सौ से अधिक दिनों से दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन अब केवल तीन कानूनों की वापसी और ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की वैधानिक गारंटी तक सीमित नहीं रह गया है। उसमें लंबे और प्रभावी आंदोलन के तौर-तरीके, अहिंसा की अहमियत और वर्ग, लिंग, जाति के विभाजनों को नकारते हुए सभी की भागीदारी के विभिन्न आयाम जुडते जा रहे हैं।
कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने चौरी-चौरा की ऐतिहासिक घटना की शताब्दी पर वहां शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि दी थी। मैं सोचने लगी कि उन्होंने यह श्रद्धांजलि किसे दी – मारे तो दोनों पक्षों के लोग गए थे – गोरे और भारतीय सिपाही भी और आजादी के सेनानी भी? और क्या यह भी भूला जा सकता है कि महात्मा गांधी ने दोनों पक्षों में विभेद किए बिना, घृणा और हिंसा का एक ही पक्ष माना था और असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था? मतलब सीधा है कि इतिहास से हम सीखते क्या हैं और सिखाते क्या हैं।
गांधीजी के लिए चौरी-चौरा एक महत्वपूर्ण मोड़ था। कांग्रेस ने अपने कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को ‘असहयोग आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया था। यह गांधीजी के नेतृत्व में चलाया जाने वाला पहला भारतीय जनांदोलन था। यह त्रिविध बहिष्कार था अंग्रेजों के स्कूलों-कॉलेजों का बहिष्कार; उनके न्यायालयों का बहिष्कार और उनकी नौकरियों का बहिष्कार। गांधीजी ने कहा था यदि हम संपूर्ण असहयोग कर सकेंगे तो एक वर्ष में स्वराज प्राप्त हो जाएगा। हजारों नौजवान अपनी पढ़ाई और नौकरियां छोड़कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। सन् 1857 के विद्रोह के बाद यह दूसरा मौका था जब अंग्रेजी राज की नींव हिलने लगी थी।
चौरी-चौरा की घटना 4 फरवरी 1922 को घटी थी। ‘असहयोग आंदोलन’ का एक जुलूस प्रदर्शन से वापस लौट रहा था। उस विशाल जुलूस की अंतिम पंक्ति को स्थानीय पुलिस थाना के मुट्ठी भर सिपाहियों ने धमकाया। जुलूस ने धमकी का जवाब धमकी से दिया था तो सिपाही भाग कर थाने के भीतर घुस गए। यह कदम उन्हें भारी पड़ा। उन्मत्त प्रदर्शनकारियों ने पुलिस थाने को घेर लिया और अंतत: उसमें आग लगा दी। तीन नागरिक और 22 पुलिसकर्मियों की जलकर मौत हो गई। अभियुक्तों पर मुकदमा चला। 19 लोगों को फांसी हुई, 14 को उम्रकैद और 10 को आठ साल का सश्रम कारावास। एक तरफ यह हुआ तो दूसरी तरफ गांधीजी ने ‘असहयोग आंदोलन’ वापस ले लिया। सारा देश अवाक रह गया। जब आंदोलन के सामने सरकार टिक नहीं पा रही थी और सफलता सामने खड़ी थी, तभी गांधीजी ने पर्दा गिरा दिया। गांधीजी ने कहा : साधन पवित्र न हों तो पवित्र सफलता संभव ही नहीं है। दूसरा पक्ष कह रहा था कि सफलता मिलती हो तो साधन की पवित्रता बहुत मानी नहीं रखती है। आंदोलन वापस हुआ तो लगभग सभी निराश हुए। कुछ टूटे, कुछ हिंसक रास्तों की तरफ मुड़ गए।
आज सौ साल बाद इसी घटना को हम कैसे देखेंगे? गांधीजी के उस प्रयोग को उनके तब के साथी समझ नहीं पाए। क्या हम आज समझ पा रहे हैं? मैं कहना चाहती हूं कि आज देश में शांतिपूर्ण जनांदोलन का जो ‘क्रैश कोर्स’ किसान चला रहे हैं, उसका ‘सिलेबस’ गांधीजी ने 100 साल पहले लिखा था। किसान नेता लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि आंदोलन में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिए। गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी को दिल्ली और लालकिले पर जो कुछ हुआ, उसकी भी सबने समवेत स्वर में निंदा की। अब तो यह बात खुल गई है कि 26 जनवरी की घटना आंदोलन को बदनाम करने की एक साजिश ही थी। इसके बाद से लगातार किसान आंदोलन देशव्यापी कार्यक्रम करता जा रहा है और सभी अधिकाधिक अनुशासित व शांतिमय रहे हैं।
समाज को यह सीख कहां से मिली कि आंदोलन में अगर हिंसा होती है तो उससे आंदोलन को फायदा होना तो दूर, नुकसान ही होता है? किसान आंदोलन न केवल कार्यक्रमों में शांतिपूर्ण है, बल्कि वह बोलने-लिखने में भी अनुकरणीय संयम बरत रहा है। हिंसा केवल तोड़-फोड़ या मार-पिटाई नहीं होती है, उत्तेजक भाषण, उकसाने वाले पर्चे-नारे-गीत और भड़काने वाली मुद्रा भी हिंसा के दायरे में आती है। शांतिपूर्ण आंदोलन के नेतृत्व को इन सबकी सावधानी रखनी पड़ती है, यह बात किसने किसानों को समझाई है? चौरी-चौरा की शताब्दी के वक्त क्या हम या प्रधानमंत्री उस बूढ़े को इस बात का श्रेय भी न देंगे कि हमने उसके प्रयोगों से कितना कुछ सीखा है?
