सत्यम पाण्‍डेय

जनसंख्या की जिस वृद्धि को अब तक दुनियाभर में एक संकट की तरह माना जाता था वह आजकल सत्ता और संख्या या आंकडों की राजनीति चमकाने के काम आने लगी है। भारत में चुनाव जीतने से लगाकर विकास के क्षेत्रीय असंतुलन तक हर क्षेत्र में जनसंख्या की अहमियत काबिज होने लगी है और नतीजे में जनसंख्या के आंकडों का दुरुपयोग होने लगा है।

जनसंख्या का जिन्न एक बार फिर से चिराग के बाहर आ गया है और आशंका है कि आने वाले चुनावों में वह अपना रंग दिखाकर जाएगा। हालिया मसला उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जारी की गई जनसंख्या नीति को लेकर उत्पन्न हुआ है। देश की जनसंख्या में तेज गति से होने वाली वृद्धि को कम किया जाए, इससे किसी को क्या ऐतराज हो सकता है, लेकिन ये नीति अगर देशभर में व्यापक विवादों के दायरे में है तो जाहिर है, योगी सरकार अपने मकसद में एक हद तक सफल दिखाई दे रही है।

इस मुद्दे का विश्लेषण सांप्रदायिक आधार पर होने लगा है जो चुनाव जीतने की खातिर अपेक्षित ध्रुवीकरण के लिए जरूरी था। पूरे पाँच साल तक रोजी-रोटी-शिक्षा और स्वास्थ्य आदि सवालों पर परेशान रहने वाले हमारे देश में चुनाव आते ही हवाओं में सांप्रदायिक जहर घुलना अब इतना स्वभाविक हो गया है कि किसी को आश्चर्य नहीं होता। कोई हैरत नहीं है कि अभी महज दो माह पहले ही जिस राज्य की पवित्र नदियों में हजारों लाशें बहती हुई दिखाई दे रही थीं, वहाँ चुनाव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की चर्चा तक नहीं हो रही है।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के उस इशारे को फिलहाल नजरंदाज करें, जिसमें वे प्रस्तावित जनसंख्या नीति का एक मकसद – विभिन्न समुदायों के बीच जनसंख्या संतुलन कायम करना – बताकर अपना कार्ड खेल देते हैं। सवाल है कि क्या देश को फिलहाल इस तरह की किसी नीति की जरूरत है जिसके अंतर्गत दो से अधिक बच्चों को पैदा करने वालों को कोई सजा दी जाए? आखिर सरकारी नौकरियों और चुनाव लड़ने के लिए दो से कम बच्चों की शर्त लगाना भी एक सजा ही है।

मध्यप्रदेश समेत देश के अनेक राज्यों में इस तरह की नीतियाँ आती रही हैं और बिना किसी उल्लेखनीय फायदे के उन्हें वापिस भी लिया जाता रहा है। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार यह नीति लेकर आई थी और कहते हैं कि दिग्विजय सिंह को सत्ता से बाहर करने में एक भूमिका इस योजना की भी रही थी। भाजपा की सरकार ने सत्ता में आकर इस नीति को हटा दिया था। महाराष्ट्र की कांग्रेस-शिवसेना गठबंधन सरकार अभी भी इस तरह की एक योजना को चला ही रही है।

आबादी नियंत्रण का सबसे कुख्यात प्रयास आपातकाल के दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में संचालित किया गया था। आपातकाल और इंदिरा गांधी को जनता के बीच सबसे अधिक आलोचना और आलोकप्रियता नसबंदी अभियान से ही मिली थी। बाकी अन्य मुद्दों को जनता ने जल्दी ही भुला दिया था और महज तीन साल में ही इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बन गई थीं। तो ऐसा क्या है कि किसी और पार्टी की सरकार जब जनसंख्या नियंत्रण की कोशिश करती है तो उसे जन-विरोध का सामना करना पड़ता है, परंतु जब भाजपा इस मुद्दे को पेश करती है तो उसे सकारात्मक रूप से लिया जाता है?

इस गुत्थी को देश के उस खास रसायन को जाने बिना नहीं समझा जा सकता जिसे भाजपा ने अन्यों से अधिक समझ लिया है और वह है अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों पर होने वाला असर। भाजपा हर एक विमर्श को मुसलमान केंद्रित करने की कला में माहिर है और बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने का हुनर इससे जुड़ा हुआ है।

क्या भारत को इस समय जनसंख्या रोकने की आक्रामक नीति की जरूरत है? इसका जवाब जानने के लिए हमें यह देखना होगा कि क्या देश जनसंख्या के किसी भयानक विस्फोट से गुजर रहा है- जैसा मीडिया में पेश किया जाता है अथवा कोई और ही तस्वीर हमारे सामने है? चूंकि जनगणना – 2021 अभी तक ठीक से शुरू नहीं हो पाई है और अंतिम आंकड़ों के आने में बहुत समय लगेगा, इसलिए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे – 2015-16’ से हम कुछ मदद ले सकते हैं। इस शासकीय सर्वे के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति दम्पत्ति प्रजनन दर फिलहाल 2.1 है। अर्थात देश ‘हम दो- हमारे दो’ के उस लक्ष्य को हासिल करने के एकदम नजदीक है जो जनसंख्या की बढ़ोतरी को एक तरह से रोक ही देता है।

देश के अनेक राज्यों- केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, गोवा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल ,दिल्ली, तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र आदि में तो यह दर दो से भी कम पर आ गई है और दो साल पहले आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने ऐलान किया था कि दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले दंपतियों को सरकार की ओर से प्रोत्साहन दिया जाएगा। इसका सीधा सा अर्थ है कि इन राज्यों में जनसंख्या के बढ़ने की रफ्तार तकरीबन थम गई है।

