी करने वालों ने अपने पैरों से नापा है। घुमक्कड़ी धरती मां की गोद में खेलते रहने जैसा आनन्ददायी अनुभव है जिसे हम सब अपनी जीवन यात्रा में निरन्तर पाते हैं। घना जंगल तो धुमक्कड़ी का अंतहीन खजाना है। दरिया किनारा हो या पहाड़ी नदी के साथ कदमताल करने की आनन्ददायक अनुभूति, इन्हें पैदल घुमक्कड़ी करने वाले ही अनुभव कर पाते हैं। आज साधनों की अति वाली दुनिया में पैदल घुमक्कड़ी का चलन थोड़ा सिमटा है, पर मिटा नहीं हैं। पैदल घूमने का रोमांच ही है कि हम हर क्षण नयी जमीन और नये आसमान के साथ आगे बढ़ते हैं।
जब से मनुष्य ने पहला कदम बढ़ाया, तब से पैदल घूमने की कथा का आरम्भ हुआ है। मानव समाज में कई समूह तो ऐसे हैं जो एक जगह बसते ही नहीं। घूमते ही रहना उनकी जिन्दगी है। मनुष्य मूलत: थलचर प्राणी है, पर पानी में तैरना वह सीख लेता है। भले ही हम साधारण मनुष्य ही क्यों न हों, तकनीक का विस्तार कर आकाश में आवागमन के कई साधनों के बल पर हवा में घुमक्कड़ी कर सकते हैं। इस तरह आधुनिक काल का मनुष्य अपने ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के बल पर, थलचर, नभचर और जलचर, तीनों श्रेणियों के प्राणियों की तरह घुमक्कड़ी का आनन्द उठाने की हैसियत पा गया है।
धरती के घनघोर दुर्गम स्थल तो एक तरह से पैदल घूमने के लिये सुरक्षित हैं। मन का संकल्प और पैरों की ताकत ही मनुष्य को दुर्गम स्थलों से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने का अवसर और अनुभव सुलभ करवाती हैं। शायद इस धरती पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी हैं जो भोजन नहीं, मानसिक आनन्द के लिये घुमक्कड़ी को अपनाता है। घूमने को जीवन का ध्येय बनाने का सीधा-साधा अर्थ है, समूची धरती को अपना घर मानना। इसमें घर खरीदने, बनाने या लौटकर घर आने से मुक्ति है। दुनिया भर में हर जगह ऐसे लोग हैं जिनका अपना खुद का घुमक्कड़ी का दर्शन होता हैं। कुछ लोग आजीवन घुमक्कड़ी करते हैं, कुछ पारिवारिक दायित्व से मुक्त होकर घुमक्कड़ी का दर्शन अपनाते हैं। जगत के विराट स्वरूप से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के लिये घुमक्कड़ी का रास्ता चुनते हैं। वैसे तो जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी घुमक्कड़ी ही है, पर जीवन की घुमक्कड़ी में आजीवन घुमक्कड़ी का आनन्द ही अनन्त है।
घूमने की शुरुआत तरूणावस्था में हो जाय तो घुमक्कड़ी का रोमांच बढ़ जाता है। महात्मा गांधी के सहयोगी काका साहेब कालेलकर का कहना था कि सारे दुर्गम स्थानों को युवा अवस्था में ही घूम लेना चाहिये। जब तन कमजोर होता है, तो घुमक्कड़ी का मन होने पर भी तन की कमजोरी घूमने-फिरने की दुविधाओं को जन्म देती है। जीवन का सत्य भी यहीं है कि युवा अवस्था में मनुष्य का मन हर चुनौती के लिये तैयार होता है या चुनौती को अवसर मानता हैं। तरूणावस्था एक तरह से वरूणावस्था ही है, तूफान की तरह वेगवान और कभी-भी, कहीं-भी गतिशील होने को तत्पर। युवा मन और तन जीवन का सबसे ऊर्जावान कालखण्ड़ है जिसमें जिन्दगी का जोड़-बाकी, गुणा-भाग अजन्मा होता है। इसी से शायद हम सबके लोक जीवन में जोश में होश खोने जैसी बातों का जन्म हुआ।
