पिछले साल राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर सालभर से ज्यादा धरना-रत रहे किसानों ने सरकार की वादाखिलाफी के विरोध में अब एक फिर आंदोलन का मन बनाया है। इसमें सत्तारूढ़ ‘भाजपा’ से जुडे ‘भारतीय किसान संघ’ ने अगुआई का तय किया है। क्या ऐसे में सरकार किसानों की सुनेगी? क्या इस बार किसानों की मांगें पूरी हो सकेंगी?
यह अटल सत्य है कि इस देश में खेती-किसानी छोड़ आंदोलन के लिए मजबूर होना ही किसानों की नियति है। सरकार फिरंगियों की हो या आजादी के बाद की, किसानों के शोषण का इतिहास आज भी दोहराया जा रहा है। पिछले साल एक बरस के किसान आंदोलन के बाद लगता है कि तमाम सरकारी वादे-दावे परम्परागत रस्म-अदायगी का हिस्सा ही थे।
ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि ‘भारतीय किसान संघ’ को अपनी ही सरकार से खेती-किसानी की बेहतरी की मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन का फैसला करना पड़े? ‘भारतीय किसान संघ’ इस समय मध्यप्रदेश व देश-व्यापी आंदोलन के लिए फिर कमर कस रहा है। किसानों के हित में क्रांतिकारी फैसले लेने के लिए सरकार को मजबूर करने व हर दिन बढ़ रहे कृषि-भूमि अधिग्रहण से किसानों को निजात दिलाने का आंदोलन के सिवा और कोई चारा नहीं है। भाजपा शासित सरकारोँ के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है।
मध्यप्रदेश की करीब 20 बरस पुरानी भाजपा सरकार के कृषि विभाग में भ्रष्टाचार व मंडियों में हर दिन किसानों से ठगी, ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ में प्रदेश सरकार द्वारा मनमाने बदलाव ऐसे कई उदाहरण हैं। यही आलम वैश्विक कारपोरेट घरानों जैसी चमक-दमक वाले केंद्रीय कृषि मंत्रालय का भी है। यही वजह है कि तीन माह बाद दिसंबर में ‘भारतीय किसान संघ’ सड़कों पर उतरने की तैयारी कर रहा है। दिल्ली में देशभर से किसान जुटेंगे।
केंद्र व राज्यों की सरकारोँ के किसान हित के लाख दावों के बाद भी खेती व किसानों को कोई आर्थिक लाभ नहीं हो रहा है। इसके लिए किसान भी एक हद तक जिम्मेदार हैं। किसान एक ही फ़सल बड़े इलाके में लेने लगते हैं। इससे ज्यादा पैदावार होती है व भाव नहीं मिलते। मध्यप्रदेश में लहसुन-प्याज़ की फसल के दाम दो रुपये किलो भी नहीं मिल रहे हैं। गत वर्ष मूंग की यह स्थिति थी। फसल फेंकने की नौबत आ जाती है।
राजनीतिक दबाव से मूंग की बिक्री ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ तय करवाकर सरकार से खरीदी कराई। लहसुन-प्याज को लेकर यही स्थिति बन रही है। ‘भावान्तर’ बतौर मुवावजे के मांगा जा रहा है, क्योंकि जिस दाम पर फसल बिक़ती है उसका चार से पांच गुणा लागत खर्च है। यानी फसल को पैदा करने का लागत मूल्य भी किसान को नहीं मिले तो सरकारी नीतियों का क्या औचित्य?
