राकेश दीवान

सात दशक पहले, आजादी के आसपास के महात्‍मा गांधी को देखें तो इन सवालों के जबाव पाए जा सकते हैं। केवल दो बातों – आर्थिक और राजनीतिक के बारे में गांधी क्‍या कहते थे? गांधी विचार की प्राथमिक पाठशाला का कोई बच्‍चा भी बता सकता है कि वे आज के विशालकाय, अनियंत्रित और आप-रूप चलने वाले आर्थिक और राजनीतिक ढांचों की बजाए छोटे, आपसी समझ-सहयोग-संसाधनों पर आधारित और नियंत्रित ढांचों को तरजीह देते थे। इन ढांचों में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियां मुब्तिला रहती थीं।

अभी दो दिन पहले देश के सबसे विश्‍वसनीय और नंबर एक माने जाने वाले अखबार के एक कौने में छपी खबर के मुताबिक भाजपा ने अपने विधायकों को टीवी डिबेट में जाने से रोक दिया है। पार्टी के प्रदेश अध्‍यक्ष वीडी शर्मा और चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक भूपेन्‍द्र सिंह के हवाले से बताया गया है कि ‘विधायक सीधे चैनलों में जाकर बैठ रहे हैं। उन्‍हें मुद्दों की समझ नहीं होती और न ही पार्टी लाइन का पता होता।‘

मुद्दों की नासमझी और पार्टी लाइन से अनजान विधायकों पर बरसों पहले, सत्‍तर के दशक की न्‍यूज-एजेंसी ‘इन्‍फा’ के तत्‍कालीन राज्‍य-प्रतिनिधि स्‍व. मदनमोहन जोशी ने एक कमाल की खबर की थी। उस जमाने की मध्‍यप्रदेश विधानसभा में मौजूद सभी पार्टियों के विधायकों से बातचीत के आधार पर जोशी जी ने बताया था कि अधिकांश विधायक, लगभग हरेक मुद्दे पर अपने-अपने नेताओं को देखकर उनके मुताबिक हाथ उठाते या नहीं उठाते हैं। उन्‍हें विधानसभा की बहस में उठे मुद्दों और उन पर अपनी पार्टी की राय से कोई लेना-देना नहीं होता था।

कमोबेश यही अनुभव आज के जमाने के पत्रकारों को भी होता रहता है जब किसी विभाग का वरिष्‍ठ मंत्री मुंहलगे वरिष्‍ठ अफसरों के बिना कभी, किसी मुद्दे पर साक्षत्‍कार नहीं देता। कई बार तो ऐसे मंत्री साफ स्‍वीकार भी कर लेते हैं कि उन्‍हें खुद के विभाग की कोई खास जानकारी नहीं है और इसीलिए वे अपने मातहतों को साथ बिठाकर पत्रकारों का सामना करते हैं। जाहिर है, विभागों के मंत्री और चुने हुए विधायक प्रशासनिक मसलों की बजाए राजनीति की ज्‍यादा परवाह करते हैं और नतीजे में उनके अफसरानों के कंधों पर राज्‍य की अनेक बुनियादी समस्‍याओं को निपटाने का भार आन पडता है। लेकिन क्‍या आज के अधिकांश विधायक, मंत्री अपनी-अपनी राजनीति से भी ठीक न्‍याय कर पाते हैं?

अपनी-अपनी सीट पर तरह-तरह के धतकरमों की मार्फत जीत हासिल करने, मंत्री-पद प्राप्‍त करने और जैसा कि कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता व पूर्व मुख्‍यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा है, आज के भाव में 30-35 करोड रुपयों में बिकने के अलावा विधायक जी की और क्‍या राजनीतिक उपलब्धि मानी जा सकती है? पैसों की इस अफरा-तफरी का खुलासा ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) की चुनाव-दर-चुनाव जारी होने वाली रिपोर्टों से हो सकता है। खुद चुनावी उम्‍मीदवारों के शपथपत्र के आधार पर बनी ये रिपोर्टें उनकी कमाई के कई-कई गुना हो जाने का खुलासा कर देती हैं। सवाल है कि अपनी राजनीति की खातिर उन्‍होंने राज्‍य और अपने विधानसभा क्षेत्र के नागरिकों को मथने वाले किसी भी मुद्दे पर क्‍यों कभी जनांदोलन, प्रतिरोध नहीं किया और विधानसभा में कोई सवाल तक नहीं उठाया?

