लेखक जार्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में समाज पर नजर रखने की जिस तकनीक का जिक्र किया है, आज उससे कई गुना शक्तिशाली, प्रभावी और व्यापक तकनीक की मार्फत सत्ता और सेठ हमारे आम जीवन पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं। ऑरवेल ने वामपंथी सत्ताधारियों को खलनायक बनाया था और आज के दौर में पूंजीवादी, दक्षिणपंथी सत्ता के हाथ में इसकी कमान है। हाल में ‘व्हासट्सएप्प’ में एक साफ्टवेयर लगाकर महत्वपूर्ण लोगों की जासूसी इसकी एक बानगी है।
समाज में व्यक्ति की शख्सियत सर्वोपरि और परिवार, समाज व राज्य से अधिक है। नैसर्गिक रूप से ही उसकी अपनी एक राजनैतिक सत्ता है जिसे वह राज्य और समाज की सदस्यता के लिए, आंशिक रूप से समर्पित करता है। समाज और राज्य ‘व्यक्ति से’ और ‘व्यक्ति के लिए’ हैं तथा व्यक्ति की निजता एवं उसकी खास पहचान पर समाज व राज्य का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। फलस्वरूप, व्यक्ति अपने अंतर्मन और शरीर से संबंधित मामलों में पूर्णतः स्वतंत्र है। उसे एकान्त और गोपनीयता के साथ आत्मनिर्णय और अभिव्यक्ति का अधिकार है। सुप्रीमकोर्ट ने एक प्रकरण में कहा है, “निजता मनुष्य की प्रकृति का एक स्वाभाविक पहलू है। यह जीवन के अधिकार, देह की स्वतंत्रता और व्यक्ति मात्र की प्रतिष्ठा का अंतर्भूत अंग है और इसीलिए अपरिहार्य और अविच्छेद भी है।” इसके बावजूद सरकारें, समाज और निजी कंपनियाँ व्यक्ति की निजता पर आतंकवाद,राष्ट्रीय-सुरक्षा अथवा अपराध-नियंत्रण के नाम पर अंकुश लगा लेती हैं।
भारत के करीब 40 करोड़ व्हाट्सएप्प उपयोगकर्ताओं की निजता को प्रभावित करने वाला व्हाट्सएप्प जासूसी मामला भी कुछ इसी प्रकार के नियंत्रण का परिणाम है। इसराइल की निजी कंपनी एनएसओ आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर व्यक्तिगत डाटा एन्क्रिप्शन का कारोबार चलाती है। इसी कम्पनी द्वारा बनाया गया ‘पिगासुस जासूसी सॉफ्टवेयर’ बड़ी आसानी और बिना किसी हलचल के लक्षित व्यक्ति के मोबाइल से उसकी निजी जानकारी पर कब्जा कर लेता है। ‘पिगासुस’ न सिर्फ व्यक्ति के संपर्क, फोन नंबर, पासवर्ड, फोटो, वीडियो इत्यादि को छलपूर्वक हासिल करता है, बल्कि उसके मोबाइल में एक गुप्त माइक्रोफोन और कैमरा भी स्थापित कर देता है, जिससे व्यक्ति के जीवन की हलचल पर चैबीसों घंटे का पहरा लग जाता है। एनएसओ कंपनी अपना यह ‘पिगासुस कोड’ सरकारों को बेचती है। हाल में दुनियाभर के 1400 लोगों के व्हाट्सएप्प द्वारा यह जासूसी की गयी जिसमें कई भारतीय भी शामिल हैं। अभी तक ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, पाकिस्तान, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, स्विट्जरलैंड और भारत समेत कई देशों में ‘पिगासुस’ अनाधिकृत रूप से लोगों के मोबाइल फोन में घर कर चुका है। एनएसओ कंपनी के ‘पिगासुस कोड’ की इस जासूसी से व्यक्ति की निजता को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। क्या व्यक्तिगत डाटा एन्क्रिप्शन के नियंत्रण को लेकर सरकारों और निजी कंपनियों पर भरोसा किया जा सकता है? क्या आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर प्रशासन और कानून की रक्षा करने वाली एजेंसियों के पास नियत्रंण की इतनी विस्तृत शक्तियां सौंपी जा सकती हैं, जो संपूर्ण जन-मानस की निजता पर हावी होने की ताकत रखती हों?
