श्रवण गर्ग

बीस जनवरी दो हज़ार इक्कीस को वाशिंगटन में केवल सत्ता का शांतिपूर्ण तरीक़े से हस्तांतरण हुआ है, नागरिक-अशांति की आशंकाएँ न सिर्फ़ निरस्त नहीं हुईं हैं और पुख़्ता हो गईं हैं। देश की जनता का एक बड़ा प्रतिशत अभी भी ट्रम्प का कट्टर समर्थक है। इनमें बहुसंख्या उन सवर्ण राष्ट्रवादी गोरों की है जो सभी तरह के अल्पसंख्यकों को अपनी समृद्धि के लिए दुश्मन मानते हैं। हालाँकि अपनी कैबिनेट में इन्हीं अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को महत्वपूर्ण स्थान देकर बाइडन ने ‘घरेलू आतंकियों’ को संदेश देने की हिम्मत की है कि वे सवर्ण हिंसा को परास्त करके रहेंगे पर कहा नहीं जा सकता कि अपनी स्वयं और कमला हैरिस की वामपंथी छवि के चलते कितने सफल हो पाएँगे।

बीस जनवरी,  बुधवार की रात लगभग सवा दस बजे जब भारत के नागरिक सोने की तैयारी कर रहे थे वाशिंगटन में दिन के पौने बारह बज रहे थे।यही वह क्षण था जिसकी अमेरिका के करोड़ों नागरिक रात भर से प्रतीक्षा कर रहे थे । उस कैपिटल हिल पर जहां सिर्फ़ दो सप्ताह पहले (छह जनवरी) अमेरिकी इतिहास की अभूतपूर्व हिंसा घट चुकी थी, अठहत्तर साल के जो बाइडन अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद देशवासियों को सम्बोधित कर रहे थे । वे डोनाल्ड ट्रम्प की जगह ले रहे थे जो सोमवार की रात ‘किसी न किसी रूप में’ सत्ता में फिर वापसी की धमकी देते हुए वाशिंगटन से रवाना हो चुके थे। उन्हें बिदा देने के लिए उनकी ही पार्टी के उप-राष्ट्रपति पेंस हवाई अड्डे पर मौजूद नहीं थे। पेंस ने बायडेन-हैरिस के शपथ समारोह में उपस्थित रहना ज़्यादा नैतिक समझा। इसीलिए जब पेंस शपथ-स्थल के मंच पर पहुँचे तो तालियों से उनका अभिवादन किया गया।

बाइडन (और कमला हैरिस ) के शपथ समारोह में दोनों ही दलों के पूर्व राष्ट्रपति (क्लिंटन, बुश और ओबामा) मौजूद थे लेकिन ट्रम्प नहीं थे । पर ट्रम्प का ख़ौफ़ कैपिटल हिल के प्रत्येक कोने और शपथ समारोह में उपस्थित हरेक चेहरे पर ढूँढा और पढ़ा जा सकता था। इसकी गवाही वाशिंगटन डीसी की सूनी सड़कें और समारोह स्थल को घेर कर खड़े हज़ारों सुरक्षा गार्ड दे रहे थे। अमेरिकी इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया । अमेरिका ने अपने आपको इतना असुरक्षित और असहाय पहले कभी नहीं महसूस किया होगा, ‘नाइन-इलेवन’ की घटना के बाद भी। तब अमेरिका पर हमला बाहरी लोगों ने किया था। इस बार हमला भी ‘घरेलू ‘( domestic) था और लोग भी जाने-पहचाने थे । बाइडन के शब्दों में वह एक ‘असभ्य युद्ध’ (uncivil war) था।

अपने पहले उद्बोधन में बाइडन ने देशवासियों के साथ उन सभी चुनौतियों की चर्चा की जो एक तानाशाह राष्ट्रपति उनके निपटने के लिए छोड़ गया है। ट्रम्प ने जब चार साल पहले शपथ ली थी तब इसी मंच से अमेरिकियों को बताया था कि ‘हमने दूसरे राष्ट्रों को तो धनवान बनाया पर हमारी अपनी सम्पदा, ताक़त और आत्मविश्वास क्षितिज पर गुम हो गया।’ उन्होंने देश को यक़ीन दिलाया था कि 20 जनवरी 2017 को याद रखा जाएगा कि इस दिन नागरिक अमेरिका के फिर से शासक हो गए। बाइडन ने 20 जनवरी 2021 को बग़ैर नाम लिए बताया कि पिछले चार सालों में ट्रम्प ने देश को कहाँ पहुँचा दिया है। कोरोना के कारण हो चुकी चार लाख से ज़्यादा मौतें, करोड़ों लोगों (लगभग तीन करोड़) की बेरोज़गारी,श्वेत उग्रवाद, हिंसा का माहौल और इन सब के बीच नागरिकों की नई सरकार से उम्मीदें।