नब्‍बे के दशक के बाद का लेखा-जोखा करें तो सत्‍ता पर चढ़ने-उतरने वाली किसी पार्टी ने कोई प्रभावी बुनियादी सवाल नहीं उठाया। विडंबना यह थी कि कांग्रेस की अगुआई में खुले बाजारों वाला भूमंडलीकरण भी इसी दौर में लागू हुआ था और इसके प्रति कांग्रेस समेत भाजपा, यहां तक कि वामपंथियों तक का प्रेम छिपाए नहीं छिप रहा था। आजादी के बाद की ‘मिश्रित अर्थव्‍यवस्‍था’ को ठेंगे पर मारते हुए तब की पीवी नरसिंहराव सरकार ने अपने वित्‍तमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह की सदारत में भूमंडलीकरण धरती पर उतारा था और इस आर्थिक तब्‍दीली ने सत्‍ताधारी राजनैतिक जमातों को भी एक नया रूप दे डाला था।

आर्थिक तब्‍दीली के इस कदम ने राजनीति को भी कई नए रूप दे दिए थे। मसलन-भूमंडलीकरण की नीतियों की तर्ज पर व्‍यक्तिगत सफलता यानि येन-केन-प्रकारेण तिजोरियां भरना ज्‍यादा मायने रखने लगा था। गौर से देखें तो नब्‍बे के दशक के बाद से ही सत्‍ताप्रेमी राजनीतिक जमातों ने बुनियादी मुद्दों से मुंह फेरकर ऐसे मुद्दों को तरजीह देना शुरु कर दिया था जो अपनी बुनियादी धज में ही विभाजनकारी थे। समाजवाद और उसमें तरह-तरह से भरोसा करने वाले अनेकानेक राजनीतिक गुटों ने भी कुछ साल पहले के सामाजिक न्‍याय के मंडल-मुद्दों को तजकर भूमंडलीकरण की चापलूसी शुरु कर दी थी। असल में आर्थिक मोर्चे पर हुई इस बुनियादी तब्‍दीली ने राजनीति को भी केवल सत्‍ता की मार्फत अपनी हैसियत बताना सिखा दिया था। सभी राजनीतिक दल जनता की ‘सेवा’ तो करना चाहते थे, लेकिन उसे करने के लिए सरकार बनाकर सत्‍ता हथियाना प्राथमिक शर्त थी। जाहिर है, ‘सेवा’ के सभी रास्‍ते सत्‍ता की गलियों से होकर ही जाने लगे थे।

जब राजनीति का कुल हासिल किसी-न-किसी प्रकार सत्‍ता पर काबिज होने को माना जाने लगा तो जाहिर है, चुनाव और उनमें भांति-भांति के कौतुक करके पाई जाने वाली जीत सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण होती गई। सत्‍ता पर सवारी गांठने को एकमात्र राजनीतिक कर्म मानने वाले राजनेताओं की मट्टी-पलीती इस कदर होती गई कि राज्‍य के किसानों की आत्‍महत्‍याओं के दर्जे की बदहाली, विस्‍थापन और कानून-व्‍यवस्‍था सरीखे आमफहम मुद्दों को भी अनदेखा किया जाने लगा। यदि इसे ‘ऐतिहासिक नियति’ नहीं माना जाए तो क्‍या इसके अलावा भी कोई रास्‍ता हो सकता था?

सात दशक पहले, आजादी के आसपास के महात्‍मा गांधी को देखें तो इन सवालों के जबाव पाए जा सकते हैं। केवल दो बातों – आर्थिक और राजनीतिक के बारे में गांधी क्‍या कहते थे? गांधी विचार की प्राथमिक पाठशाला का कोई बच्‍चा भी बता सकता है कि वे आज के विशालकाय, अनियंत्रित और आप-रूप चलने वाले आर्थिक और राजनीतिक ढांचों की बजाए छोटे, आपसी समझ-सहयोग-संसाधनों पर आधारित और नियंत्रित ढांचों को तरजीह देते थे। इन ढांचों में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियां मुब्तिला रहती थीं। यदि आप छोटे, नियंत्रित तौर-तरीकों से अपनी बदहाली को मेटना चाहेंगे तो जाहिर है, आपको पंचायत और ग्रामसभाओं का राजनीतिक ढांचा ही पुसाएगा। लेकिन यदि आपकी तमन्‍ना विशालकाय, राक्षसी ढांचों के जरिए अपनी हर तरह की गरीबी खत्‍म करने की है तो आपको ऐसे ही, धीरे-धीरे अलगाव की चपेट में फांसने वाले आर्थिक, राजनीतिक ढांचे जरूरी लगेंगे।

आजादी के बाद आत्‍मनिर्भर होने की हमारी कोशिशों में सारा दुनिया-जहान तो शामिल रहा, लेकिन गांधी और उनकी मार्फत व्‍यापक समाज कभी नहीं रहे। जबकि गांधी तब के राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्‍व को बार-बार अपने समाज में मौजूद लोकतंत्र की राजनीति और विकास की तरकीबों के बारे में कह और बता रहे थे। और नहीं तो तब का नेतृत्‍व केवल अपने बहुसंख्‍यक ग्रामीण समाज की राजनीति और अर्थशास्‍त्र की तरफ ही देख लेता तो शायद आज की दुर्गति से बचा जा सकता था। सवाल है कि उस समय का यह विचलन क्‍यों और किसकी पहल पर हुआ? क्‍या इसके लिए तत्‍कालीन पढ़ा-लिखा मध्‍यमवर्ग भी जिम्‍मेदार नहीं है? और क्‍या इसे अब, आजादी के तिहत्‍तर साल बाद किसी तरह सुधारा जा सकता है? यह हो सका तो कम-से-कम किसी पार्टी के लिए यूं खुल्‍लमखुल्‍ला अपने ही विधायकों को नकारा तो घोषित करने की नौबत तो नहीं आएगी। (सप्रेस)

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