डॉ.विनय कुमार दास
भांति-भांति के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों के बावजूद बच्चों को कठिन और बदहाल रोजगारों से छुटकारा नहीं है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए बने कानूनों में ही कोई अंतर्विरोध हैं? प्रस्तुत है, बच्चों के हित में बने कानूनों के अंतर्विरोघों को उजागर करता लेख।
बाल मजदूरी के खिलाफ पहला कानून 1848 में बना था जब फैक्ट्रीज-एक्ट में लिखा गया था कि सात साल से नीचे के बच्चे ईंट-भट्टे की चिमनियों में काम नहीं कर सकते। इसका मतलब साफ है कि 1848 से पहले गुलाम भारत की उद्योग नीति के कारण सात साल से नीचे से 18 साल तक के बच्चे कानूनी तौर पर श्रम कर रहे थे। आज 170 वर्ष बाद क्या स्थिति है? सुबह-सुबह हिन्दुस्तान के किसी भी शहर में भद्र-जनों द्वारा फेंके गये कूड़ों के ढेर का पर्यवेक्षण करें। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, गाय, कुत्ता और सुअर सब आपको एक साथ जीविकोपार्जन करते मिलेंगे और यह स्थिति लगातार विषम से विषमतर होती जा रही है- चाहे सरकार किसी की भी हो।
ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि बच्चे हमारी सोच और नियोजन की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। पीछे की बात छोड़ दें, संविधान की धारा-23 में कहा गया है- 14 वर्ष तक का कोई भी बालक/बालिका खतरनाक उद्योगों में काम नहीं कर सकता। एक तरह से देखें तो यह वाक्य बाल-विरोधी ही है, बल्कि यह सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों व नियमावलियों में मान्य तक हो गया है। संविधान के उपरोक्त वाक्यांश का मतलब यह है कि (1) 14 वर्ष से नीचे का बच्चा/बालिका गैर-खतरनाक उद्योगों में काम कर सकता है और उसमें कानूनी दखल नहीं होगा। (2) 14 वर्ष से 18 वर्ष तक का बच्चा खतरनाक उद्योग में भी काम कर सकता है और (3) संविधान के मुताबिक छह वर्ष से नीचे का बच्चा कोई भी गैर-खतरनाक उद्योगों में काम कर सकता है।
संविधान में उपरोक्त प्रावधान होने के वर्षों बाद तक इस संदर्भ में देश के किसी भी राज्य में न कानून बना, न नियमावली और न ही राज्य कार्ययोजना बनी। क्या मजबूरी थी? अगर पैसे की मजबूरी थी तो परमाणु बमों के निर्माण के लिए शोध व संरचना विकसित करने की क्या जरूरत थीं? क्या हिन्दुस्तान में जो कुछ हुआ वह बच्चों के विकास की कीमत पर नहीं हुआ?
अब आगे देखिए-संविधान के उपरोक्त प्रावधान के आलोक में एक कानून बना-‘बाल मजदूर (प्रतिबंधन व नियम)-1986।‘ इस कानून की शब्दावली में संवैधानिक शब्दावली में वर्णित बाल-मजदूरी के नियमन का पूरी प्रखरता और दुस्साहस से सैद्धान्तिक समर्थन दिया गया। उस समय उस कानून में केवल 9 या 11 कार्यक्षेत्र बच्चों के लिए प्रतिबंधित किये गये थे। जिन सैकड़ों कार्यक्षत्रों में काम करने की कानूनी वैधता बच्चों के लिए दी गई, उसे थोड़ा मानवीय बनाने की बात भी उस कानून में कही गयी, जैसे आठ घंटे से ज्यादा काम नहीं लेना, कार्यस्थल पर पर्याप्त प्रकाश व शौचालय की व्यवस्था आदि।
इस कानून के बारे में पहली बार मुझे 1992 में जानकारी हुई और जानकर हैरानी हुई कि इस कानून के क्रियान्वयन के लिए बिहार में न नियमावली और न कोई कार्ययोजना ही बनी है। जानकारी यह भी मिली कि देश के केवल 7 या 8 राज्यों में ही नियमावली बनी है।
बिहार में गैर-सरकारी बाल-समूहों के अथक प्रयासों के बाद ‘बाल-मजदूरी (प्रतिबंधन व नियमन) नियमावली-1996’ बनी और राज्य कार्ययोजना भी बनी, लेकिन दुःखद है कि नियमावली में ’प्रतिबंधन’ रोकने के लिए एक भी वाक्य नहीं लिखा गया और पूरी नियमावली कार्यक्षेत्रों के नियमनों से ही आच्छादित रही। इस प्रकार, वास्तविकता यही रही कि बाल मजदूरी पर सम्पूर्ण प्रतिबंधन की दिशा में कोई भी ठोस प्रयास नहीं हुआ। यह अंतर्विरोध क्या और क्यों हैं?
