नरेन्द्र चौधरी

‘गुरुदेव’ रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की बात करें तो राष्‍ट्रवाद और आत्‍मनिर्भरता का उल्‍लेख आ ही जाता है, लेकिन क्‍या उनके हवाले से ये दोनों मूल्‍य ठीक उसी तरह जाने-पहचाने जा सकते हैं जिस तरह आजकल इन्‍हें उपयोग किया जा रहा है?

पहले अमित शाह और फिर प्रधानमंत्री के ‘विश्व भारती’ के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित समारोह में शामिल होने से टैगोर के विचारों पर बहस छिड़ गई है। शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि इस विश्वविद्यालय में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ‘गुरुदेव’ रवीन्द्रनाथ टैगोर के मार्गदर्शन में भारतीय राष्ट्रवादी भावना को मूर्तरूप दिया गया था। सवाल है कि आज ‘विश्‍व भारती’ की शताब्‍दी पूरी होने पर टैगोर को याद करते हुए हमें उनके विचारों को आज के संदर्भ में क्‍यों देखने की जरूरत है? यदि हम उन विचारों को आज भी प्रासंगिक मानते हैं तो हमें देखना होगा कि हम उन पर कितना अमल कर पा रहे हैं।

इस सन्‍दर्भ में स्वतंत्रता आंदोलन के दौर के भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को देखें तो उसमें धर्म, जाति और लिंग आधारित भेदभाव के विचार को नकारा गया है तथा सबको साथ लेकर चलने की बात की गई है। वह एक समावेशी विचारधारा थी, जो भारत ही नहीं दुनिया में कहीं भी शोषण के खिलाफ चलने वाले संघर्ष को समर्थन देती थी। यह समावेशी तत्व अहिंसा पर आधारित लड़ाई से लेकर, क्रान्तिकारियों का हिंसक रास्ता, समाजवादियों और कम्युनिस्टों आदि के संघर्ष की सभी धाराओं में समान और सामूहिक रूप से समाहित था। ‘हिन्दू महासभा,’ ‘मुस्लिम लीग’ और ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ इसके अपवाद थे, किन्तु इनका समाज पर उतना प्रभाव नहीं था।

पूरी दुनिया में समानता, स्वतंत्रता और बंधुता का सपना आकार ले रहा था, किन्तु इसके साथ ही जर्मनी, यूरोप और अमेरिका आदि देशों में संकीर्ण राष्ट्रवाद का उभार भी  हो रहा था। शायद इसी कारण टैगोर ने राष्ट्रवाद का मुखर विरोध किया था और इस पर गंभीर चिंता जाहिर की थी। हम कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद से उन्हें पूर्णतः परहेज था और यदि राष्ट्रवाद से उनका कोई संबंध था भी तो वह जाति, धर्म, राज्य या राष्ट्र की सीमाओं से बंधा नहीं था।

‘विश्‍व भारती’ की उनकी कल्पना में मानवता (मनुष्यता) को सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था। उसकी स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य ही था कि ‘जहां पूरी दुनिया एक साथ, एक घर में रहेगी।’ भारत सहित संपूर्ण विश्व में जो भी श्रेष्ठ व अपनाने लायक है उसे ‘विश्व भारती’ में समाहित करने का प्रयास करने के साथ ही स्थानीय, प्राकृतिक और सहज को बरकरार रखने का प्रयास भी किया गया था। यहां गांधीजी का एक उद्धरण प्रासंगिक है, जिसमें वे कहते हैं – ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे घर में चारों तरफ दीवालें बनी हों और खिड़कियां बन्द हों। मैं चाहता हूं कि दुनिया भर की संस्कृतियों की बयार मेरे घर में यथासंभव स्वतंत्रतापूर्वक बहें, लेकिन मेरे पांव उनकी आंधी में उखड़ें नहीं।’ एक तरह से गांधी जी टैगोर की तरह दुनिया भर से ज्ञान लेने की बात कह रहे हैं, किन्तु उसके अंधानुकरण से बचने की बात भी कह रहे हैं।  