साइबर व मोबाइल आधारित अत्याधुनिक यंत्रों के अपराध तंत्र से निपटने के लिए, निजता पर ‘उचित प्रतिबंध’ के सिद्धांत का हवाला देकर सरकारी जाँच एजेंसियाँ देश के कानून के तहत व्यक्ति के निजी-जीवन की निगरानी करने का विशेषाधिकार हासिल कर लेती हैं। आतंक और साइबर-खतरे से निपटने के लिए जाँच-एजेंसियों को लोगों के व्यक्तिगत डेटा बेस, फोन नंबर्स, ईमेल का इस्तेमाल करने की इजाजत इसी शर्त पर दी जाती है कि वे सर्विलेंस हेतु पड़ताल-सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल केवल किसी अपराध की विवेचना में साक्ष्य एकत्र करने के लिए अथवा किसी विदेशी टारगेट का पता लगाने के लिए ही कर सकेंगे। इस तरह की प्रत्येक जाँच-पड़ताल करने से पहले मजिस्ट्रेट से आज्ञा ली जाएगी, ताकि विधि की सम्यक प्रक्रिया का पालन हो सके।
सामान्यतः यह अनुभव रहा है कि कानूनी एहतियात के बावजूद जाँच एजेंसियां बेलगाम हो जाती हैं और इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल किसी अन्य उद्देश्य के लिए करने लगाती हैं। अमेरिका में ‘कार्यक्रम-702’ के तहत एफबीआई द्वारा इस सर्विलेंस-सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल दोस्तों, रिश्तेदारों और परिवार के लोगों की निगरानी करने में किया गया। अदालत ने भी माना कि विधि की सम्यक प्रक्रिया का पालन करने के अपने आश्वासन के बावजूद जांच एजेंसी बेलगाम हो गयी जिससे कई व्यक्तियों के निजता के अधिकार का हनन हुआ। बिना किसी वजह के अनाधिकृत रूप से लोगों के व्यक्तिगत डाटा का इस्तेमाल किया जाना दरअसल असंवैधानिक है और अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स (अमेरिकी अधिकार विधेयक-1789) का हनन है।
इसी प्रकार ‘एप्पल-एफबीआई एन्क्रिप्शन विवाद’ के अंतर्गत 2015-16 के सेन-बर्नार्डिनो मामले में अमेरिका के जिला न्यायालय ने एप्पल फोन कंपनी को आदेश दिये थे कि अपराधिक विवेचनाओं हेतु वह ‘एप्पल-आईफोन’ से अभियुक्त के गोपनीय डाटा-बेस, जैसे पते, फोन नंबर, फोटो व कॉल-डिटेल्स निकालने के लिए ‘पास-कोड’ खोलकर अभियोजन की मदद करे। अदालत ने कंपनी को यह निर्देश भी दिए कि वह एक ऐसा विशेष-ऑपरेटिंग सिस्टम ईजाद करे जो मोबाइल फोन को अभेद्य बनाने वाले ‘सिक्यूरिटी-फीचर’ को ही नाकाम कर दे। जाहिर है, एप्पल कंपनी ने भी इस आदेश को असंवैधानिक और गैर-कानूनी करार देकर, इसका पालन करने से मना कर दिया। अपने बचाव में कंपनी ने इस बात की ओर इशारा किया कि ऐसा कोई भी कदम आगे के लिए एक गलत नजीर कायम करेगा। ‘इलेक्ट्रॉनिक प्राइवेसी और इंफर्मेशन सेन्टर’ ने भी आगाह किया कि फोन के सिक्यूरिटी फीचर्स से छेड़छाड़ करने वाला नया ऑपरेटिंग सिस्टम सैकड़ों व्यक्तियों की निजता को खतरे में डाल सकता है।
