कविता कबीर

भूमंडलीकरण के बाद के सालों की केन्द्र और राज्य की सरकारों ने सरकारी क्षेत्र के तमाम उद्यमों को मिट्टी मोल निजी हाथों में सौंपा है। इस सिलसिले की ताजा शिकार रेलवे हो रही है जिसे मुनाफे के पारंपरिक और ‘नो फ्री-लंच’ के आधुनिक बहानों की मार्फत निजी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। कविता ने यह लेख ‘सेंटर फॉर फाइनेन्शियल अकॉउन्टेबिलिटी’ (सीएफए) की ‘स्मितु कोठारी फैलोशिप’ के तहत किए अपने शोध के आधार पर लिखा है।

पिछले बजट सत्र (2020-2021) से ही सरकार ने अनेक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण की घोषणा की है। भारतीय रेल इनमें से एक है। सरकार ‘एसेट मॉनीटाइज़शन’ के द्वारा रेलवे से 90,000 करोड़ रुपयों की वसूली चाहती है। सरकार का कहना है कि अनेक संपत्तियां बिना उपयोग के पड़ी हैं। इनमें जमीन सबसे ऊपर है। आज रेलवे के पास 4.81 लाख हेक्टेयर जमीन है, 12,729 लोकोमोटिव, 2,93,077 मालवाहक और 76,608 यात्री कोच हैं।

वर्ष 2019-20 में रोज़ाना 2.215 करोड़ यात्रियों ने रेल में सफर किया है जिसके लिए रेलवे ने रोज़ाना 13,169 यात्री रेलें चलायी हैं। इसके अलावा रेलवे अस्पताल, स्कूल, संग्रहालय आदि चलाती है। अपने स्टाफ की जरूरतों के लिए रेलवे के पास एक डिग्री कॉलेज और 99 स्कूल हैं जहाँ सब्सिडी पर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलती है। 87 केंद्रीय विद्यालय भी रेलवे की जमीन पर बने हैं जो सभी शहरों में खासे लोकप्रिय हैं। जाहिर है, निजी क्षेत्र की लालची निगाहें रेलवे के इन संसाधनों पर हैं। सभी शहरों में बने रेलवे स्टेशन और उसके आस-पास की जमीन आज ‘प्राइम – प्रॉपर्टी’ बन चुकी हैं। 

भारतीय रेल का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना नहीं हैं। इसकी शुरुआत बेशक ब्रिटिश सरकार द्वारा की गयी थी, परन्तु इसका विस्तार और विकास आज़ाद भारत में ही हुआ। आज भारत की अर्थव्यवस्था में इसका बहुत बड़ा योगदान है। रेलवे का मकसद ही है कि सब लोगों को उचित मूल्य पर सेवा मिले। इसी कारण लॉक डाउन के दौरान जब कोई भी वाहन सेवा नहीं चल रही थी, तब रेलवे ने ही श्रमिक गाड़ियां चलाकर प्रवासी मज़दूरों को उनके घरों तक भेजा था। क्या कोई प्राइवेट कंपनी ऐसा कर सकती थी?

आज इंग्लैंड में लगभग सारा ही रेल नेटवर्क निजी क्षेत्र के पास है। कोरोना महामारी के दौरान इन निजी कंपनियों को भारी घाटा हुआ है जिसके चलते उन्होंने रेल सेवा को बंद करना उचित समझा। रोज़मर्रा की रेल सेवाओं को जारी रखने के लिए और जरूरी कामकाजी लोगों के परिवहन की सुविधा के लिए वहां की सरकार को 3.5 अरब पाउंड्स इन निजी कंपनियों को देने पड़े। भला सरकार क्यों निजी कंपनियों का नुक्सान उठाये? इंग्लैंड के इस भयानक अनुभव को देखने के बाद सवाल उठता है कि भारत सरकार क्यों रेलवे को बेचना चाहती है?