टैगोर मनुष्य की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के बड़े पक्षधर थे। ‘गीतांजली’ में अपनी विश्वप्रसिद्ध कविता – ‘जहां मस्तिष्क भयमुक्त और उन्नत हो’ में वे ऐसे जाग्रत राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं -जहां मन में भय न हो और माथा स्वाभिमान से उंचा हो। जहां ज्ञान बंधा न हो, दुनिया जहां संकीर्ण दीवारों से टुकड़ों में न बंटी हो। विचार जहां सच की गहराई से निकलते हों, जहां विवेक की निर्मल धारा अंधविश्वास के मरुस्थल में न खो जाय। जहां मन निरंतर गतिशील विचारों और कर्म की ओर बढता हो। स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में वे भारत को जाग्रत करने का प्रभु से निवेदन कर रहे हैं। आज भारत सहित दुनिया भर में संकीर्ण राष्ट्रवाद की हवा चल रही है। टैगोर की यह कविता हमारे सामने मापदंड रखती है कि हम भारत को एक सच्चा स्वतंत्र राष्ट्र कैसे बना सकते हैं। देश में आज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हमें सोचना होगा कि टैगोर की राष्ट्र की परिकल्पना के हम कितने पास या दूर हैं।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में टैगोर के एक गीत ‘‘एकला चलो रे‘‘ का उदाहरण दिया है। यह बहुत प्रेरणादायी गीत है, जिसमें कवि कहते हैं – यदि कोई तेरी आवाज न सुने तो भी अकेला चल। यदि सब डरें, तो तू मुक्तकंठ से अपनी बात बोल। यदि आंधी-पानी की रात में कोई द्वार न खोले तो अपने हृदय की आग जला। – यह गीत उन लोगों के लिए प्रेरणा तो है ही जो कम संख्या में होते हुए भी असहमति की लड़ाई लड़ रहे हैं, साथ ही समाज और सरकार को यह जिम्मेदारी देता है कि भिन्न मत रखने वाले अकेले या अल्प-संख्यक लोगों के प्रति न सिर्फ सहिष्णुता का भाव रखें, वरन् उन्हें अपना मत रखने के लिए मीडिया, रास्‍तों-चौपालों जैसी हर सार्वजनिक जगहों पर पर्याप्त अवसर व स्थान मिलें। राज्यसभा जैसे उच्च सदन में, जहां चुने हुए प्रतिनिधि अपनी राय रख सकते हैं और जो हर तरह से सक्षम भी हैं, जिस तरह से कृषि संबंधी तीनों बिल, इन प्रतिनिधियों को राय रखने का अवसर दिये बिना पास कराये गये, उससे यह जिम्मेदारी और बढ जाती है। समाज में भी भिन्न मत रखने वालों को जिस तरह घेरा जा रहा है और उन्‍हें देशद्रोही, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग,’ आतंकवादी या राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है, यह एक चिंतनीय विषय है। आज यदि टैगोर होते तो शायद वे भी अल्पमत में या अल्पमत के साथ होते।

अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ की चर्चा करते हुए इसे स्वतंत्रता संग्राम के समय उभरे राष्ट्रवाद की भावना की उपज बताया है। यह सही है कि इस संघर्ष के काल में ही आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना पर विचार होने लगा था, लेकिन वह आत्मनिर्भरता विकेन्द्रित और स्थानीय संसाधनों व आवश्यकताओं के अनुरूप थी। हाल ही में हमने जिस आत्मनिर्भर भारत की बात की है, उसका विचार सहज न होकर एक प्रतिक्रिया से निकला है। चीन ने भारत की सीमा का अतिक्रमण कर कुछ भूभाग पर कब्जा कर लिया तो हमने प्रतिक्रियास्वरूप उसके कुछ उत्पादों पर प्रतिबंध लगाते हुए आत्मनिर्भर भारत की बात प्रारंभ की। कल यदि चीन कहे कि हम पीछे हट रहे हैं, आप सारे प्रतिबंध हटा लीजिए, तब क्या हमारा आत्मनिर्भरता का विचार टिक पायेगा। इस विचार में हम जिस तकनीक और कॉर्पोरेट हाथों में ताकत केन्द्रित करने की बात कर रहे हैं, क्या उसका हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवाद और आत्मनिर्भरता के विचार से कोई संबंध है?

आत्मनिर्भर भारत का एक उल्लेखनीय उदाहरण ‘भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इसरो) है। शुरूआत में इस संगठन ने विकसित देशों की नकल करते हुए, बड़े व मंहगे उपग्रह बनाने का प्रयास किया था, लेकिन वह इस प्रकार की तकनीक के विकास में असफल रहा। बाद में इस संगठन ने छोटे व किफायती उपग्रह बनाये, जो हमारी जरूरतों व परिस्थितियों के अनुकूल थे। ये उपग्रह बहुत सफल रहे। उपग्रह के प्रक्षेपण की हमारी यह तकनीक इतनी सटीक व सस्ती है कि अभी तक 34 देशों के 328 उपग्रह हम प्रक्षेपित कर चुके हैं। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, केनेडा, इजराइल जैसे अनेक देश शामिल हैं। इन उपग्रहों की खासियत यह है कि हमने अपनी परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार, अपने स्थानीय संसाधनों से तकनीक का विकास किया है। आत्मनिर्भरता में हमारा लक्ष्य हमारी अपनी जनसंख्या की आपूर्ती होनी चाहिए। टैगोर भी ऐसी आत्मनिर्भरता के पक्षधर थे। (सप्रेस)

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