बीस जनवरी दो हज़ार इक्कीस को वाशिंगटन में केवल सत्ता का शांतिपूर्ण तरीक़े से हस्तांतरण हुआ है, नागरिक-अशांति की आशंकाएँ न सिर्फ़ निरस्त नहीं हुईं हैं और पुख़्ता हो गईं हैं। देश की जनता का एक बड़ा प्रतिशत अभी भी ट्रम्प का कट्टर समर्थक है। इनमें बहुसंख्या उन सवर्ण राष्ट्रवादी गोरों की है जो सभी तरह के अल्पसंख्यकों को अपनी समृद्धि के लिए दुश्मन मानते हैं। हालाँकि अपनी कैबिनेट में इन्हीं अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को महत्वपूर्ण स्थान देकर बाइडन ने ‘घरेलू आतंकियों’ को संदेश देने की हिम्मत की है कि वे सवर्ण हिंसा को परास्त करके रहेंगे पर कहा नहीं जा सकता कि अपनी स्वयं और कमला हैरिस की वामपंथी छवि के चलते कितने सफल हो पाएँगे।

रिपब्लिकन पार्टी के सांसद भी इन ट्रम्प समर्थकों से ख़ौफ़ खाते हैं। वे जानते हैं कि अब ट्रम्प ही पार्टी हैं और पार्टी ही ट्रम्प है। वे अपने पूर्व राष्ट्रपति का साथ छोड़ने को इसलिए तैयार नहीं हैं कि उनका राजनीतिक भविष्य अब ट्रम्प और उनके भक्तों के समर्थन की कठपुतली बन गया है। चुनावी नतीजों पर मोहर लगाने के लिए कैपिटल हिल पर छह जनवरी को हुई संसद की संयुक्त बैठक में कई ट्रम्प समर्थक सांसदों ने अपने वक्तव्यों से ऐसा जता भी दिया। ट्रम्प की अमेरिकी कांग्रेस में ताक़त को लेकर ज़्यादा स्पष्टता उनके ख़िलाफ़ पेश हुए महाभियोग प्रस्ताव पर होने वाली सीनेट की बहस में हो जाएगी। आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए अगर अपनी चुनावी हार के बाद ट्रम्प और ज़्यादा ताकतवर हो गए हों।

बाइडन ने अपने शपथ भाषण में देशवासियों से एकजुट होकर चुनौतियों का सामना करने और ‘अमेरिका महान’ के सपने को साकार करने की अपील तो की है पर उनके समक्ष ख़तरे कहीं ज़्यादा बड़े हैं और नव-निर्वाचित राष्ट्रपति इसे अच्छे से जानते भी हैं। आंतरिक विद्रोहियों के साथ-साथ बाहरी अधिनायकवादी ताकतें भी उनकी सरकार को अस्थिर करने में लगी रहेंगी। इसके सारे बीज वाशिंगटन छोड़ने के पहले ही ट्रम्प और उनके विदेश सचिव बो चुके हैं। ये बाहरी ताकतें वे हैं जो न सिर्फ़ प्रजातंत्र और मानवाधिकारों की विरोधी हैं, कोरोना के कारण उत्पन्न हुए संकटकाल का फ़ायदा उठाकर अपनी एकदलीय शासन व्यवस्था को और मज़बूत करना चाहती हैं।

बाइडन के सत्ता में क़ाबिज़ हो जाने के बाद पश्चिमी यूरोप सहित उन कई देशों के नागरिकों ने राहत की साँस ली है जो ट्रम्प की दूसरी बार जीत को प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए एक बड़ा ख़तरा मानते थे। पर वे देश यह भी जानते हैं कि ख़तरा केवल स्थगित हुआ है, समाप्त नहीं ! एक तात्कालिक ‘राहत’को स्थायी ‘उपलब्धि’ में परिवर्तित होता देखने के लिए अभी चार वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जो कि किसी भी राष्ट्र के जीवन में काफ़ी लम्बा समय होता है। बाइडन जब कह रहे थे कि हरेक ‘असहमति’ को ‘सम्पूर्ण युद्ध’ का कारण नहीं बनाया जा सकता तब कैपिटल के शपथ मंच पर उनका यह वाक्य सुनने के लिए ट्रम्प उसे तरह से मौजूद नहीं थे जिस तरह बराक ओबामा 20 जनवरी 2017 को सत्ता हस्तांतरण के वक्त पूर्व राष्ट्रपति (ट्रम्प ) को अपने ख़िलाफ़ बोलते हुए चुपचाप सुन रहे थे। बाइडन भी डेमोक्रेट ज़रूर हैं पर ओबामा नहीं ! (सप्रेस)

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श्रवण गर्ग
करीब चार दशक के पत्रकारीय जीवन में आपका अधिकांश पत्रकारीय जीवन हिन्दी जगत में ही बीता है। आप 1972 से 1977 तक लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में रहे। वे बिहार में करीब सालभर जयप्रकाश नारायण के साथ रहे। विभिन्न अखबारों में विभिन्न पदों पर काम किया। जीवन के पत्रकारिता के सफर का प्रारंभिक दौर सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस) से शुरू हुआ उसके बाद सर्वोदय प्रजानीति, आसपास, फायनेंशियल एक्सप्रेस, नईदुनिया, फ्री प्रेस जनरल, एमपी क्रॉनिकल, शनिवार दर्पण, दैनिक भास्कर, दिव्य भास्कर और फिर नईदुनिया के प्रधान सम्पादक पद तक पहुंचा। आजकल स्‍वतंत्र रूप से लेखन कर्म जारी है।

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