1 मई / अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस
कोविड-19 के दौर और एक मई का दिन यानी मजदूर दिवस, हमें इस बात का आईना दिखाता है कि कोविड महामारी के दौर में सबसे ज्यादा अन्याय जिसने सहा वह है हमारा मजदूर वर्ग। इस साल, भारत महामारी की और ज्यादा घातक दूसरी लहर की चपेट में है। हर रोज, कोविड से मौतें और संक्रमण के नए रिकॉर्ड सामने आ रहे हैं। हालांकि, फ्रंटलाइन वर्कर्स, विशेष रूप से स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के सेवा कार्य और बलिदान की महानता को पूरी दुनिया ने स्वीकारा है, वहीं, भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर संकट के इस मोर्चे पर बिना उचित सुरक्षा व्यवस्था के लगातार अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं।
भारत के अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की संख्या दुनिया की आबादी का छह प्रतिशत से अधिक, आधे अरब के लगभग है। दुनिया भर में मजदूर वर्ग एक ऐसा तबका है, जो पीढ़ियों से असहाय और हाशिए पर है। भारत में भी, ज्यादातर अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की यही दशा है, जो उन पिछड़े तबकों से आते हैं जो समाज में ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित हैं, जो जनजाति समूहों से ताल्लुक रखते हैं जिनसे पारिस्थितिकीय संसाधनों के संरक्षक होने का हक उनसे छीना गया, और अल्पसंख्यक वर्ग जिन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया। अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर, जो पहले से ही पिछले साल के लॉकडाउन की मार से त्रस्त थे, गर्त में जा रही अर्थव्यवस्था में अपने जीवनयापन के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं।
भारत में श्रमिक वर्ग का 90 प्रतिशत से भी अधिक अलग-अलग क्षेत्रों और श्रेणियों में विभाजित है, कई मामलों में श्रमिक अलग वक्त पर अलग-अलग नौकरियों, ट्रेडों और सेक्टरों में भी काम करते हैं, लेकिन फिर भी खुद के और परिवार के जीवन स्तर में सुधार से नाउम्मीद हैं। कोविड महामारी के दौर में मोर्चे पर डटे फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में बहुत से अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक हैं, जो गुमनामी में रहकर खुद को जोखिम में डालकर समाज की सेवा में लगे हैं। उनमें वो लोग हैं, जो अस्पताल में, मुर्दाघरों में, श्मशान में, कब्रिस्तान के कामों में दिन रात लगे हैं। उनमें घरेलू कामगार शामिल हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं, हैं, जो उन बीमार लोगों की देखभाल कर रही हैं, जिन्हें भीड़भाड़ वाले अस्पतालों में जगह नहीं मिली। उनमें सफाईकर्मी और कचरा बीनकर गुजारा करने वाले लोग हैं। उनमें ठेले, खोमचे, रगड़ी-पटरी लगाने वाले लोग हैं, जिनका लॉकडाउन के कारण रोजगार छिन गया। और उनमें वैसे लोग भी हैं, जो भोजन, पानी और जरूरत का सामान लोगों के घरों तक पहुंचाते हैं।
एक ओर जहां समाज का उच्च और मध्यम वर्ग जो सामान्यतः वेतनभोगी हैं, महामारी के संक्रमण से बचने के लिए अपने अपने घरों में बंद हैं, वहीं अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर और वो जिन्हें हम फ्रंटलाइन कार्यकर्ता कहते हैं, उनके पास संक्रमण से बचने के लिए अपने घरों में बंद होने का विकल्प भी नहीं है।
आज अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर, अगली पंक्ति में खड़े होकर महामारी से लड़ रहे, महामारी के फैलाए विनाश को साफ करने में लगे उन सभी लोगों के नाम बस वाहवाही देना काफी नहीं होगा।
उन लोगों के लिए जो अपनी जान जोखिम में डालकर अर्थव्यवस्था के पहिए को चलाने में लगे हैं, उद्योगों को जारी रखने में लगे हैं, हमारे शहरों और समाज को हमारे रहने के लायक बनाते हैं, जिनकी वजह से हमारे बंद घरों तक खाना, कपडा, और जरूरत का सामान पहुंचता है, उन सभी कामगारों, मेहनतकशों के सामने हमें नतमस्तक होने की जरूरत है। हम सब जो अपने अपने घरों में बंद रहकर जीने के लिए दूसरों के काम और उनकी मेहनत पर निर्भर है, हमें यह मालूम होना चाहिए कि हम उनके ऋणी हैं। हमारी सरकारें, जिनका उद्देश्य जनता की सेवा करना है, को श्रमिकों के साथ हो रहे अन्याय को पहचानने की जरूरत है। और यही नहीं पीड़ित वर्ग को न्याय दिलाने के लिए तत्पर होना होगा।
