एक जमाने में मिशन माना जाने वाला सामाजिक कार्य आजकल एक व्यवसाय का दर्जा हासिल कर चुका है। ऐसे में जाहिर है, व्यवसाय की रीति-नीति भी सामाजिक कार्यों का हिस्सा बनती हैं। क्या होते हैं, इस बदलाव के नतीजे?
आज यह कोई बहुत छिपी बात नहीं है कि पंजीकृत सामाजिक संस्थाओं के कुछ कर्णधार सत्ताधारियों से नजदीकी बनाकर उनके आभामण्डल में अपने आगे बढ़ने या प्रसिध्दि पाने की राह आसान बनाते रहते हैं। सामान्य की क्या बात करें, कार्पोरेट घरानों या उनके परिवारजनों व्दारा प्रायोजित अथवा संरक्षित संस्थाओं के जिम्मेदार लोग भी ऐसी लालसा पालते रहते हैं। कार्पोरेट घराने अपने कुछ परिवारियों की छवि बनाने के लिये अपने फण्ड से गैर-सरकारी संस्थायें बना देते हैं। इससे वे ‘सोशलाइट’ की छवि भी पा लेते हैं।
निस्संदेह इनमें सीधी रीढ़ की बेहद कमी दिखती है। सामाजिक मुद्दों के लिये जुझारूपन की आशा रीढ़-विहीन संस्थाओं से तो करना ही बेकार है। नेताओं व सरकारों के नजदीक दिखने का मोह सामाजिक संस्थाओं की साख भी गिरा रहा है। सामाजिक संस्थाएं सामाजिक कार्यकर्ताओं व्दारा ही बनाई गई हैं या इनमें काम करने वाले असामाजिक नहीं होंगे, ऐसी गलतफहमी तो अब शायद ही कोई पालता हो।
जन्म चाहे कैसी भी कोख या किसी भी परिवेश में हुआ हो, किन्तु जो संस्थायें अपने को सामाजिक संस्था कहती हों उनसे समाज के पक्ष में अपने को जोखिम में डालकर भी सच कहने की अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए। सामाजिक के साथ-साथ यदि वे अपने को गैर-सरकारी भी घोषित करती हों तो उनसे एक और अपेक्षा यह भी बढ़ जाती है कि वे सरकारी गोद में बैठने या सरकारी ‘गुड-बुक’ में होने के स्वार्थी प्रलोभन से बचेंगी, किन्तु ऐसा हो नहीं रहा है।
एक नहीं अनेक मंचों, अनेक आयोजनों में, चाहे वे किसी भी राज्य के हों, यह देखा जा सकता है कि बाल-शोषण व बालश्रम के विरोध में काम करने वाली संस्थाओं के संस्थापक या अधिकारी उन सरकारों से पाये गये स्वागत या उनके मंत्रियों से मिलने वाली गलबहियों से आल्हादित हो जाते हैं जिन्हें अपने राज्यों में होने वाला बाल शोषण व बाल मजदूर दिखता ही नहीं है। ढेरों बाल मजदूर होने पर भी वहां बाल मजदूर आंकड़ों में ना के बराबर ही होते हैं।
ऐसे ही हिमालय के घाव व हिमालयवासियों की वेदना जिन सरकारों की कारगुजारी से बढ़ी है उन्हीं को हिमालय-बचाओ जैसे सामाजिक अभियानों की भेंट तश्तरी में रखी मिल जाती है। नदियों के प्रदूषण को रोकने के अभियानों के शुभारंभ या समापन का मंच उन सरकारी नेताओं को दे दिया जाता है, जो नदियों पर बांध बनाकर उनसे कमाने का लक्ष्य सर्वोपरी मानते हैं। ज्यादा चिंताजनक तो यह हो रहा है कि जब सामाजिक संस्थाओं का अपना ही आयोजन हो, अपना ही मंच हो व उनके अपने ही अवसर हों तब भी आयोजक सामाजिक संस्थायें सरकारों, सरकारी अधिकारियों या पदाधिकारियों को परियोजनाओं में कुशासन बताने की हिम्मत नहीं करतीं।
कुल मिलाकर बच्चों व महिलाओं की सुरक्षाओं की गोष्ठियों में या नदी, गांव, हिमालय बचाओं जैसी संगोष्ठियों में सरकारों के वे मंत्री, मुख्यमंत्री या शीर्ष अधिकारी ही मुख्य संबोधनकर्ता व दिशा-निर्देश सुझाने वालों की भूमिका में होते हैं जिन्होने विषयागत मुद्दों पर अपने-अपने राज्यों में अपनी नीतियों व कार्यवाहियों से संकट बढ़ाया है।