मानव की जिज्ञासा ने घूमने-फिरने को जी भर के पाला-पोसा है। बहुत पहले के कालखण्ड़ से घूमने-फिरने वाले को ज्ञानी और अनुभवी समझा जाता रहा है। हमारी धरती के चप्पे-चप्पे में फैली विविधतायें मनुष्य को धुमक्कड़ बनने का हर काल में आमंत्रण देती रहती हैं।
साधनों की अति वाली आज की जिन्दगी में बहुत कम लोग तन और मन के साधन के बल पर घुमक्कड़ी की हिम्मत जुटा पाते हैं। आज हम सबका मानस साधन सम्पन्नता वाले पर्यटन की ओर ज्यादा झुका हुआ रहता है। कहां रहेंगे? कहां और क्या खायेंगे? कैसे जायेंगे? जैसे सवाल प्राथमिक चिन्ता हो जाते हैं और घुमक्कड़ी का प्राकृतिक आनन्द गौण हो जाता हैं। हमारी धरती हमारे जीवन की रखवाली है। धरती पर जीवन की सारी अनुकूलतायें उपलब्ध होने से ही धरती के हर हिस्से में मानव सभ्यता का विस्तार हुआ है, पर आज हम व्यवस्था की अनुकूलता के अभ्यस्त होते जा रहे हैं जिसका प्रभाव हमारे मन और तन दोनों पर बहुत गहरे से हुआ है।
जीवन एक यात्रा है। जीवन एक अनुभव है। जीवन एक खुली चुनौती है। जीवन हवा है, पानी है, मिट्टी है, वनस्पति है, जैव-विविधता का अनोखा विस्तार है, जिसमें हर जीवन के लिये जीवन्त बने रहने की भरपूर गुंजाइश है। हमने हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये जो-जो इंतजाम रहने, सोने, खाने और जीने के लिये जुटाये हुए हैं, हममें से अधिकांश उन सबके इतने अधिक आदि हो गये हैं कि तन और मन का साधन ही गौण हो गया है।
आज के काल-खण्ड में हमारे सोच में विकास, विस्तार और बदलाव का एकमात्र अर्थ व्यवस्थागत संसाधनों की अंतहीन जकड़बन्दी होता जा रहा है। आज हममें से किसी के पास यदि सायकल, मोटर-सायकल या स्कूटर, कार या जीप, बस या रेल की सुविधा उपलब्ध न हो तो हम अपने पास कोई साधन उपलब्ध न होने की उद्घोषणा कर कहीं भी आने-जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने में लजाते नहीं है। सब इस तर्क को सहर्ष स्वीकार भी कर लेते हैं। यदि आज कोई अपने पैरों की ताकत से जीना चाहे तो लोग उसे साधनहीन मनुष्य मान कर दया का पात्र समझने लगते हैं।
भूदान का विचार लेकर सारे देश में सतत एक दशक से भी ज्यादा समय तक पदयात्रा करने वाले संत विनोबा भावे ने आदि शंकराचार्य के बारे में लिखा है कि वे दो बार समूचे भारत भर में घूमे। ३२ साल की उम्र तक उन्होंने लगातार काम किया। ग्रंथ लिखे, चर्चा की, समाज की सेवा की और सर्वत्र संचार किया। भारत के एक कोने में, केरल में जन्म हुआ और हिमालय में समाधि ली और अनुभव किया कि अपनी मातृभूमि में ही हूं। उनके खाने के लिये आधार क्या था? झोली। कहते थे-“भिक्षा मांगकर खाओ, क्षुधा को व्याधि समझो और स्वादिष्ट अन्न की आशा मत रखो। जो सहज प्राप्त होगा, उसमें संतोष, समाधान मानो।” यही थी, शंकराचार्य की जीवन-धारा ! और यही उस तन और मन की भी असली ताकत है जिसके बल पर वह जीवन के प्रवाह को घुमक्कड़ी का आनन्द बना देता है।(सप्रेस)