करीब आधी सदी में पूंजी और इंसानों के ढेरों संसाधन लगाकर पश्चिमी मध्यप्रदेश में ‘सरदार सरोवर जल-विद्युत परियोजना’ खडी तो कर ली गई है, गाहे-बगाहे उसके गुणगान भी किए जाते हैं, लेकिन उसकी चपेट में आई ढाई सौ गांवों की आबादी आज भी अपने ‘पूर्ण-पुनर्वास’ की बाट जोह रही है। उस इलाके की यात्रा करके लौटे आदर्श शर्मा की यह रिपोर्ट।
विकास क्या है? क्या बिजली बनाने के नाम पर सैंकडों गाँवों को डूबा देना ही विकास है? या उन डूबे गाँवों के बेघर हुए लोगों का ठीक से पुनर्वास ना करना विकास है? पिछले दिनों मेरा इन सवालों से कई बार सामना हुआ। दरअसल मैं अपने साथियों के साथ निमाड़ क्षेत्र में नर्मदा घाटी की यात्रा पर गया हुआ था। वहाँ जाकर मैंने जो देखा और महसूस किया, वह वास्तव में बहुत ही दर्दनाक था। वहाँ जाकर मैनें विस्थापन का दर्द जाना। जाना कि आखिर अपना घर-बार खो देने का दुख क्या होता है।
आप जानकर आश्चर्य करेंगे कि मध्यप्रदेश के ऐसे कई किसान, जिनकी जमीन डूब क्षेत्र में चली गयी है, उनको बदले में जो जमीन दी गयी है, वो गुजरात में है। एक किसान जिसे अपने गाँव की जमीन पर खेती करने के लिए भी दिन रात मेहनत करनी पड़ती है। वो किसान दूसरे राज्य में जाकर कैसे खेती कर पाएगा? कैसे खेती के सहारे जी रहे अपने परिवार का पेट भर पाएगा। कई किसान ऐसे भी थे जिन्होंने गुजरात में जमीन लेने से इनकार कर दिया और अपने गाँव में ही डटे रहे।
ऐसे कुछ किसानों से हमारी मुलाकात हुई- नर्मदा के डूब क्षेत्र में आए ‘राजघाट’ गाँव में। इस गाँव को बड़वानी कस्बे से जोड़ने वाली सड़क पानी में डूब चुकी है। गाँव के चारों तरफ पानी का सैलाब है और गाँव अब एक टापू बन चुका है। नदी के तट पर बने मंदिर पानी में डूब चुके हैं, अब उनकी चोटियां ही नजर आती हैं। गाँव के अधिकांश घर खंडहर हो गए हैं। लेकिन कुछ परिवार हैं जो अभी भी इस टापूनुमा गाँव में डटे हुए हैं। जब हमने इन लोगों से बात की तो पता चला कि सरकार द्वारा इन्हें गुजरात में जमीन दी गयी थी, लेकिन उस जमीन में कई समस्याएं थीं इसलिए इन लोगों ने उस जमीन को नहीं लिया और अपने गांव में टिके रहे।
ये लोग गाँव से बाहर जाने के लिए नाव पर निर्भर हैं। मरीज को अस्पताल ले जाना हो या फसल को बेचने जाना हो, सभी कामों के लिए नाव का इंतजार करना पड़ता है। घरों में खड़ी बैलगाड़ियां अब किसी काम की नहीं रही हैं। इनका जीवन अब दुष्कर हो चुका है।
देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव (75 वर्ष) मना रहा है, लेकिन आज भी देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहाँ लोगों के पीने के लिए साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा ही एक गाँव है- धार जिले में पड़ने वाला ‘भादल।’ नर्मदा की डूब किनारे पहाड़ियों पर बसे इस गाँव में ज्यादातर आदिवासी रहते हैं। ये लोग आजीविका के लिए खेती-किसानी पर ही निर्भर हैं। कुछ खेत डूब में जा चुके हैं, बचे हुए खेतों में खेती जारी है। यहाँ डूब का पानी तो आ चुका है, लेकिन सुविधाएं ना जाने कहाँ अटकी पड़ी हैं। सरकारी पानी की कोई सप्लाई नहीं है इसलिए लोगों को नर्मदा नदी का ठहरा हुआ पानी ही पीना पड़ता है। बिजली आए अभी दो-तीन साल ही हुए हैं, लेकिन वो भी ठीक से नहीं आती। गाँव में बच्चों का स्कूल तो है लेकिन उसमें शिक्षक नहीं आते।