ऐसी गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाएं अब अपवाद भी नहीं हैं जो कई बार राजनैतिक व कई बार स्वहित के कारणें से सरकारों का मुखौटा व भोंपू बनकर रह गई हैं। वे मुख्यमंत्री, मंत्रियों को समाज के उन सचों को देखने को मजबूर नहीं करतीं जिन्हें वे अपनी छवि खराब न होने के डर से एक सिरे से नकारते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि समाज में शोषण का प्रतिरोध व सही आंकड़ों को पस्तुत करने के साहस में कमी आती है।
सरकारों से लड़ना भी न पड़े व लोगों की नजर में आपकी गैर-सरकारी व सामाजिक होने की पहचान भी बनी रहे इसलिए कई पंजीकृत या अपंजीकृत गैर-सरकारी संस्थायें अपने को अब ‘डेवेलेपमेंट एजेन्सी’ कहलाना पसन्द करती हैं। इनके एजेण्डा में सामाजिक आन्दोलनों में भागीदारी के लिए अपने को या समाज को गतिशील व जागरूक करना नहीं होता। हालांकि ऐसी संस्थायें ‘परियोजना मोड’ में वित्तीय अनुबंधों में किये गये अपने कार्यों को भी सामाजिक कार्य ही मानती हैं। वे बजाये सरकारों के विरोध में जाने के नीतिगत रूप से सरकारों के साथ ही दिखना ज्यादा पसंद करती हैं। ऐसे में वे सरकारों के लिए चुनौतियां नहीं, बल्कि उनके लिए चारा बन जाती हैं।
ऐसी परिणितियों पर चिन्तित होने या ग्लानि अनुभव करने के बजाये तथाकथित गैर-सरकारी संस्थायें अपनी संस्था के पदाधिकारियों की सत्तारूढ़ नेता, मंत्रियों, अधिकारियों के साथ मंच साझा करने को उपलब्धि मानती हैं। दुखद यह रहता है कि ऐसे साझा मंचों से गलत सरकारी आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण व बयानबाजी होती है। उनका तत्काल विरोध करने का साहस ऐसी गोदी-संस्थाओं के पदाधिकारी या प्रतिनिधि नहीं जुटा पाते हैं। निस्संदेह ऐसा आचरण एक सामाजिक संस्था या सामाजिक कार्यकर्ता का नहीं हो सकता।
ईमानदार, निस्वार्थ सामाजिक कार्यकर्ता व संस्थाओं की नियति सदैव प्रतिपक्ष के खेमे में दिखने की होती है। जब आप कुशासन या गलत नीतियों, स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षा या मानव अधिकारों के हनन का प्रतिकार करने वाले लोगों के दमन को रोकने के लिए खड़े होंगे, तो आपका कदम स्वाभाविक रूप से उस समय के सत्तारूढ़ दल या प्रशासन के विरूद्ध ही होगा। ऐसे में आप पर विपक्षियों के समर्थक होने का आरोप तो लगेगा ही। अब यदि फिर विपक्ष सत्तापक्ष बन जाता है तो आप उसी पक्ष के, जिसके सहयोगी होने का लांछन आप पर पहले लगा था, विरोधी दिखेंगे। यदि गैर-सरकारी संस्थायें अपने लिए ‘इनडिपेन्डेट सैक्टर’ या स्वतंत्र क्षेत्र का विशेषण पसन्द करती हैं तो उन्हे समाज के हित में सरकारों को आइना दिखाने का साहस बचाये व बनाये रखना चाहिए।
सामाजिक संस्थाओं में व्यवहार व चरित्र का बदलाव इस कारण से भी आया है कि सामाजिक संस्थायें जनता के सहभागी चंदों से नहीं चलतीं। अब छोटे-बड़े परियोजना अनुदानों की जुगत से ही वो चलना चाहती हैं। खुले आम सरकारी टेण्डर विज्ञप्तियों के प्रत्युत्तर में वे आवेदन भी करती है। इनमें किसी विशेष सरकारी परियोजना के लिये जनसहभागिता जुटाने की ठेकेदारी होती है। एनजीओ बनाकर काम करना अब सरकारों ने भी कई दशकों से शुरू किया है। यह जीएनजीओ की नई, ज्यादा शक्तिशाली श्रेणी है। कार्पोरेटों व्दारा अपने ही सीएसआर खपाने का या राजनैतिक नेताओं, दलों को उनकी सामाजिक संस्थाओं को उपकृत करने की भी अलग गाथा है। (सप्रेस)
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