पिछले दिनों सिंघु बोर्डर पर जाने का मौका मिला। हाथ में था ‘गांधी-मार्ग’ पत्रिका का वह अंक जिसमें गांधी के रास्ते किसानों की समस्या का समाधान कैसे निकले, इस पर कुमार प्रशांत का लिखा लेख था। कुछ लोग ‘गांधी-मार्ग’ देख कर उबल पड़े। उनसे थोड़ी बातचीत भी हुई। वे गांधी का नाम भी नहीं सुनना चाहते थे। जब मैंने कहा कि आपका आंदोलन तो गांधी के रास्ते ही चल रहा है तो वे थोड़े सकपका जरूर गये, लेकिन फिर अपनी जिद पर आ गये।
महीनों से लगातार ‘गोदी मीडिया’ किसान आंदोलन को बदनाम करने में लगा है। अब शायद किसान यह समझ सकें कि ऐसा ही दुष्प्रचार गांधी के खिलाफ अंग्रेजों ने भी वर्षों तक चलाया था। गांधी के हत्यारों ने उन्हें मार डालने के बाद भी वह दुष्प्रचार चलाए रखा। हर सत्ताधारी डरता है कि कहीं गांधी का असली स्वरूप जनता तक न पहुंच जाए। असली गांधी गोरे अंग्रेजों के लिए ही नहीं, काले-भूरे-पीले सभी किस्म के ‘अंग्रेजों’ के लिए समान रूप से खतरनाक हैं। यह कुंठा इतनी गहरी है कि आज 100 साल बाद भी भले हम गांधी के कुछ रास्तों पर चल रहे हैं, लेकिन उसे स्वीकार नहीं कर पा रहे।
आजादी की व्यापक होती लड़ाई, गांधी का बढ़ता प्रभाव और उन सबकी काट खोजती सरकारी चालें-कुचालें, हमारे अपने लोगों की संकीर्ण सोच आदि सबका अध्ययन करें तो हमारे सामने एक ही सच बार-बार उभरता है कि शांतिमय जनांदोलन वह अमोघ हथियार है जिसे दबाने-कुचलने का सत्ता का हर हथकंडा विफल होता आया है, विफल होता रहेगा। शांति और सत्य के आग्रह से कठिन-से-कठिन समस्या का हल निकल सकता है। इस दिशा में गांधीजी का जीवन प्रयोगों से भरा रहा। उन प्रयोगों के प्रकाश में कोई भी ईमानदार आंदोलन अपनी मंजिल पा सकता है। जरूरत है तो बस इतनी कि हम गांधी को प्रेमपूर्वक समझने की कोशिश करें।
आजादी की लड़ाई के संदर्भ में क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री इस पहलू को उभारते! वे ऐसा करते तो शायद यह पहचान भी पाते कि वे स्वंय भी और उनकी सरकार भी जनांदोलनों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रही है जैसा अंग्रेज करते थे। चौरी-चौरा की शताब्दी हमें बताती है कि सत्ता के पास सत्य न तब था, न आज है। सौ सालों में हमने कितना कम फासला तय किया है। (सप्रेस)
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