दरअसल, अपराध-नियंत्रण और राष्ट्रीय-सुरक्षा के नाम पर दिया गया ऐसा आदेश निजता की अवधारणा के ही खिलाफ है। यह मौलिक अधिकारों पर लगाए गए ‘उचित प्रतिबंध’ यानि ‘रीजनेबल-रिस्ट्रिक्शन्स’ का अतिवाद है, जो आतंकवाद से निपटने के बहाने ‘निजता के अधिकार’ के सारतत्व को ही समाप्त कर देता है। यह एक प्रकार का व्यापार है जो लोगों से सुरक्षा की एवज में अपनी निजता समर्पित करने की मांग करता है। मनमाने ढंग से खरीदे-बेचे जा रहे एनक्रिप्शन के अधिकार, ‘उचित-प्रतिबंध’ यानि ‘रीजनेबल-रिस्ट्रिक्शन्स’ की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। व्यक्ति की निजता पर की जाने वाली यह जासूसी हर तरह से निरंकुश व स्वेछाचारी है जिसकी अनुमति कोई भी विधान नहीं दे सकता।
भारत सरकार ने एनएसओ से ‘पिगासुस कोड’ खरीदने की बात को ना तो स्वीकार किया है और ना ही अस्वीकार, किंतु प्रासंगिक तथ्य है कि वे सभी मानव-अधिकार कार्यकर्ता, वकील और पत्रकार जिन्हें ‘पिगासुस’ जासूसी द्वारा निशाना बनाया गया है, विवादित मुद्दों पर सरकार से भिन्न राय रखने वाले व्यक्ति हैं। इन चुनिदा लोगों की जासूसी करवाने में सरकारी इरादे की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। एक निजी कंपनी द्वारा सरकारों की रोक-टोक के बिना बनाए और बेचे जा रहे ‘पिगासुस’ जैसे सॉफ्टवेयर ना केवल व्यक्तियों, बल्कि राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और सेना के अफसरों पर भी जासूसी कर सकते हैं जिससे देश की नब्ज किसी भी पल, विदेशी ताकतों और निजी कंपनियों के हाथों में सौंपी जा सकती है। इससे ना सिर्फ देश की आम जनता की निजता का हनन होता है वरन देश की सुरक्षा व्यवस्था भी खतरे में पड सकती है।
जीवन, अभिव्यक्ति और निजता पर लगाए जाने वाले प्रत्येक उचित या अनुचित प्रतिबंध, व्यक्ति की सख्शियत को गौण कर देते हैं। निजता पर बढ़ते आघात के मद्देनजर यह जरूरी है कि सरकारों और निजी कंपनियों को दी गयी डाटा-एन्क्रिप्शन की शक्तियों पर अंकुश लगाया जाये। एक ओर आतंकवाद, राष्ट्रीय-सुरक्षा और अपराध नियंत्रण की दलीलें व्यक्ति की निजता के अधिकार को सीमित कर रही हैं, वहीं न्यायमूर्ति चंद्रचूड हमें याद दिलाते हैं कि “निजता के आयाम का विस्तार संविधान से भी परे है। यह मानव मात्र में अन्तर्निहित है जो नैसर्गिक रूप से उसमें विद्यमान है। संविधान इसे मात्र मान्य करता है, प्रदत नहीं।” व्यक्ति की निजता के समक्ष खड़ी इस चुनौती से निपटने के लिए मौलिक अधिकारों पर लगाए जाने वाले उचित प्रतिबंधों की पसरती फेहरिस्त पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। इस हेतु, जैसा कि वकील गौतम भाटिया ताकीद करते हैं, संवैधानिक व्याख्या, विस्तृत और दूरदर्शिता पूर्ण होनी चाहिए, ताकि हमारे विधान आम-जनता की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करें। (सप्रेस)
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