अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ (8 मार्च)

वैसे तो बेहतर स्वास्थ्य समूचे समाज की बुनियादी जरूरत है, लेकिन महिलाओं के लिए इसकी खासी अहमियत है। अव्वल तो वे अपने भीतर जीवन रचती हैं, नतीजे में उनकी शारीरिक बनावट बेहद पेचीदी रहती है। दूसरे, हमारे महिला विरोधी सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक ताने-बाने ने उन्हें अतिरिक्त जिम्मेदारियों से लाद दिया है। ऐसे में क्या है, महिला स्वास्थ्य की मौजूद दशा?
संध्या राजपुरोहित

आधी आबादी, यानी महिलाएँ, समाज का वह आधार हैं जिनके बिना किसी भी राष्ट्र का समग्र विकास असंभव है। चाहे वह घर हो, कार्यस्थल हो या सामाजिक संरचना, महिलाओं की भूमिका अति महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या वे स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिहाज से सचमुच सशक्त हैं? यह सवाल गहराई से विचार और कार्रवाई की माँग करता है। महिलाओं का स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा, दोनों एक दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और इन पर ध्यान देना किसी भी समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए।
भारत जैसे विकासशील देशों में महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ आज भी गंभीर बनी हुई हैं। ‘मातृ मृत्युदर’ अभी भी ऊंची है, जिसका मुख्य कारण प्रसव के दौरान उचित स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और समय पर चिकित्सा सुविधा न मिल पाना है। विश्वबैंक की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ‘मातृ मृत्युदर’ प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर 103 है, जो विकासशील देशों की औसत से अधिक है। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में गर्भवती और धात्री महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया (रक्ताल्पता) जैसी समस्याएँ सामान्य हैं। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ (एनएफएचएस-5) के अनुसार 57% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं। यह स्थिति न केवल उनकी शारीरिक क्षमता को प्रभावित करती है, बल्कि उनके परिवार और समाज पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है।
स्वास्थ्य से जुड़ी एक और बड़ी समस्या है ग्रामीण क्षेत्रों में सेनेटरी पैड का उपयोग न करना और शौचालयों की कमी। एनएफएचएस-5 के अनुसार भारत में केवल 62% महिलाएँ माहवारी के दौरान स्वच्छता उत्पादों का उपयोग करती हैं। माहवारी स्वच्छता पर जागरूकता की कमी के कारण महिलाएँ आज भी पुराने और अस्वच्छ तरीकों का इस्तेमाल करती हैं, जिससे संक्रमण और प्रजनन संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इस स्थिति से महिलाओं की शिक्षा और कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है, क्योंकि कई महिलाएँ माहवारी के दौरान स्कूल या कार्यस्थल से अनुपस्थित रहती हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 23% लड़कियाँ माहवारी के कारण स्कूल छोड़ देती हैं।
शौचालयों की अनुपलब्धता महिलाओं को खुले में शौच के लिए मजबूर करती है, जिससे न केवल उनका स्वास्थ्य, बल्कि उनकी सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत 2014 से 2022 तक 10 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया है, लेकिन, जमीनी स्तर पर इन शौचालयों का उपयोग सुनिश्चित करने और उनकी सफाई बनाए रखने की आवश्यकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी स्वच्छता और शौचालयों की कमी का महिलाओं पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई बार संक्रमण इतना गंभीर हो जाता है कि प्रजनन क्षमता तक प्रभावित हो सकती है। ‘यूनाइटेड नेशन्स पॉपुलेशन फंड’ की एक रिपोर्ट के अनुसार अस्वच्छ माहवारी प्रबंधन के कारण महिलाओं में यूटेरस इन्फेक्शन और अन्य बीमारियों की संभावना 70% तक बढ़ जाती है।
सरकार ने इस दिशा में कई पहल की हैं, जैसे ‘सुविधा’ योजना के तहत सस्ती दरों पर सेनेटरी पैड उपलब्ध कराना और ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के अंतर्गत हर घर में शौचालय निर्माण को प्रोत्साहित करना। इन प्रयासों के बावजूद, इन योजनाओं का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी और सामाजिक रूढ़ियों के कारण सीमित रह जाता है। इसे प्रभावी बनाने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान और स्थानीय समुदायों की भागीदारी आवश्यक है।
महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा पर ध्यान देना सिर्फ सरकारी योजनाओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसे सामाजिक आंदोलन के रूप में लिया जाना चाहिए। ‘गैर-सरकारी संगठनों’ की भूमिका यहाँ महत्वपूर्ण हो जाती है, जो न केवल जागरूकता फैलाने में, बल्कि जमीनी स्तर पर समस्याओं के समाधान में मदद कर सकते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इसे अक्सर अनदेखा किया जाता है। सामाजिक दबाव, घरेलू जिम्मेदारियाँ, लैंगिक भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह महिलाओं के मानसिक तनाव का कारण बनते हैं। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच का अभाव हो और इसे सामाजिक कलंक माना जाए। मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ न केवल व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके परिवार और समाज पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं।
भारत में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर शोध से यह पता चलता है कि हर पाँच में से एक महिला अवसाद या चिंता से जूझ रही है। इसके बावजूद, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच अभी भी सीमित है। सरकार द्वारा ‘जननी सुरक्षा योजना’, ‘प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना’ और ‘आयुष्मान भारत’ जैसी योजनाएँ शुरू की गई हैं, जो महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार लाने का प्रयास करती हैं, लेकिन इन योजनाओं का प्रभाव तब तक सीमित रहेगा जब तक जागरूकता और सही कार्यान्वयन सुनिश्चित नहीं किया जाता।
महिलाओं की सुरक्षा एक और अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो न केवल कानून और नीतियों के माध्यम से सुलझाया जा सकता है, बल्कि इसके लिए सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की भी आवश्यकता है। घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएँ महिलाओं की स्वतंत्रता और आत्मविश्वास को प्रभावित करती हैं। ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,28,278 मामले दर्ज किए गए, जिनमें घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न प्रमुख हैं। सार्वजनिक स्थलों और कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न की घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि महिलाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाना अभी भी एक चुनौती है।
डिजिटल युग ने महिलाओं के सामने नई चुनौतियाँ पेश की हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट पर साइबर बुलिंग और उत्पीड़न जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं। इनसे निपटने के लिए ‘निर्भया फंड’, ‘महिला हेल्पलाइन 181’ और ‘कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा कानून’ जैसे कदम उठाए गए हैं, लेकिन इन उपायों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना आवश्यक है। महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समुदाय आधारित प्रयास भी जरूरी हैं। उदाहरण के लिए महिला पुलिस की संख्या बढ़ाना, महिला सुरक्षा ऐप्स का प्रचार-प्रसार और स्थानीय स्तर पर महिला समूहों का गठन महिलाओं को सशक्त करने के प्रभावी तरीके हो सकते हैं।
समाज की सक्रिय भूमिका महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा को सुनिश्चित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण है। जागरूकता अभियान महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान रूप से शिक्षित करने की दिशा में कार्य कर सकते हैं। लैंगिक भेदभाव की मानसिकता को समाप्त करने और स्वास्थ्य व सुरक्षा से संबंधित विषयों पर संवाद और चर्चा को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। लड़कियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना भी महिलाओं की स्थिति को सुदृढ़ कर सकता है।
परिवार और समाज का सहयोग महिलाओं को सुरक्षा और आत्मविश्वास प्रदान करता है, जबकि स्थानीय समुदाय और संगठन महिलाओं के लिए सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण बनाने की दिशा में सक्रिय रूप से कार्य कर सकते हैं। स्वस्थ और सुरक्षित आधी आबादी का होना किसी भी समाज की प्रगति और सशक्तिकरण का प्रतीक है। महिलाओं की शक्ति और उनके अधिकारों को समझने और उन्हें बढ़ावा देने का अर्थ है, पूरी मानवता को सशक्त बनाना। यह समय की माँग है कि हम महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा को प्राथमिकता दें और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करें। (सप्रेस)
संध्या राजपुरोहित डेढ़ दशक तक स्कूली शिक्षा से सम्बद्ध रहने के बाद मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों के साथ जीवन कौशल शिक्षा पर कार्यरत हैं।