सन् 2017 में रेल बजट को केंद्रीय बजट के साथ यह सोचकर मिला दिया गया था कि रेलवे अपने खर्च अपनी आय से संतुलित कर लेगी और वित्त मंत्रालय केवल निवेश सम्बंधी बजटीय सहायता देगा। रेलवे बजट की फंडिंग के तीन प्रमुख स्त्रोत हैं- पहला – सरकार से बजटीय मदद, दूसरा – अतिरिक्त बजटीय संसाधन, जिनमें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और सार्वजनिक-निजी साझेदारी शामिल हैं और तीसरा – रेलवे के खुद के संसाधन और कमाई।

भारतीय रेल को निवेश की भारी जरूरत है, पर सरकार ने समय-समय पर इससे अपना हाथ खींचा है। वर्ष 2019-20 में रेलवे की ‘संसदीय स्थायी समिति’ की रिपोर्ट के मुताबिक रेलवे को उस साल 1,61,042 करोड़ रुपए मिलना थे, जिसमें 70,250 करोड़ की सरकारी मदद, 83,292 करोड़ रुपए की अतिरिक्त बजटीय मदद और 7,500 करोड़ रुपए निजी संसाधनों से जुटाना थे। बाद में सरकार ने अपने निवेश की रकम को घटाकर केवल 29,250 करोड़ रुपए कर दिया, यानि 41,000 करोड़ रुपए से रेलवे को वंचित रखा गया। 

रेलवे  को  लेकर सरकार की योजनाएं तो बहुत बनी हैं पर उन पर अमल उतना नहीं हुआ है। वर्ष 2019 में ‘नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन’ योजना आयी जिसके अनुसार सरकार आने वाले 6 वर्षों में रेलवे पर 13.6 लाख करोड़ का निवेश करने वाली थी। इस योजना के अंतर्गत 2025 तक 500 निजी रेल चलाने का एलान किया गया था। योजना में 30% मालगाड़ियों और 30% रेलवे स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने की घोषणा की गयी थी। वित्त-वर्ष 2020 तक इस योजना में 1,33,232 करोड़ रुपए और वित्त-वर्ष 2021 तक इस योजना में 2,62,510 करोड़ रूपए का निवेश होना था, लेकिन 2020-21 के बजट में सरकार ने इस योजना का नाम तक नहीं लिया। 

नए बजट में नयी योजना आ गयी है जिसका नाम है ‘नेशनल रेलवे प्लान।’ वित्तमंत्री ने रेलवे को इस बजट में 1,10,055 करोड़ रुपए उपलब्ध करवाने का वादा किया है। ‘नेशनल रेलवे प्लान’ के मुताबित सारी मालगाड़ियों का 2031 तक निजीकरण कर दिया जायेगा। इसके अलावा 90 रेलवे स्टेशन और भारी मुनाफा कमाने वाली वातानुकूलित गाड़ियों को भी निजी हाथों में दे दिया जायेगा। यहाँ ये बता देना जरूरी है कि रेलवे केवल वातानुकूलित गाड़ियों से ही थोड़ा-बहुत मुनाफा कमाती है।

ज्यादातर यात्री गाड़ियाँ चलाने पर रेलवे को नुक्सान ही होता है। इस नुकसान की भरपाई रेलवे अपनी माल-वाहक गाड़ियों से करती है। दरअसल रेलवे सामाजिक दायित्व के सिद्धांत पर चलती है इसलिए वो लाभ की चिंता किये बगैर यात्रियों को सब्सिडी देकर रेल भाड़े को कम रखती है। यही कारण है कि गरीब-से-गरीब आदमी भी रेल को अपनी जिंदगी के अहम् हिस्से के रूप में देखता है और अपनी रोज़ी-रोटी व सफर के लिए उस पर निर्भर रहता है।  

भारतीय रेल के निजीकरण में एक और चीज़ गौर करने लायक है- जो कंपनियां रेलवे में निवेश करेंगी उन्हें बस गाड़ियों को चलाने का खर्च करना है। ड्राइवर, गार्ड आदि रेलवे की तरफ से होंगे और निजी गाड़ियां रेलवे की ही बनी-बनाई पटरियों पर चलेंगी। और-तो-और उनकी बुकिंग भी रेलवे की ही कंपनी ‘आईआरसीटीसी’ द्वारा की जाएगी। क्या इन सबसे रेलवे का नुकसान बढ़ नहीं जायेगा?

