जातियों, धर्मों, लिंगों और वर्गों में विभाजित हमारे समाज में क्या दंगे यूं ही, बे-वजह या तात्कालिक वजहों से हो जाते हैं? या फिर कईयों के सतत प्रयासों, कारनामों से इन्हें अंजाम दिया जाता है? क्या आपस की मारामार में धर्मों की भी खासी भूमिका होती है? प्रस्तुत है, ये और इसी तरह के अनेक बेचैन करते सवालों पर टिप्पणी करता लेख।
दंगे ऐसे ही होते हैं। आप कहो तो मैं यह भी कहने को तैयार हूं कि नरसंहार ऐसे ही होते हैं, तब मनुष्य हैवान बन जाता है। हमने यह बार-बार देखा है, लेकिन यह भी तो उतना ही सच है न कि मनुष्य हैवान है नहीं, उसे हैवान बनाने के लिए बहुत सारे हैवानों को, बहुत सारी मेहनत करनी पड़ती है। बगैर किसी उकसावे के समाज को हैवानियत करते देखा है आपने? इसलिए कभी मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से जहर उगलकर तो कभी मंदिरों से मुनादी कर, कभी रात के अंधेरे में इसका या उसका मांस फेंककर, चौराहे पर या बंद जमात में झूठा भाषण देकर, कभी भड़काऊ पर्चे बांटकर, अब सोशल मीडिया कैंपेन चलाकर, कभी इसे तो कभी उसे नेता या धर्मगुरु घोषितकर समाज को हैवान बनाया जाता है। बरसों की मेहनत लगती है इसमें, जो क्षण भर में चोखा परिणाम लाता है। और जब समाज हैवान बन जाता है तब हर धर्म की कहानी एक-सी होती है।
फिर उस कहानी पर फ़िल्में बनती हैं, किताबें लिखी जाती हैं, जांच रिपोर्टें भी बनती हैं। सबमें हैवानियत का वर्णन लगभग समान ही मिलेगा। किसी कश्मीर में ड्रम में छिपे आदमी की हत्या होती है तो किसी महिला के साथ गाड़ी में सामूहिक बलात्कार होता है। गुजरात की एक हाउसिंग सोसाइटी को, उसमें रहने वाले मुसलमान सांसद को और उसके पूरे परिवार की जला डाला जाता है। किसी गर्भवती का पेट चीरकर, उसके भ्रूण की निर्मम हत्या कर दी जाती है। ओडिशा में किसी पादरी और उसके दो छोटे बच्चों को जीप में बंदकर जला दिया जाता है। किसी ईसाई सिस्टर की सरेआम बस से उतारकर हत्या कर दी जाती है।
एक तरफ अपना देश विभाजन का काल ऐसे काले पन्नों से भरा है तो दूसरी तरफ जर्मनी यहूदियों की नृशंस हत्या से रंगा है। लगभग 60 लाख यहूदियों की गैस-चैंबर में या फिर फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़ेकर हत्या की गई। हिटलर के मरने की बाद भी नाज़ियों को सजा देने के लिए कोई कोर्ट नहीं बची थी, क्योंकि जज भी नाज़ी थे और पुलिस भी!
आज भी घर में गो-मांस होने की शंका पर हिंदू भीड़ ने कितने मुसलमानों की हत्या की? कितने दलितों को अपनी गाड़ी के पीछे बांधकर घसीटा? भरे बाजार में देश के गृह-राज्यमंत्री के बेटे ने किसानों के जुलूस पर गाड़ी चला दी! कितने ही लोगों को अपनी तरह से सोचने और बोलने के लिए बरसों से जेलों में सड़ाया जा रहा है? पुलिस भी अपनी है और न्याय भी अपना !
इन घटनाओं पर फ़िल्म बनाना, किताब लिखना गलत नहीं है। गलत है, गलत नीयत से कलम या कैमरा उठाना ! दाग तो हर गिरहबान में हैं, लेकिन भड़काऊ भाषण केवल दूसरों के लिए दिए जाते हैं। इसी वजह से जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि विभाजन पर कोई फ़िल्म अभी तक नहीं बनी, तब अच्छा नहीं लगता, क्योंकि उनकी नीयत में खोट साफ दिखाई देती है। वे गुजरात दंगों पर बनी फ़िल्म ‘परज़ानिया’ को गुजरात में ‘बैन’ करवाते हैं और कश्मीर दंगे पर बनी फ़िल्म को मुफ़्त में दिखाते हैं। क्यों? क्योंकि नीयत में खोट है।
इस खोट का विरोध जरूरी हो जाता है, लेकिन विरोध की यह बात भी अधूरी रह जाती है। मुख्य सवाल तो यह है कि समाज को हैवान बनाने का काम वह कर रहा है जिसे हम धर्म कहते हैं। ‘धर्म’ यदि लोगों को गिराता है, आदमी से हैवान बनाता है तो धर्म-संस्था पर ऊंगली क्यों न उठे?