ऐसी तमाम विसंगतियों को लेकर करीब दो बरस पहले दिल्ली में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल आदि राज्यों के किसानों ने आंदोलन किया था। यह आंदोलन यहाँ-वहां भटकते व तरह-तरह की साजिशों, राजनीति और अलगाववाद का शिकार होकर केंद्र के तीन कानूनों को वापस लेने व ‘एमएसपी’ पर जाकर ठहर गया था और नवंबर 2021 में सरकार ने दिल पर पत्थर रखकर आंदोलन की बात मान ली थी।
केन्द्र सरकार ने अपने तीन कानून वापस ले लिये। अधिकतम समर्थन मूल्य व स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक ‘सी 2’ को लागू करने का वादा हुआ। इस काम के लिए एक कमेटी बनाई गई। इस समय यह कमेटी अलग-अलग किसान संगठनों से चर्चा कर रही है, लेकिन सरकारी रुख देखकर अनुमान यह है कि किसान जैसा चाहते हैं, वैसा होना नहीं है। इस जद्दोजेहद से प्रतीत होता है कि हमेशा की तरह खेती-किसानी को राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के अनुषांगिक संगठन ‘भारतीय किसान संघ’ ने सरकार के तीन नए खेती क़ानून का अध्ययन व फिर पूरे देश में किसानों से संवाद करके जरूरी बड़े सुझावों के साथ लाभकारी मूल्य का फार्मूला सरकार को प्रस्तुत किया था। ये सुझाव केंद्र को तीन कानून में सुधार के लिए दिये गए थे। उस समय भी संघ-पोषित सरकार ने ‘भारतीय किसान संघ’ की बात नहीं मानी। नतीजे में कई किसान संगठनों ने आंदोलन की ऐतिहासिक पटकथा लिख डाली व उसे साकार कर दिखाया। ‘भारतीय किसान संघ’ व आंदोलन वाले संगठन शुरूआत में साथ थे, बाद में संघ आंदोलन से अलग हो गया था।
इधर सरकारी कमेटी, अन्य किसान संगठनों के साथ चर्चारत है। ‘भारतीय किसान संघ’ के शीर्ष प्रतिनिधियों की बैठक हो रही है। ‘किसान संघ’ के अखिल भारतीय पदाधिकारी वर्ग की टोली के साथ सरकार के प्रतिनिधि समय-समय पर बैठक करते हैं। ‘किसान संघ’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बद्री नारायण चौधरी, महामंत्री मोहिनी मोहन मिश्र, संगठन मंत्री दिनेश कुलकर्णी के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय संगठन मंत्री महेश चौधरी व देशभर के अन्य क्षेत्रीय मंत्री आदि टोली में हैं। सरकार की जो कमेटी बनी है उसमें ‘भारतीय किसान संघ’ के ‘कृषि, आर्थिकी शोध केंद्र’ के अध्यक्ष प्रमोद चौधरी शामिल हैं।
इस बारे में किसान संघ के प्रांतीय कोषाध्यक्ष लक्ष्मी नारायण पटेल कहते हैं कि रद्द किए गए तीन कृषि कानूनों में गम्भीर विसंगतियां थीं, तो कुछ प्रावधान खेती के हित में भी थे। हमारी मांग है कि उन कानूनों में जितने भी संशोधन सुझाए गए हैं वे संशोधन किए जाएं और कानून नए सिरे से लागू करें। इसके अलावा कई सारे खेती-किसानी को लाभदायक बनाने के बहुआयामी विषय हैं, इनका समावेश क़ानून में किया जाए।
एक अन्य ‘प्रान्तीय जैविक खेती’ के अध्यक्ष आंनद सिंह पंवार कहते हैं ‘स्वामीनाथन रिपोर्ट’ के ‘सी 2’ फार्मूले को लागू करें, ताकि किसानों को लाभदायक मूल्य मिल सके। जमीन अधिग्रहण में भी सरकार ने मनमाने बदलाव किये हैं जो किसान विरोधी हैं। मध्यप्रदेश में किसान से सरकार सीधे गाईड लाइन पर जमीन ले लेगी व किसान अदालत में भी नहीं जा सकता, ऐसा काला कानून आज तक रदद नहीं किया गया है। ‘केंद्रीय भूमि अधिग्रहण कानून’ के विपरीत मुआवजा भी आधा कर दिया है।
ऐसे कई जरूरी गम्भीर विषय हैं जिन पर सरकार का रुख उदासीन है। इस कारण दिल्ली में अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन की तैयारी की जा रही है।क्षेत्रीय संगठन मंत्री महेश चौधरी कहते हैं कि दिसम्बर माह में दिल्ली में आंदोलन होगा। पिछले दिनों इंदौर के समीप राऊ में तीन दिन की संगठन की बैठक में इस बारे में राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने चर्चा की है। (सप्रेस)
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