किसान आंदोलन भोपाल में दो कदम आगे बढ़ा है। नीलम पार्क पर जहां प्रशासन ने बैठने भी नहीं दिया है, तो वहीं मंडी गेट पर दो दिन तक नारों और भाषणों का दौर जारी रहा। अब आगे भी सीमित ताकत, गलतियों और कमजोरियों के बावजूद किसान संगठन, सामाजिक संगठन, राजनीतिक दल और समूह फिर जोर आजमाइश की तैयारी में हैं। तो कह सकते हैं कि ये कोशिशें अगले कुछ दिनों में फिर नई शक्लों में दिखाई देंगी। वह शक्ल जमीनी होगी या फिर वायवीय, यह जल्द सामने आएगा।
यही भोपाल पिछले साल यानी 2020 की जनवरी में गर्मजोशी के साथ नारे उछालते हुए सत्ता के तानाशाही रवैये के खिलाफ मुखर था। इस साल मामला जुदा है। 23 दिसंबर को नीलम पार्क से लेकर 22-23 जनवरी की दरमियानी रात तक के एक महीने में कोशिशों, बैठकों, मैसेजों, पर्चों, आह्वानों का कुल जमा नतीजा सिफर रहा और फिर भोपाल की खुली फिजां में किसान आंदोलन के समर्थन की कोई आवाज नहीं है। जो समर्थन है, वह बंद कमरों, बैठक खानों और दफ्तरों तक बिखरा—बिखरा पड़ा है।
क्यों नहीं हो पा रहा धरना ?
ऐसे हालात में बड़ा सवाल जो हवा में है कि भोपाल में किसानों का धरना-प्रदर्शन लंबी अवधि के लिए क्यों नहीं हो पा रहा है। किसान आंदोलन के कार्यकर्ताओं की भाषा में ही कहें तो “क्यों खूंटा नहीं गाड़ पा रहे हैं?” समझना चाहें तो इसकी वजहें जानना बहुत आसान है और हकीकत से जी चुराना चाहें तो बातों की लच्छेदार जलेबियों के लिए भी काफी गुंजाइश है।
वजह की ठोस हकीकत को साफ करते हुए 23 दिसंबर के नीलम पार्क धरने के आह्वान में पुलिस की निगरानी में रह चुके एक किसान नेता कहते हैं कि यह बात तो सौ फीसदी सच है कि मौजूदा राज्य और केंद्र सरकार दमन की नीति अपना रही है और किसान आंदोलन को खड़ा नहीं होने देना चाहती है, लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि संगठन कमजोर हैं। जो संगठन मिल जुलकर आंदोलन को खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल ठीक से नहीं कर रहे हैं। यानी एक तो पहले ही किसानों के बीच मजबूत आधार नहीं है और जो है, उसे भी ठीक से जुटाया नहीं जा पा रहा है।
नीलम पार्क के सबक और मंडी गेट पर शुरुआत
दरअसल, किसान संघर्ष समिति ने 23 दिसंबर की गिरफ्तारी और दमन से सबक लेते हुए 21 जनवरी के धरने के लिए पूरी रणनीति बनाई थी। 23 दिसंबर के नीलम पार्क धरने का आह्वान करने वाले उत्साही समूह की गलतियों से सबक लेते हुए एक कोआर्डिनेशन कमेटी बनी जिसमें करीब 10 लोगों को शामिल किया गया। इसके बाद छुटपुट बैठकों और आह्वानों का दौर चला और आखिरकार यह तय हुआ कि 21 जनवरी को सभी समूह अपने—अपने संख्या बल के साथ सड़क पर आएंगे। लेकिन जो सोचा था, उसका 10 फीसदी भी जमीन पर नहीं उतरा। आखिरकार दो दिन बाद पुलिस ने रातों-रात धरना उजाड़ दिया।
इस दूसरी शिकस्त की वजहों की बात करते हुए कोआर्डिनेशन कमेटी के एक सदस्य कहते हैं कि— मध्य प्रदेश में राजनीतिक दलों का प्रभाव ज्यादा है, किसान संगठनों का प्रभाव कम है। दूसरे सामाजिक संगठन भी यहां जमीन पर उतने मजबूत नहीं हैं। दिक्कत यह है कि राजनीतिक दल भी अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर रहे हैं। यहां बात उन राजनीतिक दलों की हो रही है, जो सीधे तौर पर किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।
