बीएचयू में हुई एक दुर्घटना ने फिर उजागर कर दिया है कि देश के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव होता है, लेकिन क्या इसे दुरुस्त करने के रस्मी तौर-तरीके महिलाओं को उनकी हैसियत वापस लौटा सकेंगे? क्या हैं, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार की वजहें?
‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ में इस समय तूफान बरपा हुआ है। 1-2 नवम्बर की रात डेढ़ बजे परिसर के अंदर एक छात्रा को उसके पुरुष सहपाठी से अलग कर तीन मोटरसाइकिल सवारों ने उसका चुम्बन ले उसे निर्वस्त्र कर मोबाइल पर उसकी तस्वीर खींची। छात्रा के मजिस्ट्रेट व विवेचना अधिकारी के सामने दिए गए बयान के बाद अज्ञात अभियुक्तों के खिलाफ सामूहिक बलात्कार की धारा भी मुकदमे में जोड़ दी गई है। बताया जा रहा है कि कुछ दिनों पहले एक अन्य छात्रा के साथ भी ऐसी दुर्घटना हुई थी। छात्र-छात्राओं के जबरदस्त विरोध के बाद विश्वविद्यालय व जिला प्रशासन ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ की सीमा पर एक दीवार खड़ी करने की सोच रहे हैं।
इसको लेकर विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के छात्र-छात्रा नाराज हैं। उनका सवाल है कि क्या विश्वविद्यालय में अन्य छात्राएं नहीं हैं जिनकी सुरक्षा की चिंता भी होनी चाहिए? फिर सवाल तो यह भी है कि विश्वविद्यालय के बाहर गांवों या वाराणसी शहर में रहने वाली लड़कियों को क्यों छोड़ा जाए? क्या इन सभी की सुरक्षा की चिंता नहीं होनी चाहिए? क्या प्रौद्योगिकी संस्थान के बाहर की लड़कियों को छेड़ने वालों के लिए छोड़ दिया जाएगा? और यह भी सवाल है कि प्रौद्योगिकी संस्थान के अंदर क्या यह सम्भव नहीं कि किसी लड़की या महिला का किसी पुरुष प्रोफेसर, कर्मचारी या छात्र द्वारा यौन शोषण हो?
‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के ‘चिकित्सा संस्थान’ में 2012 में एक प्रोफेसर को छात्रा के यौन शोषण के आरोप में समय से पहले सेवानिवृत किया गया था। इस तरह की और भी दुर्घटनाएं इस विश्वविद्यालय परिसर में हो चुकी हैं। 2017 में एक छात्रा के यौन शोषण के बाद विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर लड़कियों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन पर कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी ने पुलिस से लाठी चलवाई तो उन्हें लम्बी छुटटी पर भेजकर उन्हें सेवा निवृत किया गया। इसी वर्ष 22 मई को एक महिला दलित सहायक प्रोफेसर ने आरोप लगाया है कि उसके विभाग के ही दो प्रोफेसरों, जिनमें एक महिला है, व दो छात्रों ने उसका यौन शोषण किया जिसकी प्राथमिकी पुलिस ने 27 अगस्त को तब दर्ज की जब इस महिला ने अनुसूचित जाति आयोग, शिक्षा मंत्रालय व मुख्यमंत्री, आदि कई जगह शिकायत की।
2014 में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ के सिविल अभियांत्रिकी विभाग की अंतिम वर्ष की एक छात्रा ने विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर जो विभागाध्यक्ष व डीन भी रहे, पर आरोप लगाया कि उन्होंने उसे पहले परिसर स्थित मंदिर पर चाय पिलाई, फिर विश्वविद्यालय के बाहर लंका बाजार में लस्सी पिलाने के बहाने अपने नए बन रहे घर ले गए और वहां उसका चुम्बन लेने और घर के अंदर ले जाने की कोशिश की। संस्थान की ‘महिला शिकायत प्रकोष्ठ’ द्वारा जांच में शिकायत सही पाए जाने पर निदेशक ने इन प्रोफेसर की सेवा निवृति उपरांत नियुक्ति को रद्द किया। यानी कि प्रौद्योगिकी संस्थान की लड़कियां संस्थान में ही सुरक्षित नहीं तो दीवार बनाकर क्या होगा?
