दिनेश कोठारी
कोविड-19 की मार्फत आए लॉकडाउन ने इंसानी नस्ल को पूंजी, मुद्रा आदि की असल कीमत भी बता दी है। पिछले तीन-साढे तीन महीनों में हमने जिस तरह का जीवन जिया है, उसने कम-से-कम हमें मुद्रा, मनुष्य और उत्पादन की कीमत आंकना सिखा दिया है। लेकिन क्या यह सीख सर्वकालिक होगी या संकट टलते ही तुरत विस्मृत हो जाएगी?
पिछले दिनों एक राज्य सरकार ने अखबारों में एक पूरे पृष्ठ का विज्ञापन यह दावा करते हुए छपवाया था कि कोरोना काल में उनकी सरकार ने 1.29 मैट्रिक टन गेहूं खरीदकर रिकार्ड बनाया है। विज्ञापन यह दर्शाता है कि सरकार ने बहुत बड़ा काम किया है और हमें प्रदेश सरकार की इस उपलब्धि पर गर्व होना चाहिए। विज्ञापन हमें यह नहीं सोचने देता कि इस गेहूं को उगाने में किसान, उनके परिवार, श्रमिक, धरती, जल और सूर्य तथा लाखों-करोड़ों जीव-जगत का कितना योगदान रहा होगा? यह सरासर ज्ञान का अपहरण है। मीडिया, टेलिविजन और स्कूल-कॉलेजों के जरिये हमें बडी चालाकी से एक गहरी शाजिश के तहत अज्ञानता की ओर धकेला जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि यह विज्ञापन वर्तमान मूल्य-विहीन कागजी मुद्रा-प्रणाली की पोल खोल कर रख देता है।
कायदे से तो यह गेहूं किसानों से सरकार तक पहुंचने के बजाए लोगों के घरों के कोठार में होना चाहिए था। कम-से-कम उतना, जितना अगली फसल आने तक प्रति परिवार की सालाना खपत के लिए जरूरी हो। सिर्फ गेहूं ही क्यों, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, कोदों, कुटकी और न जाने कितने ही अनगिनत अनाज क्यों नहीं? इसमें अमीर और गरीब की बात तो कहीं आती ही नहीं है। अमीर और गरीब शब्द तो कागजी मुद्रा के साथ-साथ गढ़े गये हैं। पूरे विश्व में किसी भी जन-जातीय भाषा में अमीर और गरीब शब्द खोजने पर भी नहीं मिलेगा। ठीक उसी तरह जैसे काम (वर्क) शब्द अलग से किसी भी भाषा में नहीं मिलेगा। हालांकि अनाज पीसना, पानी भरना, हल चलाना जैसे शब्द जरूर मिलेंगे। क्रिया के रूप में अलग-अलग कार्य के लिये शब्द जरूर मिलेंगे।
तो कोरोना के गहन संकट के समय जब हजारों-लाखों लोग सड़कों पर थे और शहरों का एक बड़ा तबका खाद्यान्न के लिये तरस रहा था, गेहूं कहां होने थे? बारिश में सड़ने के लिये या नागरिकों का पेट भरने के लिये।
लेकिन कागजी मुद्रा की खूबी यह है कि यह लोगों के जीने के सारे संसाधनों को ’’लॉक’’ कर देती है और पिरामिड के शीर्ष पर बैठे हुए कुछ लोगों के हाथों में चाबी दे देती है। कारण बड़ा स्पष्ट है। ऐसी मुद्रा में शासक वर्ग प्राण फूंकता है, जबकि ठोस मुद्रा प्रणाली में हर व्यक्ति, समाज प्राण डालता है। यह मुद्रा कभी भी मालिक नहीं बनती और चूंकि लोग जरूरत के हिसाब से मुद्रा में जान फूंकना जानते हैं, उनमें असुरक्षा की भावना कभी नहीं आती। सिर्फ 100 बरस पीछे चले जाइये, आपको इसका अनुभव हो जाएगा।
कागजी मुद्रा का सीधे-सीधे अर्थों में मतलब है, ऐसी मुद्रा जिसका अपना कोई वज़ूद नहीं होता। या यों कहें कि जिसका आंतरिक मूल्य उसके बाह्य मूल्य की तुलना में लगभग शून्य होता है। अगर हम एक हजार के नोट को कागज के भाव से देखें, तो उसका कितना मूल्य होगा? और डिजीटल मुद्रा का तो भगवान ही मालिक है।
किसी जमाने में मुद्रा के रूप में कौड़ियां चलती थीं। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि भला कौडियों का क्या मोल। और फिर कौडियां तो यूं ही ढूंढने पर मिल जाएंगी। थोडा-सा समय और श्रम ही तो चाहिये। वास्तविकता तो यह है कि कोई व्यक्ति जितना समय और श्रम कौड़ियों को ढूंढने में लगाएगा उतने ही समय में कोई उत्पादक काम करके वह उतनी ही कौड़ियां कमा सकता है। मतलब एकदम साफ है। यही बात स्वर्ण-मुद्रा प्रणाली के साथ भी उतनी ही सही है। सोने का मूल्य कभी भी उसके खनन, परिशोधन और बिक्री के लिये किये गये खर्च के योग के आसपास ही रहेगा। कौड़ियां हों या सोना, चूंकि ये प्रकृति में अति सूक्ष्म मात्रा में उपलब्ध हैं इसलिये यह ठोस मुद्रा प्रणाली है। इसमें आर्थिक असमानता की कोई गुंजाइश नहीं है और सरकारों की ताकत भी हमेशा जनता के सेवक के रूप में ही रहती है।
ऐसी मुद्रा प्रणाली में लोग सिर्फ धन कमाने का साधन नहीं बनते हैं। व्यापार सिर्फ जरूरत का रह जाता है और कुल आबादी का एक बहुत ही सूक्ष्म तबका व्यापारी होता है। लोगों में धन संग्रह की प्रवृत्ति न के बराबर होती है और ज्यादातर समय लोग अपने परिवार और रिश्तों को सींचने और जीवन जीने में लगाते हैं। सरकार की जगह समाज शीर्ष पर होता है। प्रकृति आपके लिये पूरे 24 घण्टे और 12 मास काम करती है, बिना अपनी पुन: उत्पादन क्षमता को खोए।
वर्तमान मुद्रा प्रणाली में सब कुछ इसके उलट है। धरती की पुन:उत्पादन क्षमता तार-तार कर दी गयी है। मनुष्य और मशीन एक – दूसरे के पर्याय बन गए हैं। यह मुद्रा प्रणाली हमेशा कमी की बात करती है। अगर आपकी जेब में नोट नहीं हैं तो आपको जीने का कोई हक नहीं है, चाहे गेहूं गोदामों में सड़ जाए। इसके विपरित प्रकृति उदारता की बात करती है। आप नदी, तालाब, खेत, पेड़, किसी के पास भी जाइये, वो कहेंगे मेरे पास आपके लिये सब कुछ है।
कोविड-19 के जरिये धरती ने हमें एक बार फिर मौका दिया है। इस बार कागजी मुद्रा को कुछ महीनों के लिये ’’लॉक’’ करके। हमें चिंतन का समय देकर। फिर से रसोई घर को हाशिये से घर के मध्य में लाकर। हमें यह बताकर कि मनुष्य ’’होमो सोशियोलोजिक्स’’ है न कि ’’होमो इकोनोमिक्स’’।(सप्रेस)
दिनेश कोठारी – पेशे से चार्टड अकाउन्टेंट हैं और ‘बनियन ट्री’ प्रकाशन से जुडे हुए हैं।