पहला अंतर्विरोध तो संवैधानिक संशोधन, पूर्ववर्ती संवैधानिक प्रावधान का ही उल्लंघन कर सकता है? सन 2010 में नीति-निदेशक तत्व की धारा 45 में संशोधन किया गया कि 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा दी जाएगी। अर्थात् उपरोक्त आयु-समूह का कोई भी बच्चा बाल-श्रमिक नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह स्कूल में रहेगा, लेकिन धारा-23 में 6 वर्ष का कोई उल्लेख नहीं था अर्थात् 0 से 14 आयु-समूह को बाल मजदूरी निरसन के लिए लक्षित किया गया था। यानि धारा-23 और धारा-45 में हुये संशोधन 6 वर्ष से नीचे के बच्चों की दृष्टि से अंतर्विरोधी हो गये और बाल मजदूरी के कारण बन गये।
दूसरा अंतर्विरोध – ‘संयुक्त राष्ट्र बालाधिकार प्रस्ताव’ की पहली धारा के अनुसार 18 वर्ष की उम्र प्राप्त होने तक हर व्यक्ति बालक या बालिका है और इस धारा को भारत की सरकार ने बिना शर्त अनुमोदित किया है। तब इस धारा के आलोक में संविधान की धारा-23 में संशोधन होना चाहिए था जो आज तक नहीं हुआ है और इस तरह संविधान की धारा और बालाधिकार प्रस्ताव एक-दूसरे के खिलाफ हैं। ‘संयुक्त राष्ट्र बालाधिकार प्रस्तावों’ को अनुमोदित करते समय दुनिया-भर की तमाम सरकारें इस बात पर सहमत हुई थीं कि वे अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के समरूप अपने देश के कानूनों में आवश्यक परिवर्तन लायेंगे।
तीसरा अंतर्विरोध – ‘अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन,’ international labor organization जिसका भारत भी एक हिस्सा है, ने 19 जून 1976 को प्रस्ताव पारित किया था जिसके अनुसार किसी भी तरह के रोजगार के लिए न्यूनतम उम्र 18 साल से कम नहीं होगी ताकि काम की परिस्थितियों और तरीकों के कारण उसका स्वास्थ्य, सुरक्षा और नैतिकता बरकरार रहें। भारत सरकार द्वारा इसे मान्य करने के बावजूद इस प्रावधान को संविधान या कानून में स्थान नहीं दिया गया है और यह परिस्थिति व मनोवृति सहज ही बच्चों को कार्यक्षेत्र व कार्यबल में धकेलती है।
चौथा अंतर्विरोध- ‘संयुक्त राष्ट्र बालाधिकार प्रस्तावों’ (1992) में से एक में कहा गया है कि दुनिया भर के किसी भी देश में किसी भी रूप में बच्चे (18 वर्ष तक) या बच्चियाँ बाल-मजदूरी नहीं करेंगी। उपरोक्त प्रावधान को भारत सरकार ने संसाधनों की उपब्धता की शर्त पर अनुमोदन करते हुए कहा कि हमारी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है और इसलिए जब हमारी स्थिति मजबूत हो जायेगी तो इसका बिना शर्त अनुमोदन करेंगे। तब से लेकर आज तक हमारा फॉरेन एक्सचेंज कितना बढ़ा, कितने फ्लाई-ओवर बने? लेकिन बच्चे? वे आज भी कूड़ा बीनते हैं।
पांचवां अंतर्विरोध- ‘अतंर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ international labor organization ने लगभग दो दशक पहले एक तरह से बाल विरोधी प्रस्ताव (182) पारित किया था और कहा था कि बच्चे बदतर रोजगारों में काम नहीं करेंगे, लेकिन गैर-बदतर रोजगारों में काम करेंगे। अब जरा इस प्रावधान की मीमांसा करें। सब कहेंगे कि कूड़ा बीनना खराब है और रसगुल्ला बनाना अच्छा है, लेकिन अगर किसी बच्चे से कहा जाय कि तुम रोज पांच सौ रसगुल्ला बनाओ तो क्या यह अच्छा होगा? क्या बच्चों को ध्यान में रखकर हमने किसी कार्यक्षेत्र के चरित्र के बारे में सोचा है? कभी नहीं ! और इसीलिए बच्चे काम करते हैं?
छठवां अंतर्विरोध- बिहार Bihar ऐसा राज्य है जहां बाल अधिकारों को लेकर दो-दो आयोग काम कर रहे हैं। एक केन्द्र सरकार का और दूसरा राज्य सरकार का। कितने पैसे हम दोहराव में खर्च कर रहे हैं और दूसरी तरफ हम बाल- अधिकारों को सलीके से न अनुमोदित कर पाते हैं और न लक्ष्यभेदी क्रियान्वयन कर पाते हैं। इसीलिए बच्चे आज भी मजदूरी करते हैं। (सप्रेस)
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