रेलवे या आम लोगों का निजीकरण से क्या फायदा होगा? रेलवे केवल अपना खर्चा लेगी। जैसे कि स्टेशन इस्तेमाल करने का शुल्क, रेलवे इंजन, बिजली, ट्रैक और सिग्नल के इस्तेमाल का शुल्क इत्यादि। निजी कंपनियाँ अपने दाम खुद तय करेंगी। आने वाले दिनों में जिस तरह आप हवाई यात्रा के दामों में उछलकूद देखते हैं वैसे ही नज़ारे, यानि ‘डायनामिक प्राइसिंग’ रेल की टिकेटों में भी दिखेगी।  

रेलवे द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं की अक्सर बात की जाती है। बहुत से लोगों का मानना है कि निजी गाड़ियों के आने से रेल सुविधाएँ बढ़ जायेंगी और स्टेशन, हवाई अड्डों जैसे चमक उठेंगे। ऐसे में निजी रेल ‘तेजस’ का अनुभव याद कर लेना चाहिए जिसने कोरोना महामारी की शुरुआत होते ही नुक्सान के डर से अपनी सेवाएं बंद कर दी थीं और अपने कर्मचारियों को निकाल दिया था।

ब्रिटेन की निजी रेलगाड़ियों पर भी नज़र दौड़ानी चाहिए। वहाँ का सारा रेल नेटवर्क 28 निजी कंपनियों के हाथों में है। भीड़ से भरी लंदन की ट्यूब के नज़ारे आपने शायद कुछ फिल्मों में देखे हों। भीड़ तो वहाँ आम है ही, साथ ही वहाँ के लोगों को और भी दिक्कतों का सामना करना पड रहा है – टिकट के दाम आसमान छू रहे हैं। उस पर भी टिकट मिलते नहीं, मिल जाएँ तो कई बार उचित संख्या में यात्री न मिलने पर ट्रेनें कैंसिल हो जाती हैं। रेल की पटरी और सिग्नल इत्यादि के रख-रखाव का काम एक अलग कंपनी के हाथों में हैं जिससे तालमेल की दिक्कत तो होती ही है, साथ में दुर्घटनाएं भी हो रही हैं। ट्रैन नेटवर्क शहरों में सिमटकर रह गया है। दूर-दराज़ जाने वाली लाइनों को लाभकारी न होने के कारण बंद कर दिया गया है।  

हमारे भीषण गैर-बराबरी वाले देश में निजीकरण के बाद रेलवे कुछ लोगों तक ही सिमट जायेगी और गाँवों, छोटे शहरों और कस्बों तक फैला रेल नेटवर्क बर्बाद हो जायेगा। यह एक आर्थिक आत्महत्या जैसा कदम होगा। लोगों के यातायात की परेशानियों का तो कोई अंत ही नहीं होगा। 

रेलवे को भारी निवेश की जरूरत है, पर याद रखना होगा कि रेलवे करदाताओं के पैसों पर देश के लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया एक बड़ा नेटवर्क है। दूसरे, अधो-संरचना जैसे क्षेत्र में दुनिया की सारी सरकारों ने खुद ही निवेश किया हैं। चीन हमसे 11 गुना अधिक निवेश करता है और आज वहां की तीन पब्लिक सेक्टर कंपनियां (गौर कीजिये, सरकारी कंपनियां !) ‘फार्च्यून-500’ की सूची के ऊपरी पांच में हैं। 

आज इंग्लैंड में रेलवे  के पुनः राष्ट्रीयकरण की बात चल रही है। आम नागरिकों और नागरिक समूहों द्वारा रेल के राष्ट्रीयकरण को लेकर ‘ब्रिंग बैक ब्रिटिश रेल,’ ‘पॉवर फॉर द पीपुल,’ ‘एक्शन फॉर रेल’ और ‘वी ओन इट’ जैसे बड़े अभियान चलाये जा रहे हैं। लेकिन हमारे देश में कुछ के लाभ के लिए पूरे देश को ही गिरवी रखा जा रहा है। सरकार की रेलवे निजीकरण की नीति का मतलब है, लाभ का निजीकरण और अपना और जनता का नुकसान। सरकार को चाहिए कि देश की साधारण जनता और गरीब तबकों की भी सुने जिन्हें कोरोना महामारी, बेरोज़गारी और भयानक महंगाई ने पहले ही दबोच रखा है। (सप्रेस)

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