क्यों पोलैंड सीरिया के ‘रिफ़्यूजियों’ को स्वीकारने से इनकार करता है और यूक्रैन के ‘रिफ़्यूजी’ को स्वीकार करता है? वह धर्म जो प्रेम के नाम पर बना था, जिसके पैगंबर ने सूली तक पर चढ़ने के बावजूद अपने हत्यारों को माफ़ी दे दी, उसके मानने वाले अब तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी करने पर तुले हैं? ऐसा युद्ध कि जिसमें पूरी धरती का विनाश हो सकता है !
इस्लाम ऐसा धर्म है जो कहता है कि एक ही अल्लाह है और एक ही पैगंबर – केवल मुहम्मद साहब ! उस एक अल्लाह को मानने वाले इस्लामी देश आपस में दशकों से लड़ रहे हैं, और लाखों मारे जा चुके हैं। यह कैसा मजहब हुआ? मुसलमान लड़कियों के हिजाब की चर्चा, अब हिजाब से बाहर निकल आई है तो कोई बताए कि केवल हिजाब से स्त्री-पुरुष के आपसी संबंध मर्यादा में रहते तो मुस्लिम महिलाओं को दुनिया की सबसे सुरक्षित महिलाएं होना चाहिए था न? दुनिया भर में महिलाएं जिस नये आसमान को छू रही हैं वह आसमान कपड़ों का बंधन नहीं मानता। स्त्री-पुरुष संबंधों की मर्यादा मन से पाली जाएगी तो टिकेगी, हिजाब के पीछे छिप जाने से बचेगी नहीं !
आप देखिए, जिस बुद्ध को वैदिक मान्यताओं, मूर्तिपूजा और यज्ञों के खिलाफ नया धर्म बनाना पड़ा, वे ही बुद्ध आज अनगिनत मूर्तियों में क़ैद हैं और हिंदू धर्म उन्हें लील जाने की हद तक पहुंचा है। जिस महावीर ने दुनिया के हर जीव के प्रति सम्मान और अनुकंपा की बात की, वे ही जैन दोस्त कहते हैं कि हम सेना में न जाते हों तो क्या, हम सरकारों का और सेना का खर्च उठाते हैं, ताकि धर्मयुद्ध हो सके!
समझिए तो हिंदू धर्म जैसा कुछ था ही नहीं। हर धर्म-विश्वास की अच्छाइयों को अपने भीतर समा लेने वाली यह वह सांस्कृतिक घास थी जो अपनी जड़ों पर बेहद मज़बूत थी। तूफ़ान में झुक तो जाती थी, पर कभी उखड़ती नहीं थी। समय-समय पर टकराव जरूर होते रहे, लेकिन उससे सीखते हुए हम आगे बढ़े, और पहुंचे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ तक ! वैसी उद्दात कल्पना का कैसा असंस्कारी स्वरूप बना दिया है हमने !
हर धर्म अपनी ज़रूरतों के मुताबिक इंसान ने गढ़े हैं, फिर वे ही अपने आप में समस्या क्यों बन गए? इस्लाम हो कि जैन, ख्रिस्ती हो कि हिंदू, आपस में नफ़रत करने से या नफ़रत फैलाने से कोई समाधान निकलेगा क्या? सभी धर्म इंसान द्वारा बनाए गए हैं, यह मानने में दिक़्क़त हो तो इतना तो स्वीकार करें कि खुद के धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले इंसान भी हैं तो अधूरे ही। तो क्या अपना अधूरापन दूर करना ही एक धर्म नहीं बन जाता है?
गांधी, महात्मा कहलाए क्योंकि वे मनुष्य जाति को इस अभिशाप से निकलने का रास्ता खोजते-दिखाते हुए मरे। अपनी खोज में वे यहां तक पहुंचे कि ईश्वर सत्य नहीं है, सत्य ही ईश्वर है। जैसे सत्य में अपना- पराया नहीं, वैसे ही धर्म में अपना और दूसरे का नहीं होना चाहिए। धर्म परिवर्तन नहीं, धर्म में आवश्यकता अनुसार परिवर्तन – हर सत्यशोधक मनुष्य की यही धार्मिक दिशा है। इससे अलग दिशा में ले जाने का जो भी प्रयत्न करे, उसके लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि उसके मन का अंधकार दूर हो। हैवानियत से संपूर्ण असहकार आज का एकमात्र धर्म है। (सप्रेस)
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