विचार और वस्तु के बीच का सदियों पुराना द्वंद्व क्या साम्प्रदायिक और गैर-साम्प्रदायिक भी हो सकता है? क्या विचार पर विचारधारा की अहमियत एक तरह की साम्प्रदायिकता को जन्म देती है? और क्या अपने चतुर्दिक फैले व्यापक संसार में शांति की बुनियादी शर्त विचारवान होना ही है?
शांति, अशांति, विचार और विचारधारा – ये सब मनुष्य के मन में सनातन काल से चलने वाली हलचलें हैं। जैसे प्रकाश में प्राकृतिक प्रवाह के रूप में गति और विस्तार सनातन काल से है, वैसे ही मन और शरीर में भी गति और प्रवाह निरन्तर है। अशांत मन शांति को तलाशता है। शांत मन सारी हलचलों को बीज रूप में अपने आप में समाये रखता है। शांति की तलाश का विचार भी मनुष्य के अशान्त मन में आया। याने अशांति के विस्तार के बाद फिर से मूल शान्त स्वरूप में आने की सनातन चाह सहज प्राकृतिक क्रम है। शांति मन की प्राकृतिक पर सनातन अवस्था है जिसमें अशांति का भाव आते ही मन में अशांति से शान्ति की ओर जाने का विचार अपने-आप आ जाता है।
शांति जीवन के सनातन प्रवाह का बीज है। सनातन धर्म और विचार सदैव मनुष्य के मन में बीज रूप में ही रहे हैं और इसी से सनातन की संज्ञा भी पा गये हैं। समूची धरती के हर हिस्से में ये अपनी-अपनी तरह से अभिव्यक्त हुए हैं। एक विचार यह भी है कि जो सबको स्वत:शांति दे वह सनातन विचार और जो मन में अशांति का भाव लाये वह साम्प्रदायिक विचार। मन, वचन व कर्म को शांत, संयत और प्रकृति से स्वत: ही एकाकार रखे, वह सनातन सत्य विचार और धर्म होगा।
जो विचार मन, वचन और कर्म को निरन्तर अशांत स्थिति में ले जाय, वह साम्प्रदायिक विचार होगा। शांति हलचल विहीन चित्त की सनातन अवस्था है जो जीव को प्रकृति से स्वत: ही एकरूप कर देती है। चित्त में शांति जीवनी शक्ति के चैतन्य स्वरूप का जीवन्त उदाहरण है। अशांति जीवन की चेतना के प्रवाह में अवरोध है। अवरोध क्षणभंगुर ही होते हैं, तभी तो अशांति सनातन नहीं होती। जन्म साकार है और मृत्यु निराकार में समा जाना। जन्म होते ही नये-नये विचार की सनातन यात्रा मन में प्रारम्भ होती है। हर नये मनुष्य के मन में सनातन विचार प्रवाह स्वयं स्फूर्त रूप से निरन्तर चलता है।
शांति और विचार प्राकृतिक चेतना के प्रवाह हैं। जब विचार को निश्चित विचारधारा के रूप में ढाला जाता है तो अंतहीन मत-मतान्तरों की उत्पत्ति होकर विचार के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध होता है और अप्राकृतिक संस्थागत व्यवहार की क्षणिक उत्पत्ति होती है। मेरे-तेरे का साम्प्रदायिक और संगठनात्मक व्यवहार मन के विस्तार को संकुचित करने की कोशिश में लग जाता है। अशांत मन और साम्प्रदायिक विचार मनुष्यों के प्राकृतिक स्वरूप को यांत्रिक जड़ता में बदल डालता है। विचारवान मनुष्य का यांत्रिक कठपुतली में बदल जाना मनुष्य की संभावना का असमय खत्म हो जाना है।
