उपासना बेहार

महिलाओं के लिए संपत्ति का अधिकार उन्हें केवल पूंजी या वस्तुओं पर मिलकियत भर नहीं देता, बल्कि उनमें एक आत्मविश्वास भी जगाता है। जाहिर है, हमारा मौजूदा सामाजिक ताना-बाना आत्मविश्वास से लबरेज महिला को मंजूर नहीं कर सकता। नतीजे में तरह-तरह की ना-नुकुर के साथ महिलाओं को संपत्ति के अधिकार में भागीदारी दी जाती है। क्या हैं, इस अधिकार की राह के अडंगे?

उपासना बेहार

हमारा समाज पितृसत्तात्मक समाज है और महिलाओं को एक इंसान के रुप में नहीं, बल्कि वस्तु के रुप में देखा जाता रहा है, हालांकि समय के साथ उनकी स्थिति में थोड़ा परिवर्तन आने लगा है। आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने संविधान में महिलाओं को अनेक अधिकार दिए और ‘हिन्दू कोड बिल’ लाया गया, लेकिन इस बिल का बहुत विरोध हुआ। इन विरोधों के चलते इस बिल के कई प्रावधानों को कमजोर करके लागू किया गया। धीरे-धीरे महिलाओं के लिए कई कानून बनते गए जिनमें महिलाओं को संपत्ति में अधिकार भी एक है।

महिलाओं को संपत्ति का हक एक कानून के रुप में मिल तो गया, लेकिन जमीनी स्थिति में इसे प्राप्त कर पाना आज भी एक चुनौती है। महिलाओं को संपत्ति पर हक पाने के लिए कई सामाजिक दिक्कतों और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जिसमें सबसे प्रमुख बाधा सोच/मानसिकता की है जिसमें महिलाओं को संपत्ति का हकदार ही नहीं माना जाता है। परिवार भी यही सोचता है कि लड़की की शादी के बाद मायके में कोई अधिकार नहीं है और उसका सब कुछ ससुराल ही है।

बचपन से ही बच्चियों के मन में परिवार और समाज द्वारा यही सोच बनायी जाती है। इसी के चलते स्वयं महिलाऐं भी यह सोच बना लेती हैं कि शादी के बाद उनका मायके की संपत्ति में कोई हक नहीं बनता है। इसी तरह परिवार हमेशा लड़की को यह जताते और बताते रहते हैं कि उसकी शादी में जो दहेज दिया गया है वो एक तरीके से संपत्ति में उसका जो हिस्सा बनता था वह ही है, जबकि दहेज में दी जाने वाली संपति/पैसा/सामान इत्यादि तो लड़की को नहीं, बल्कि पूरे परिवार को दिया जाता है।

अनेकों बार देखने में आता है कि लड़की की तरफ से दिये गये सामान का उपयोग लड़के के परिवार वाले अपने घर में होने वाली किसी अन्य लड़की की शादी में दहेज के रुप में करते हैं। कई बार नगद पैसे का उपयोग लड़का अपने उपयोग के लिए करता है, लेकिन इससे लड़की को ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है। दहेज़ दिए जाने के कारण वह अपने मायके की संपत्ति में हिस्सा लेने में हिचकती है और बुरे वक्त में दहेज भी उसके कोई काम नहीं आ पाता। वैसे भी दहेज लेना या देना कानूनन जुर्म है जिसे हर हाल में रोकना चाहिए।

संपत्ति में हक़ न मांगने का एक कारण महिलाओं में मायके की चाह और सुरक्षा व संरक्षण की भावना भी होती है। ज्यादातर महिलाऐं अपने संपत्ति के हक को अपने भाईयों के पक्ष में कर देती हैं तो उसका भी एक बड़ा कारण भावनात्मक है। उन्हें लगता है कि अगर वो संपति में हक मागेंगी तो भाई-बहन के रिश्ते में दरार आ जायेगी और माता-पिता की मौत के बाद उनका मायके में कोई नहीं रहेगा जो उन्हें भावनात्मक और विपत्ति के समय सहारा दे सके। वहीं विधवा या वृद्ध महिलाऐं अपना हक इसलिए नहीं मांग पातीं, क्योंकि ज्यादातर वो परिवार के पुरुषों की सुरक्षा और संरक्षण में ही रहती हैं। इसी तरह पुरुषों का सोचना होता है कि महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी उनकी है तो महिलाओं को संपत्ति की क्या जरुरत है।

हमारे समाज की मान्यता इस प्रकार से है कि मां-बाप अपने बेटे के होते हुए बेटी के घर जाकर जीवन गुजार नहीं सकते हैं और कैसे भी हो उन्हें बेटे के साथ ही रहना है। इसके चलते लड़कियॉं भी सोचती हैं कि भाई ही मां-बाप की देखभाल करेंगे तो उन्हें ही संपत्ति लेने का हक बनता है। अगर कभी कोई महिला संपत्ति पर हक मांगती भी है तो उसकी छवि नकारात्मक बना दी जाती है और उस पर “घर तोड़ने वाली” महिला का टेग लगा दिया जाता है। संपत्ति में हक मांगने वाली महिलाओं को अधिकतर प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। मारपीट-बलात्कार-हत्या जैसी हिंसक घटनाऐं उनके साथ होती हैं, उन्हें डायन-पागल करार किया जाता है।  सरकार द्वारा समय-समय पर महिलाओं के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं। चूंकि ज्यादातर महिलाओं की दुनिया घर की चार-दीवारी होती है इसके चलते उनको अपना हक़, कानून और उसे प्राप्त करने को लेकर जानकारी नहीं होती। साथ ही सरकार द्वारा ‘संपति के अधिकार कानून’ और उसके प्रावधानों का ज्यादा प्रचार और प्रसार नहीं किया गया है। इस कारण भी ज्यादातर महिलाओं को इसके बारे में जानकारी नहीं है।

संपति का हक एक कानूनी अधिकार है और लड़की को जन्म लेते ही अन्य हकों की तरह संपति का हकदार माना जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में सभी प्रमुख कानूनों की मुख्य बातों को शामिल किया जाना चाहिए। जब शादी हो उस दौरान लड़के और लड़की को संपत्ति के हक के बारे में बताना चाहिए। सबसे प्रमुख बात – लड़कियों को भी समझना होगा कि माता-पिता की देखभाल करने की जिम्मेदारी उतनी ही उनकी भी है जितनी कि लड़कों की। (सप्रेस)