मेधा पाटकर व 11 ट्रस्टियों के खिलाफ की गई एफ़आईआर खारिज करने की मांग
बडवानी। मेधा पाटकर और नर्मदा नव निर्माण अभियान के ट्रस्टियों के खिलाफ हुई एफआईआर को लेकर देशभर के 30 से अधिक जनसंगठनों और संस्थाओं ने कड़ी निन्दा करते हुए इस एफआईआर के तत्काल निरस्तीकरण की मांग की है। संगठनों ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि देशभर में जाने माने बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में उलझाने की यह अगली कड़ी है, और इसी के कारण एक भय और आतंक का माहौल पैदा किया जा रहा है, जिसमें लोकतंत्र घुट रहा है और सरकार की तानाशाही को बढ़ावा मिल रहा है।
मेधा पाटकर सहित परवीन रूमी जहांगीर, विजया चौहान, कैलाश अवास्या, मोहन पटीदार, आशीष मंडलोई, केवल सिंह वसावे, संजय जोशी, श्याम पाटील, सुनीति एसआर, नूरजी पादवी और केशव वासवे पर बेबुनियादी आरोपों को अस्वीकार करते है । बड़वानी पुलिस एवं प्रशासन द्वारा इससे पहले भी संवैधानिक अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे आदिवासी कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर कई बार झूठे मामले दर्ज किए गए है, जो कि अत्यंत शर्मनाक एवं निंदनीय है ।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, जागृत आदिवासी दलित संगठन से जुडे सुदेश टेकाम, शालिनी गेरा, आलोक शुक्ला, हरसिंग जमरे, नासरी बाई निंगवाल, माधुरी ने कहा कि पिछले तीस वर्षों से मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विस्थापित लोगों के अधिकारों के लिए, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश के मजदूर, किसान, आदिवासी, मछुआरे समुदायों के साथ मिल कर निरंतर संघर्ष किया है। अपनी पूरी जिंदगी नर्मदा की घाटी में डूब में आ रही पूरी एक सभ्यता, असंख्य जिंदगियों को बचाने और उनके बेहतर पुनर्वास में लगा दी। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पूरे देश और पूरी दुनिया में विस्थापन और पुनर्वास की बहस शुरू की पर्यावरण और न्याय संगत विकास के मुद्दे को प्रमुखता से सामने लाया।
इन्हीं संघर्षों के कारण देश विदेश में बड़े बांधों के दुष्प्रभावों पर अध्ययन हुआ जिस के दबाव में आकर विश्व बैंक ने भी इन बांधों में निवेश करने से मना कर दिया। नर्मदा घाटी के इस महत्वपूर्ण संघर्ष ने देश भर में हो रहे लोगों के विस्थापन को एक चुनौती दी, और ऐसे विकास के मॉडल पर सवाल खड़े किए, जिससे आदिवासी, ग्रामीण, वंचित समुदायों का विनाश हो रहा हो।
आज, किसानों पर कृषि संकट गहराता जा रहा है, और मजदूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है । हमारे देश के जल जंगल जमीन का संरक्षण कर रहे आदिवासियों को उजाड़ कर, उनकी संपत्ति कंपनियों के हवाले की जा रहा है ।
ऐसे परिस्थितियों में, देशभर में जनता का इन ज्वलंत मुद्दों को उठाने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे, सरकार की विफलताओं को उजागर करने वाले लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों के लिए संघर्षरत जन-संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को दबाने के लिए किए जा रहे ये प्रायोजित प्रयास का विरोध करते है ।
संगठनों की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा कि हाल ही में गुजरात के दंगों में न्याय की लड़ाई लड़ने वाली जुझारू वकील तीस्ता सीतलवाड़, और पूर्व डीजीपी आर बी श्रीकुमार की गिरफ्तारी, तथ्य शोधक मुहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी, मानवाधिकार के अंतर्राष्ट्रीय संगठन एमनेस्टी और उनके मुख्य कार्यकर्ता आकार पटेल पर कई करोड़ों का अर्थदंड – ये सब दर्शाते हैं कि किस सुनियोजित तरीके से सरकार अपने आलोचकों को चुप करना चाहती है।
मांग करने वाले संगठनों में जिला किसान संघ, राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्त्ता समिति), आखिल भारतीय आदिवासी महासभा, जन स्वास्थ कर्मचारी यूनियन, भारत जन आन्दोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (कोरबा, सरगुजा), माटी (कांकेर), अखिल भारतीय किसान सभा (छत्तीसगढ़ राज्य समिति) छत्तीसगढ़ किसान सभा, किसान संघर्ष समिति (कुरूद) दलित आदिवासी मंच (सोनाखान), गाँव गणराज्य अभियान (सरगुजा) आदिवासी जन वन अधिकार मंच (कांकेर) सफाई कामगार यूनियन, मेहनतकश आवास अधिकार संघ (रायपुर) जशपुर जिला संघर्ष समिति, राष्ट्रीय आदिवासी विकास परिषद् (छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर) जशपुर विकास समिति, रिछारिया केम्पेन, भूमि बचाओ संघर्ष समिति (धरमजयगढ़) आदि उल्लेखनीय है।