विचारधाराओं ने मनुष्य को विचार के आधार पर न जाने कितने स्वरूपों में बांटकर सनातन ऊर्जा को तेरे-मेरे की संकुचित सोच में डाल दिया है। शांति और विचार ही सनातन धर्म की प्राकृतिक सभ्यता को निरन्तर जारी रखता है। विचारवान मनुष्य ही सनातन समय से अपने जीवन में आई सारी चुनौतियों का सामना करना सीख पाया है।
वर्तमान समय में मनुष्य सभ्यता में यांत्रिक समाधान का एक विचार नये स्वरूप में उभरा है। मनुष्य की मदद हेतु या मनुष्य की शक्ति के विस्तार हेतु यंत्रों से मदद लेने का लम्बा सिलसिला मनुष्य सभ्यता में निरन्तर चलता रहा है, पर अब यांत्रिक सभ्यता का विस्तार इस गति से मनुष्य के जीवन में रच-बस रहा है कि मनुष्य यांत्रिक सभ्यता का एक अंश भर होकर रह गया है। मानवीय संवेदनाओं की बुनियाद पर खड़ी सनातन सभ्यता में जड़वत यांत्रिक सभ्यता जिस रूप में मनुष्यों में घुसपैठ करती जा रही है वह एक बड़ी चुनौती है। इसका समाधान आज के मनुष्यों को विचार और प्रचार के मूल स्वरूप में खोजना होगा। प्रचार मनुष्य के विचार को प्रभावित कर अंधानुकरण की दिशा में ले जाता है, जबकि विचार मनुष्यों को सनातन काल से स्वतंत्रचेता स्वरूप में ही बने रहने की स्वतंत्र ऊर्जा प्रदान करते हैं।
विचार का सनातन प्रवाह और मशीन का प्रायोजित संचार आज के समय का सर्वथा नया आयाम है। एक जड़ यंत्र किस बड़े स्वरूप में, बिना एक-दूसरे से आपस में मिले किस हद तक अशांत या समृद्ध कर सकता है, यह आज का नया दृश्य है। सनातन रूप से स्वतंत्र विचार की जगह संकुचित और प्रायोजित प्रचार तंत्र ने कुछ मनुष्यों में एक नये भ्रम को जन्म दिया है। आज का मनुष्य विचार से कम और प्रचार से जल्दी प्रभावित हो जाता है, यह भ्रम आज फ़ैलने लगा है। आज प्रत्यक्ष विचार-विनिमय की बजाय यांत्रिक उपकरण या तकनीक द्वारा विचार का संचार कर मनुष्य को प्रभावित करने के नये-नये उपकरण मनुष्य को सुलभता से उपलब्ध होते जा रहे हैं।
हमारी धरती में जहां मनुष्य नहीं है वहां प्राकृतिक रूप से शांति है। वहां आनन्ददायक अनुभव होता है और हम आन्तरिक और बाह्य शान्ति में डूब जाते हैं। हर मनुष्य में अपनी चेतना का भाव मिलता है, पर हम सब अपनी चेतना को अन्य समकालीन जीवों की चेतना से एकाकार नहीं कर पाते। इसी से मन में असंतोष या अशांति का भाव पैदा होता है। धरती से आकाश तक जो हवा, पानी और प्रकाश का विस्तार है वह सब हमारे अंदर भी उसी रूप में मौजूद है। तीनों कभी, किसी से भेद नहीं करते। तीनों की अनन्त और सनातन ऊर्जा है। तीनों का अपना-अपना धर्म है। तीनों ने मिलकर जीवन-चक्र दिया है।
विचार और शांति दोनों ही निराकार हैं। अशांत स्थिति सनातन न होकर किसी तात्कालिक अवरोध – लोभ, लालच और चाहना के वशीभूत अविवेकी मन की क्षणिक हलचल हैं। धर्म-कर्म, विचार-विमर्श सनातन काल से मनुष्य की अंतहीन हलचलें हैं जो मनुष्य को जीवन जीने का मूल आधार प्रदान करती हैं। अशांत स्थिति के अवरोध क्षणिक हलचलों को पैदा जरूर करते हैं, परन्तु अवरोध अल्पकालीन ही होते हैं, जबकि शांति चित्त की सनातन आधार भूमि हैं। चित्त में शांति ही जगत में जीवन का सनातन बीज स्वरूप है।(सप्रेस)
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