सभी फ्रंटलाइन कार्यकर्ता, जिन्हें संक्रमण का खतरा है, उन्हें आवश्यक व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) और स्वच्छता उपकरण तत्काल उपलब्ध करना अनिवार्य है। इसमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सफाई कर्मी, शवगृह, कब्रिस्तान और श्मशान घाट के काम करने वाले, कचरा बीनने वाले और सफाई करने वाले, घरों में सामान पहुंचाने वाले और घरों में बीमार लोगों की सेवा में लगे लोग शामिल हैं। इस समय घरेलू कामगार उन सेवा प्रदाताओं के रूप में उभर रहे हैं, जो कोविड -19 से पीड़ित परिवारों की देखभाल और सेवा कर रहे हैं, जिन्हें अस्पतालों में जगह की कमी के कारण घर पर रहकर इलाज लेना पड़ रहा है।
कोविड महामारी के इस दौर में लॉकडाउन, आवाजाही पर पाबंदी और स्वास्थ्य के जोखिम के डर से लोगों का रोजगार खत्म हो रहा है, और इनमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है। कई शहरों में लोगों ने घरेलू कामगारों को काम पर रखना बंद कर दिया है। पिछले साल के लॉकडाउन के दौरान, ज्यादातर घरेलू कामगारों को सरकारों द्वारा जारी राहत पैकेजों का लाभ नहीं मिल पाया था, और घरेलू कामगारों के परिवार कर्ज में डूब गए और आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई। विभिन्न क्षेत्रों में अनौपचारिक श्रमिकों के लिए काम की अनिश्चतता की बढ़ी है। आज जब पूरा देश कोविड-19 की दूसरी लहर से जूझ रहा है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल के लॉकडाउन में रातों रात आजीविका खोकर शहर छोड़ने को मजबूर हुए, मीलों पैदल चलकर और जैसे तैसे अपने घरों को पहुंचे ज्यादातर मजदूरों ने अपने और परिवार के जीवन को पटरी पर लाने के लिए हिम्मत जुटाकर फिर से काम करना शुरू किया था और अब, आवागमन पर पाबंदी और बीमारी के डर से कई प्रवासी श्रमिक फिर अपने घर गांवों में लौट रहे हैं।
एक्शनएड एसोसिएशन इंडिया ने अप्रैल महीने में ओडिशा, बिहार, असम, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के शहरों में किए गए एक सर्वे में पाया कि बड़ी तादाद में प्रवासी श्रमिक एक बार फिर अपने गृह जिलों में वापस आ रहे हैं। अपने गाँवों में श्रमिकों को तीन तरफा संकट का सामना करना पड़ रहा है, गर्मी का मौसम होने के कारण कृषि कार्य बंद हैं, गांवों में जातिगत भेदभाव की समस्या और शहर से गांव की यात्रा के दौरान कोविड के संक्रमण के खतरे से बीमार पड़ने का जोखिम। सर्वे में यह भी पता चला है कि महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, केरल, राजस्थान और पश्चिम बंगाल से लौटने वाले श्रमिकों के लिए महंगी यात्रा भी एक बड़ी समस्या रही। एक तरफ जहां सिविल सोसाइटी के एक हिस्से के रूप में एक्शनएड एसोसिएशन इंडिया जिला स्तर पर हेल्पलाइन और बातचीत के जरिए पहुंच के माध्यम से अनौपचारिक श्रमिकों को भोजन और नकद सहायता प्रदान करने की पहल की है, लेकिन पिछले साल के कोविड-लॉकडाउन आघात को भूल पाना मुश्किल है, जिसके कारण लाखों लोग बेरोजगार और बेबस हो गए। निश्चित रूप से हम सब का साझा प्रयास होना चाहिए कि उस भयावह स्थिति को फिर से दोहराने से रोकना है।
इस प्रयास को सफल बनाने के लिए, वो सभी सहायता और सुरक्षा व्यवस्था जो एक कल्याणकारी राज्य का वादा है, उसे हर एक के लिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए। सबके लिए निःशुल्क और सार्वभौमिक टीकाकरण, सुरक्षा के उपकरण, न्यूनतम से परे एक उचित मजदूरी, मजदूरी के नुकसान की भरपाई, अवैतनिक कार्यों जैसे कि महिलाओं पर लादे गए घरेलू कामों का परिवार के बीच बंटवारा, सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सबके लिए काम करने के अधिकार को सुनिश्चित करने की तत्काल जरूरत है।
एक सामाजिक सुरक्षा, जो परिवारों को संकट से उबरने, बच्चों को स्कूल जाने और बाल विवाह और बाल श्रम जैसे कुरीति से दूर रखने, कार्यक्षेत्रों में भेदभाव के खात्मे, जातिगत भेदभाव के कारण जोखिम वाले काम करने की मजबूरी, भूमिहीन किसानों को जमीन का स्वामित्व जैसे सकारात्मक बदलाव समय की मांग है, जो कोविड के दौर में बद से बदतर की ओर ही अग्रसर है।
पीड़ित वर्गों के प्रति सहानुभूति और माफी की भावना जहां ऐतिहासिक अन्याय के जख्म पर मरहम का काम कर सकती है, वहीं न्याय की पहल एक नई सामाजिक व्यवस्था की नई नींव रखेगा, जिसकी जरूरत है, समय की मांग है और जो अनिवार्य है। (सप्रेस)
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