जीवन को बरकरार रखने के लिए पानी और भोजन बुनियादी जरूरतें होती हैं, लेकिन दोनों ही आजकल पूंजी बनाने के जिन्स में तब्दील हो गई हैं। जाहिर है, इनका बाजारू मूल्य भी हो गया है और नतीजे में इनकी मार्फत भारी मुनाफा कूटा जा रहा है। विडम्बना यह है कि पूंजी के इस खेल में सरकारें सहायक की भूमिका में मुस्तैद हैं।
मध्यप्रदेश ने अपने बजट को आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश का रोड-मैप बताया है। पेयजल प्रदाय के बजट को तीन गुना बढ़ाकर 5,762 करोड़ कर दिया गया है। ग्रामीण जलप्रदाय की लगभग सारी योजनाओं को ‘जल जीवन मिशन’ में शामिल कर लिया गया है। अब इसका दायरा बढ़ाकर ‘शहरी जल जीवन मिशन’ शुरु करने की घोषणा भी की गई है। लेकिन, इस राशि से जिस तरह की पेयजल योजनाएँ निर्मित होने वाली हैं उनमें आत्मनिर्भरता कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आती, बल्कि इन योजनाओं के सरकारी खजाने पर बोझ और नागरिकों की परेशानी का सबब बन जाने के पूरे आसार हैं। उल्लेखनीय है कि ‘जल जीवन मिशन’ के तहत सन् 2024 तक देश के हर परिवार तक नल से जल पहुँचाने की योजना है। केन्द्र और राज्य सरकारें इस पर साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए खर्च करेंगी। ‘विश्व-बैंक’ समर्थित ‘जल जीवन मिशन’ में पानी के निजीकरण के जिन विकल्पों की वकालत की गई है, वे देश में पहले ही असफल हो चुके हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर समूह जलप्रदाय योजनाएँ जारी है। सरकारी दावे के अनुसार अब तक घोषित इन योजनाओं से प्रदेश की डेढ़ करोड़ आबादी तक नलों से पानी पहुँचाया जाना है। पिछले 4 वर्षों में ऐसी 29 योजनाओं से 4,300 गाँवों की 45 लाख 65 हजार आबादी तक पेयजल पहुँचाया भी जा चुका है। अब तक की सबसे बड़ी योजना सतना जिले की भदनपुर परसमनिया योजना है। बाणसागर बाँध से संचालित इस योजना से 1,019 गाँवों की साढ़े बारह लाख जनसंख्या के लाभान्वित होने का दावा किया गया है। एक सरकारी कंपनी ‘मध्यप्रदेश जल निगम’ द्वारा निर्मित इन योजनाओं का लक्ष्य पेयजल क्षेत्र में निजी पूँजी को आकर्षित करना ऱहा है, लेकिन पूँजी लगाना तो दूर, कोई निजी कंपनी इन योजनाओं को मुफ्त में स्वीकार करने को भी राजी नहीं हुई। इसलिए सरकार को हार कर निजी कंपनियों से 10 वर्षों के लिए संचालन अनुबंध करना पड़ा। अनुबंध की शर्त के अनुसार पानी की बिक्री (कंपनियाँ जल-दर के लिए इसी शब्द का उपयोग करती है) से प्राप्त राशि पर निर्भर न रहते हुए कंपनियाँ अपना सारा संचालन खर्च सरकार से वसूलती है। सुनने में थोड़ा अजीब है कि सरकार अपनी हजारों करोड़ की योजनाएँ कंपनियों को मुफ्त में सौंप रही है और ऊपर से सार-संभाल का खर्च भी दे रही है। इस प्रकार सरकार को हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए निजी कंपनियों को सिर्फ जल-प्रदाय योजनाएँ संचालित करने के लिए भुगतान करने पड़ रहे हैं क्योंकि जल-दरों (या पानी की बिक्री) से जो पैसा मिलता है वह कुल संचालन खर्च का बहुत छोटा हिस्सा होता है।
इससे पहले 2007-08 में मध्यप्रदेश सरकार ने शहरी जलप्रदाय को भी बेहतर (तब आत्मनिर्भर शब्द प्रचलन में नहीं था) बनाने के लिए इसके निजीकरण का कदम उठाया था। शुरुआत में खण्डवा और शिवपुरी की सैकड़ों करोड़ की योजनाओं के लिए सरकार ने निजी कंपनियों को मुफ्त में असीमित जल अधिकारों के साथ लागत का 90 प्रतिशत धन भी उपलब्ध करवाया था। निर्धारित से अधिक भुगतान प्राप्त करने के बावजूद ‘दोशियन कंपनी’ ने शिवपुरी में अनुबंध तोड़ दिया।