छात्राओं को सोचना होगा कि यह मामला भौतिक सुरक्षा का नहीं है। वह तो जितना किया जा सकता है, किया ही जाना चाहिए, लेकिन जब तक पुरुषों की महिलाओं के प्रति सोच नहीं बदलेगी तब तक उनके लिए यौन शोषण का खतरा बना ही रहेगा। घर के बाहर नहीं तो घर के अंदर भी अपने सगे रिश्तेदार खतरा बन सकते हैं। बेहतर होगा कि महिला सुरक्षा के लिए माहौल बनाया जाए। आखिर विश्वविद्यालय की अन्य महिलाएं व परिसर के बाहर रहने वाली लड़कियों का भी तो उतना ही अधिकार है कि उन्हें सुरक्षित माहौल मिले। बल्कि परिसर के बाहर तो गांवों में वे महिलाएं रहती हैं जिनके परिवारों ने विश्वविद्यालय बनाए जाने के लिए अपनी जमीनें खाली कीं।
आप देखेंगे कि विस्तृत परिसर जिसमें खुली जगह पर्याप्त है, के चारों ओर घनी आबादी है। ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों से जमीन खाली कराकर उन्हें विश्वविद्यालय के हाशिए पर ढकेल दिया गया। जिन परिवारों ने विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए कुर्बानी दी क्या हम उन्हें बाहरी मानकर उनके साथ सौतेला व्यवहार करेंगे? क्या हम विश्वविद्यालय के द्वार बंद कर गांव वालों को उनकी पुरानी जमीनों पर आने से वंचित करेंगे? याद रखें पुराने गांवों के कई पवित्र स्थान इस समय परिसर के अंदर हैं जहां गांव के लोग दर्शन करने आते हैं।
हमें सभी महिलाओं की सुरक्षा के बारे में सोचना होगा तभी वे सभी जगहों पर सुरक्षित रहेंगी। इसके लिए दोनों स्तरों पर काम करने की जरूरत है। एक तो महिला खुद सशक्त हो तथा अपनी रक्षा खुद कर सके। दूसरा, पुरुषों का नजरिया बदला जाए ताकि वे महिला को बराबर का सम्मान दें, उनके निजता के अधिकार को पहचानें और उन्हें सिर्फ भोग की वस्तु के रूप में न देखें।
ये दोनों ही प्रकियाएं समाज में चल रही हैं और देश में ‘निर्भया कांड’ के बाद काफी गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब महिलाएं खुलकर अपने यौन शोषण के बारे में बात कर रही हैं जैसा पहले नहीं करती थीं। अब इसे कोई इज्जत बचाने के नाम पर छुपाता-दबाता नहीं है। पुरुष भी महिलाओं के प्रति पहले से ज्यादा संवेदनशील हैं और भले ही मजबूरी में, लेकिन महिलाओं को समाज में बराबरी का स्थान दे रहे हैं। इन प्रकियाओं को और तेज करने की जरूरत है।
सरकारों को भी इस मुद्दे पर संवेदनशील रवैया अपनाना होगा। यदि महिला पहलवानों के मामले में सांसद बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती तो संदेश यही जाएगा कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए एक आरोपी को बचा रही है। ऐसी सरकार पर कौन महिला अपनी सुरक्षा के लिए भरोसा कर सकती है? अपराधी को भी संदेश जाता है कि यदि आप शासक दल के साथ हैं तो आपको कोई चिंता करने की जरूरत नहीं। यही निर्भीकता अपराधियों को 1-2 नवम्बर जैसा दुस्साहस करने की हिम्मत देता है।
जो आपराधिक मानसिकता के लोग हैं उनसे तो आपराधिक न्याय व्यवस्था को ही निपटना पड़ेगा, लेकिन समाज में ऐसे सुरक्षा के कवच बनाने होंगे कि महिलाएं अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें। सार्वजनिक स्थानों पर सशक्त महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने से यौन शोषण और मुश्किल होगा, किन्तु मुख्य बात है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने अपनी ‘सप्त क्रांति’ में पहले स्थान पर नर-नारी समानता का जो सपना देखा था उसे साकार करना होगा। जब सही मायने में पुरुष महिला को बराबरी का स्थान व सम्मान देगा तभी यौन शोषण खत्म होगा। (सप्रेस)
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