सुविधा अनुसार नहीं होता आंदोलन
किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमेटी के एक और सदस्य तल्ख भाषा में कहते हैं कि हमारे साथी आंदोलन तो करना चाहते हैं लेकिन सुविधा के मुताबिक चाहते हैं। वे कहते हैं— आंदोलन बिस्तर लेकर होता है। सुविधा अनुसार नहीं होता है। जाहिर है कि रात रुकने की तैयारी और 24 घंटे की कार्रवाई को लेकर आंदोलन के नेताओं के बीच समन्वय नहीं बन पाया था।
एक वरिष्ठ नेता इस बात को और साफ करते हुए कहते हैं कि जनआंदोलन बिना जनता के नहीं होता है। यह बात कबूल करनी ही होगी कि इस समय जो धड़ा किसान आंदोलन की जमीन तैयार करने की कोशिश कर रहा है, उसके पास जनता नहीं है। वे कहते हैं कि अगर ताकत होती तो सरकार पर भी दबाव होता।
अलग-अलग समूहों की बातचीत में यह बात भी साफ होती है कि जमीनी काम की जो जरूरत किसान आंदोलन को है, उसे मौजूदा आंदोलन की तैयार कर रहे किसी समूह ने गंभीरता से नहीं लिया। पंजाब के किसान आंदोलन को ही नजीर मानें तो बहुत पहले से वहां गांव-गांव में जागरूकता अभियान जारी था। जो आखिरकार 26 नवंबर को सड़क पर हुजूम के रूप में दिखाई दिया।
तो अब आगे क्या?
आने वाले दिनों में भोपाल में किसानों का कोई धरना प्रदर्शन होगा या नहीं, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टियां, संगठन और समूह जमीनी कार्रवाई में कितनी जान झौंकते हैं। क्योंकि अभी तक के अनुभव से ही तो यही लगता है कि पूरे आंदोलन की तैयारी व्हाट्सएप ग्रुप मैसेज, कुछ बैठकों और प्रदर्शनों तक ही सीमित रही है। यानी जिन किसानों से संवाद करना है, उनके बीच जाने से अभी आंदोलनकारी समूह बच रहा है (इसकी भी वजहें हैं, उनका जिक्र फिर कभी)। अभी तो आंदोलनकारी समूह पहले से किए गए छोटे छोटे काम के आधार पर कुछ बड़ा करने की तैयारी में है, जिसमें दो बार नाकामयाब हो चुका है।
हालांकि जो नेता किसानों के सीधे संपर्क में हैं, उनका कहना है कि गांवों में किसान आंदोलन को लेकर अंडर करंट तो हैं, लेकिन अभी मध्य प्रदेश का किसान भिड़ने की तैयारी में नहीं है। इस अंडर करंट को जमीन पर लाने के लिए जिस सतत काम की जरूरत है, उसे कौन अंजाम देगा, यह बड़ा सवाल है।
और फिर उम्मीद
दो बार की कोशिश में किसान आंदोलन भोपाल में दो कदम आगे बढ़ा है। नीलम पार्क पर जहां प्रशासन ने बैठने भी नहीं दिया है, तो वहीं मंडी गेट पर दो दिन तक नारों और भाषणों का दौर जारी रहा। अब आगे भी सीमित ताकत, गलतियों और कमजोरियों के बावजूद किसान संगठन, सामाजिक संगठन, राजनीतिक दल और समूह फिर जोर आजमाइश की तैयारी में हैं। तो कह सकते हैं कि ये कोशिशें अगले कुछ दिनों में फिर नई शक्लों में दिखाई देंगी। वह शक्ल जमीनी होगी या फिर वायवीय, यह जल्द सामने आएगा। (सप्रेस)
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