व्यक्ति, समाज और संसार को बेहतर बनाने और बरकरार रखने में अहिंसा एक अद्भुत औजार साबित हो सकती है। अहिंसा के जरिए आज की अनेक निजी, सार्वजनिक और सांसारिक व्याधियों से पार पाया जा सकता है। कैसे?
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। विकसित बुद्धि, भाषा के विकास, सीधे खड़े होने की सामर्थ्य और उँगलियों की विशिष्ट बनावट के चलते ही मनुष्य अन्य पशु समुदाय से अधिक विकसित हो सका है। अन्यथा बहुत सी पशु-वृत्तियां मनुष्य में भी विद्यमान हैं। हर मनुष्य और मनुष्य-समाज सुख-शांति से रहना चाहता है। तमाम भौतिक सुख-सुविधाएं पैदा करने के बाबजूद पशु- वृत्तियों के चलते हिंसक और लालची व्यवहार के कारण मनुष्य एक दुसरे को कष्ट पंहुचा कर दुखी करता आया है। इसी के कारण स्वयं भी दुखी होता आया है।
शायद इसी पशु-वृत्ति जनित दुःख निवारण के लिए धर्मों का अविष्कार मनुष्य समाज ने किया होगा। इसमें कुछ आत्म-नियमन के द्वारा पशु-वृतियों के दमन की अपेक्षा करके समाज को सुखी बनाने की चेष्टा की गई है। धीरे-धीरे पशु-वृतियां धर्मों पर भी हावी हो गईं। यह विचार आने लगे कि मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है। इसलिए दूसरे के धर्म को निकृष्ट बताकर उसे समाप्त या नियंत्रित करने के प्रयास शुरू हो गए। इससे एक नए प्रकार की भयानक हिंसा का जन्म हो गया। ‘आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास’ – कहावत को चरितार्थ करते हुए सुख और शांति की दिशा में बढने के नाम पर बड़ी हिंसा का शिकार हो गए।
कबीलाई समाज के समय जब मनुष्य उतना विकसित नहीं था, तब हिंसा छोटे स्तर पर छोटी-छोटी बातों पर होती थी। भोजन तलाशने, शिकार के इलाकों पर आधिपत्य जमाने के लिए एक कबीला दूसरे से टकरा जाता था। जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता गया, वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ बढती गईं। फिर टकराव के मौके भी बढ़ते गए। टकराने के शस्त्रास्त्र भी बढ़ते गए। यानि सुख-शांति से जीने के हालात कम होते चले गए। पहले लाठी डंडों से झगड़े निपट जाते थे, फिर भाले तीर, तलवारों की नौबत आ गई और अब हम महा-विनाशक अणुबमों के खतरे में जीने को अभिशप्त हैं।
‘दर्द बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ – यह कहावत चरितार्थ होने लगी। अनेक धर्मों, पंथों ने साधना और धार्मिक नियमन से व्यक्तिगत तौर पर अहिंसक व्यवहार में पारंगत महामानवों को पैदा किया, किन्तु सामूहिक स्तर पर अहिंसा का प्रयोग बहुत नगण्य ही रहा। इसमें शायद महात्मा गांधी एक अपवाद हैं जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतन्त्रता आन्दोलन में अहिंसा को एक उपकरण की तरह उपयोग करने का साहस किया और बड़े पैमाने पर सफलता भी हासिल की।
बहुत से लोग अहिंसा के इस उपकरण को मान्यता देने में संकोच करते हैं और इस बहस में फंसे रहते हैं कि आज़ादी अहिंसक आन्दोलन से मिली या क्रांतिकारी आन्दोलन से या नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सैनिक प्रयास से। हालांकि यहाँ मकसद यह तय करना नहीं है कि किसके प्रयास से आज़ादी मिली, सबके ही प्रयास महत्वपूर्ण रहे हैं, किन्तु मूल प्रश्न है कि अहिंसा के उपकरण को व्यक्तिगत स्तर से आगे बढ़कर सामूहिक स्तर तक उपयोगी कैसे बनाया जाए ताकि अंतर्राष्ट्रीय मामलों को सुलझाने के लिए युद्धों के अलावा अहिंसक उपाय किए जा सकें और सुख-शांति पूर्ण जीवन संभव हो सके।
इस दिशा में यह भी देखा जाना चाहिए कि देशों के बीच युद्धों के मुख्य कारण क्या रहे हैं। इतिहास के अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि बहुत से संघर्ष आर्थिक प्रभुत्व के लिए हुए हैं या फिर अपनी धार्मिक विचार-धाराओं के जबरदस्ती प्रचार की भूख के कारण हुए हैं। कोई यह बोले कि मेरे रास्ते से स्वर्ग या जन्नत मिलना तय है, तो भाई आप स्वर्ग या जन्नत के मजे लूट लो दूसरे को क्यों परेशान करते हो कि आप भी मेरे रास्ते चलो। जिस धर्म का उद्भव या विकास मानव समाज को सुखी करने के लिए हुआ था उसी के कारण दुनियां में कितना हिंसक वातावरण बना है और सब तरफ दुःख ही फैलने का कारण बन गया है।
इस तरह के हालात में अहिंसक शक्ति को कैसे सर्वोपरि बनाया जा सकता है। हिंसा और प्रति-हिंसा के दुश्चक्र में धर्म तो गायब ही हो जाता है। जो मनुष्य समाज दूसरे को दुखी करेगा, वह स्वयं भी दुखी होगा ही क्योंकि हर क्रिया की प्रतिक्रिया तो प्रकृति का नियम ही है। इतनी बात समझ आ जाए तो आगे का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। आर्थिक कारणों से होने वाली हिंसा भी दो तरह की हैं। एक तो अभाव-जनित है। अभाव दूर करके जिसका निराकरण किया जा सकता है। दूसरी है, लालच जनित।
गांधी जी ने कहा था कि प्रकृति के पास सबकी जरूरतें पूरा करने के लिए पर्याप्त है, किन्तु किसी के लालच की पूर्ति के लिए कुछ भी नहीं। यानि लालच प्रकृति की शक्ति पर अनचाहा भार है और समाज में अन्याय का कारण भी। गांधी जी का आत्मनिर्भर समाज का सिद्धांत इस दृष्टि से उपयोगी हो सकता है, यदि इसे वैश्विक स्तर पर भी लागू किया जा सके। जब सभी देश आत्मनिर्भर होने के लक्ष्य से काम करेंगे तो अनंत साधन और शक्ति हथियाने की जरूरत समाप्त हो जाएगी। व्यापारिक मंडियों पर कब्जे की जरूरत ही नहीं रहेगी। अंतर्राष्ट्रीय हिंसा का बड़ा कारण सीमाओं की रक्षा भी है। जैसे आर्थिक विस्तारवाद खराब है, वैसे ही सीमाई विस्तारवाद भी है।
इसके लिए सशक्त विश्व मंच की जरूरत है जो सीमाओं के संरक्षण की गारंटी दे सके। क्या ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ उस दिशा में विकसित किया जा सकता है? यदि सीमाओं की सुरक्षा सलाह-मशविरे से संभव हो जाए तो हिंसा का बड़ा कारण समाप्त हो जाएगा। फिर आप सेनाओं और भयंकर शस्त्रास्त्रों पर खर्च राशि को बहुत घटा सकते हैं और समाज की सुख-समृद्धि पर खर्च कर सकते हैं। काश! ऐसा हो पाए। (सप्रेस)
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