खण्डवा में ‘विश्वा-इंफ्रा कंपनी’ थोड़ा बहुत जलप्रदाय तो कर रही है, लेकिन पिछले आठ सालों से यह स्थानीय नागरिकों और सरकार पर बोझ बनी हुई है। चौबीसों घण्टे जलप्रदाय का दावा करने वाली कंपनी चौबीस घण्टे में एक बार भी संतोषजनक जलप्रदाय नहीं कर पा रही है। अनुबंध के अनुसार खण्डवा नगरीय क्षेत्र के सारे जल संसाधनों और जलप्रदाय संबंधी सारी संपत्तियों पर एकाधिकार प्राप्त करने वाली इस कंपनी पर पूरे शहर में जलप्रदाय लाईनों के विस्तार की भी जिम्मेदारी है, लेकिन आश्चर्यजनक रुप से कंपनी अभी भी सारे निवेश सरकार से ही करवा रही है। इतना ही नहीं, कंपनी जब-तब जलप्रदाय बंद करने की धमकी भी देती रहती है। वर्ष 2019 में तो कंपनी की जलप्रदाय बंद करने की धमकी के बाद सरकार को धारा-144 लगानी पड़ी थी। जलप्रदाय करने वाली कंपनी को ही जलप्रदाय बाधित करने से रोकने हेतु पुलिस के पहरे में जलप्रदाय तंत्र संचालित करवाना पड़ा। आत्म-निर्भरता के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा इस कंपनी को हर साल किया जाने वाला करोड़ों का भुगतान है, क्योंकि अत्यधिक महँगी इस योजना के संचालन खर्च की वसूली जल-दरों से संभव नहीं है।
अब ‘जल जीवन मिशन’ के तहत गाँव स्तर की जलप्रदाय योजनाएँ बनाई जा रही है, लेकिन ये योजनाएँ भी बहुत बड़े बजट वाली हैं। हाल ही में बड़वानी जिले के पहाड़ी तथा आदिवासी बहुल पाटी क्षेत्र में स्थित सिंदी और ठेंग्चा गाँवों के लिए पौने चार करोड़ रुपए की पेयजल योजना का शिलान्याय किया गया। ये गाँव फलियों में विभाजित होकर 3-4 किमी के दायरे में बसे हैं इसलिए न सिर्फ हर फलिए में नल से पानी पहुँचाना महँगा है, बल्कि बिजली बिल सहित अन्य संचालन खर्च भी काफी अधिक होगा जिसे वसूल कर पाना बहुत ही मुश्किल है।
हाल ही में विद्युत वितरण कंपनियों ने बिजली बिल बकाया होने के कारण पूरे मध्यप्रदेश में जलप्रदाय योजनाओं के बिजली कनेक्शन काट दिए हैं। विद्युत कंपनियों के इस कदम से प्रदेश के हजारों गाँवों में अचानक कृत्रिम जल संकट पैदा हो गया है। व़ैसे बिजली बिल बकाया होना कोई नई बात नहीं हैं क्योंकि ग्रामीण पेयजल योजनाओं के बिजली बिल सरकारी खजाने से ही भरे जाते रहे हैं। लगभग सारी पंचायतों में या तो जल-कर अस्तित्व में नहीं है या फिर उसकी वसूली नहीं की जाती है। हैरत की बात है कि अपेक्षाकृत सस्ती और विकेन्द्रित जलप्रदाय योजनाओं की लागत तक वसूल न कर पाने वाली पंचायतों से अब अपेक्षा की जा रही है कि वे ‘जल जीवन मिशन’ की अत्यधिक महँगी योजनाओं का संचालन खर्च चुकाने के लिए तैयार रहें।
इस बजट में स्वीकृत राशि से भी इसी तरह की पेयजल योजनाएँ प्रस्तावित हैं जिनका संचालन-संधारण खर्च असहनीय है। इन योजनाओं को जारी रखना सिर्फ सरकारी सब्सिडी यानी सरकार पर निर्भरता से ही संभव है। उल्लेखनीय है कि दो दशक पहले राज्य के बिजली बोर्ड को आत्मनिर्भर (तब इसके लिए “सुधार” शब्द का उपयोग किया गया था) बनाने के लिए इन्हें कंपनियों में बदल दिया गया था। आज इन कंपनियों की हालत यह है कि बिजली की दरों में बेतहाशा वृद्धि के बावजूद सरकारी धन की बैसाखी के बिना ये एक कदम भी आगे बढ़ाने लायक नहीं बची हैं। आत्मनिर्भरता के नए जुमले से अब जलप्रदाय योजनाओं को भी उसी दिशा में ले जाया जा रहा है। यदि सचमुच जलप्रदाय योजनाओं को आत्मनिर्भर बनाना है तो पुराने वाले ‘अच्छे दिनों’ की विकेन्द्रित योजनाओं पर ध्यान देना होगा ताकि स्थानीय जरुरत के अनुसार कम लागत की वित्तीय लिहाज से व्यवहारिक योजनाएँ बनाई जा सकें। (सप्रेस)
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