गाँव के बच्चे ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ द्वारा चलाई जा रही ‘जीवनशाला’ में पढ़ाई करते हैं। स्कूल नहीं है तो अस्पताल होने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। छोटे-मोटे इलाज तो लोग अपने स्तर पर ही कर लेते हैं, लेकिन बड़ी समस्या आने पर जिला मुख्यालय की दौड़ लगानी पड़ती है। जिले तक जाने के दो रास्ते हैं- या तो पहाड़ों पर बने ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर दसियों किलोमीटर पैदल चलो या फिर नाव में बैठकर नदी पार करो और उसके बाद बस वगैरह में बैठकर जाओ। एक मरीज के लिए दोनों ही रास्ते बेहद कठिन हैं। आज के समय में रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा इंटरनेट भी एक बड़ी जरूरत बन चुका है लेकिन इस गाँव में नेटवर्क का एक डंडा भी नहीं आता।
हम डूब क्षेत्र के एक और गाँव ‘चिखलदा’ में भी गए। गाँव में बने सैंकड़ों घर (जिनमें से कुछ दुमंजिले भी थे), दसियों मंदिर, एक मस्जिद, एक दरगाह और एक जैन मंदिर इस गाँव की सामाजिक समृद्धि की कहानी कह रहे थे। कुछ साल पहले तक लोगों की चहल-पहल से गुलजार रहने वाला ये गाँव अब खंडहर बन चुका है। गाँव के लोग सरकारी आदेश पर गाँव खाली कर जा चुके हैं। उनके आशियाने धीरे-धीरे खंडहर बनते जा रहे हैं। इन खंडहरों की बाहर निकलती ईंटें विस्थापन का दर्द बयां करती मालूम हो रही थीं। इन टूटे घरों को देखकर हमारा भी दिल बैठा जा रहा था, लेकिन सच तो यही है कि कुछ साल पहले इन घरों को छोड़कर गए लोगों का सिर्फ छटांक भर दर्द ही हम महसूस कर सकते हैं।
सरकारी दावों और जमीनी हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर है। इसके कई उदाहरण हमें पुनर्वास में भी देखने को मिले। विस्थापितों के लिए बने एक अस्थायी पुनर्वास केंद्र में लोग पिछले तीन साल से टीन के बने घरों (जिनको डिब्बा भी कहा जा सकता है) में रहने को मजबूर हैं। टीन के घर यानी सर्दी, गर्मी और बरसात का कहर। इनमें से कई लोगों को सरकार द्वारा प्लॉट तो मिल गए हैं, लेकिन इनके पास इतना पैसा नहीं है कि उस जमीन पर पक्का घर बनवा सकें।
इनमें से ज्यादातर लोग दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी पर ही निर्भर हैं। महिलाएं आजीविका के लिए 150-200 की मामूली दिहाड़ी पर कपास के खेतों में काम करने को मजबूर हैं। कोरोना के कारण बच्चों का स्कूल जाना भी बंद हो गया है। आसपास के इलाके में ‘मनरेगा’ के तहत भी काम नहीं मिलता। ऐसे में ये लोग घर बनाने के लिए पैसा कैसे इकट्ठा कर सकते हैं? अस्थायी पुनर्वास केंद्र इनके स्थायी ठिकाने बन गए हैं, जहाँ वे मौसम की मार, गंदगी और कई तरह की असुविधाओं को झेलते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। ये समस्याएं इन लोगों के उम्र से पहले बूढ़े होते चेहरे और माथे की लकीरों पर स्पष्ट नजर आती हैं।
सरकार से उम्मीद लगाना तो बेमानी है इसलिए बस यही कहा जा सकता है कि काश सरकार इन लोगों के दर्द को समझ सकती और इन लोगों के दरवाजे तक विकास की राह बना सकती। आखिर विकास के नाम पर अपनी घर-खेत-जमीन खो चुके लोगों का विकास पर सबसे ज्यादा हक तो होना ही चाहिए। (सप्रेस)
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