इसी रफ्तार से हम आगे बढ़ते रहे तो अगले दो दशकों में लोग जनसंख्या बढ़ाने की अपील करते हुए नजर आएंगे। दरअसल यदि हमें पर्याप्त कामकाजी आबादी की जरूरत है और देश को आज की तरह एक युवा देश बनाए रखना है तो प्रति दम्पत्ति प्रजनन की दर को दो से अधिक रखना ही होगा। अर्थात हर परिवार में दो बच्चे तो होने ही चाहिए अन्यथा हम अगली पीढ़ी में कुशल और क्रियाशील जनसंख्या के अभाव से जूझने लगेंगे। दरअसल जनसंख्या को संसाधन बनाकर देश के विकास में उसका इस्तेमाल करने की नीति के बारे गंभीरता से विचार होना चाहिए।

चीन ने भी दशकों पहले अपने यहां दो बच्चों की नीति लागू की थी। कोशिश तो प्रति परिवार एक बच्चे की नीति को प्रोत्साहित करने की भी थी, लेकिन नतीजा क्या हुआ? आज चीन में इसके खतरनाक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। अब चीन सरकार ने इस नियम को हटाकर तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति दे दी है। पति-पत्नी और एक बच्चे की नीति की सबसे ज़्यादा मार महिलाओं पर पड़ी। महिलाओं को मजबूरी में कई बार गर्भपात का सहारा लेना पड़ा और बेटों की चाह में नवजात बच्चियां मार दी गईं।

यहां तक कि विवाह के लिए लड़कियां मिलनी मुश्किल हो गईं तो पडौस के देशों से महिलाओं की तस्करी शुरू हो गई। दूसरी तरफ देश की आबादी में युवाओं की भागीदारी लगातार कम होने लगी और देश बूढ़ों का देश बनने लगा। 35 साल तक चली इस नीति में चीन को 2015 में ढील देनी पड़ी और दो बच्चों की नीति शुरू की गई, पर जनसंख्या में गिरावट इतनी तेज हो गई कि अब चीन तीन बच्चों की पॉलिसी लेकर आया है।  

उत्तरप्रदेश के एक सांसद कह रहे हैं कि मुसलमान चार शादियाँ करते हैं और चालीस बच्चे पैदा करते हैं। असल में यह एक मिथक है जिसे राजनीति ने बरसों की मेहनत और गोदी मीडिया के मध्यम से रचा है। एक तो चार शादियों वाली यह बात ही सिरे से झूठ है। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार देश में लिंगानुपात 943 है, अर्थात प्रति एक हजार पुरुषों पर सिर्फ 943 महिलायें हैं। यह खराब अनुपात है और देश के कुछ राज्यों, जैसे – केरल और उत्तर-पूर्व के राज्यों में ही स्थिति जरा बेहतर है। सबसे बेहतर हालत आदिवासी बहुल क्षेत्रों में दिखती है जहां स्त्रियों की संख्या पुरुषों के बराबर या उनसे ज्यादा है।

मुसलमानों में यह संख्या और भी कम है। हर मुस्लिम पुरुष के लिए विवाह करने हेतु औसतन एक महिला भी उपलब्ध नहीं है। फिर चार शादियाँ सिर्फ मजहबी कानून की किताबों में अथवा प्रचार में ही संभव हैं। जनगणना के आँकड़े ही बताते हैं कि महज चार फीसदी मुस्लिमों ने ही एक से अधिक विवाह किये हैं। इसी तरह अधिक बच्चे पैदा करने वाला दावा की तथ्यों पर आधारित नहीं है। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे’ के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार प्रति मुस्लिम दम्पत्ति की प्रजनन दर 2.6 है। यानि कुल मिलाकर प्रति मुस्लिम परिवार में बच्चों की औसत संख्या तीन से कम है।

मुसलमानों की ‘दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर’ 2001-11 के बीच 24 प्रतिशत रही है जो राष्ट्रीय दर से बेशक अधिक है, परंतु पिछले दशक में राष्ट्रीय वृद्धि दर में जहां तीन प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, वहीं मुसलमानों की वृद्धि दर में यह गिरावट पांच प्रतिशत से भी अधिक है। इसका मतलब यही है कि देश के अन्य समुदायों की तरह मुसलमानों में भी बच्चों की संख्या जागरूकता और शिक्षा के बढ़ने के साथ-साथ कम हो रही है। राजनेता दावा कर रहे हैं कि आने वाले कुछ दशकों में मुस्लिम आबादी हिंदुओं से अधिक हो जाएगी, लेकिन जाहिर है, न ऐसा हुआ है और न होने वाला है।

देश के अनेक राज्यों में जनसंख्या की रफ्तार अभी भी तेज है, लेकिन अनेक राज्य ऐसे भी हैं जहां यह गति राष्ट्रीय औसत से कम है। इनमें से किसी भी राज्य में जनसंख्या नियंत्रण का जबरिया कानून या नीति लागू नहीं है, बल्कि यहाँ पर यह गिरावट जागरूकता और शिक्षा के प्रसार से ही दर्ज की गई है। आर्थिक परिस्थितियों और महिलाओं के व्यावसायिक कामकाज में आने की भी वजह से बच्चों की संख्या कम हो रही है। जनसंख्या की गति शिक्षा, रोजगार, जागरूकता और समृद्धि को बढ़ाकर ही रुकेगी, कोई कानून शायद ही इसे रोक पाएगा। (सप्रेस) 

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